पूज्य बापूजी के दिव्य दर्शन और भारतीय संस्कृति का सर्वहितकारी ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

Friday, December 31, 2010


ब्रह्म सूत्र - Brhamsutr

प्रथम अध्याय - Pratham Adhyay
प्रथम पाद Pratham Paad

अथातो ब्रह्मजिज्ञासा ।१।

अब यहाँ से ब्रह्म विषयक विचार आरम्भ किया जाता है

जन्माद्यस्य यतः ।२।

इस जगत् के जन्म आदि जिससे होते हैं वह ब्रह्म है।

शास्त्रयोनित्वात् ।३।

शास्त्र में उस ब्रह्म को जगत् का कारण बताया गया है इसलिए इसे मानना उचित है

तत् तु समन्वयात् ।४।

तथा यह ब्रह्म समस्त जगत् में पूर्ण रूप से व्याप्त होने के कारण उपादान भी है।

ईक्षतेर् नाशब्दम् ।५।

श्रुति में ‘ईक्ष’ धातु का प्रयोग होने के कारण शब्द प्रमाण-शून्य प्रधान (जड़ प्रकृति) जगत् का कारण नहीं है।

गौणश् चेन् नात्मशब्दात् ।६।

यदि यह कहो कि ईक्षण का प्रयोग गौण वृति से प्रकृति के लिए हुआ है तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि वहाँ ‘आत्मा’ शब्द का प्रयोग है।

तन्निष्ठस्य मोक्षोपदेशात् ।७।

उसमें (परब्रहम् में) स्थित होने वाले व्यक्ति की मुक्ति बतलाई गई है, इसलिए प्रकृति को जगत् का कारण नही माना जा सकता।

हेयत्वावचनाच् च ।८।

त्यागने योग्य नहीं बताये जाने के कारण भी ‘आत्मा’ शब्द प्रकृति का वाचक नहीं हैं।

स्वाप्ययात् ।९।

अपने में विलीन होना बतलाया गया है इसलिए ‘सत्’ शब्द भी प्रकृति का वाचक नहीं हो सकता।

गतिसामान्यात् ।१०।

सभी उपनिषद् वाक्यों की गति सामान्य रूप से चेतन परब्रहम् को ही जगत् का कारण बताने में हैं। इसलिए प्रकृति को जगत् का कारण नहीं माना जा सकता।

श्रुतत्वाच् च ।११।

श्रुतियों द्वारा जगह-जगह यही बात कही गई है, इसलिए भी परब्रह्म ही जगत् का कारण सिध्द होता है ।

आनन्दमयोऽभ्यासात् ।१२।

श्रुति में बार-बार ‘आनन्द’ शब्द का प्रयोग ब्रह्म के लिए हुआ है इसलिए ‘आनन्दमय’ शब्द परब्रह्म का ही वाचक है।

विकारशब्दान् नेति चेन् न प्राचुर्यात् ।१३।

यदि कहो कि ‘आनन्दमय’ में ‘मय’ (मयट्) प्रत्यय विकार का बोधक होने से आनन्दमय शब्द ब्रह्म का वाचक नहीं हो सकता तो यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि मयट् (मय) प्रत्यय यहाँ प्रचुरता का बोधक है (विकार का नहीं)।

तद्धेतुव्यपदेशाच् च ।१४।

उपनिषदों में ब्रहम् को उस आनन्द का हेतु बताया गया है इसलिए भी यहाँ मयट् प्रत्यय विकार अर्थ का बोधक नहीं है।

मान्त्रवर्णिकमेव च गीयते ।१५।

मंत्राक्षरों में जिसका वर्णन किया गया है, उस ब्रह्म का ही यहाँ प्रतिपादन किया जाता है।

नेतरोऽनुपपत्तेः ।१६।

ब्रह्म से भिन्न जो जीवात्मा है वह आनन्दमय नहीं हो सकता। क्योंकि पूर्वापर के वर्णन से यह बात सिध्द नहीं होती।

भेदव्यपदेशाच् च ।१७।

जीवात्मा और परमात्मा को एक दूसरे से भिन्न बतलाया गया है। इसलिए भी (आनन्दमय शब्द जीवात्मा का वाचक नहीं हो सकता)।

कामाच् च नानुमानापेक्षा ।१८।

तथा ‘आनन्दमय’ में कामना का कथन होने से यहां कल्पित जड़ प्रकृति को ‘आनन्दमय’ शब्द से ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं है।

अस्मिन्न् अस्य च तद्योगं शास्ति ।१९।

इसके सिवा इस प्रकरण में इस जीवात्मा का उस आनन्दमय से संयुक्त होना (मिल जाना) बतलाती है, इसलिए जड़ प्रकृति या जीवात्मा आनन्दमय नहीं है।

अन्तस् तद्धर्मोपदेशात् ।२०।

ह्रदय के भीतर शयन करने वाला विज्ञानमय तथा सूर्य मण्डल के भीतर स्थित हिरण्यमय पुरुष ब्रह्म है, क्योंकि उसमें ब्रह्म के धर्मों का ही उपदेश किया गया है।

भेदव्यपदेशाच् चान्यः ।२१।

तथा भेद का कथन होने से सूर्य मण्डलान्तवर्ती हिरण्यमय पुरुष सूर्य के अधिष्ठाता देवता से भिन्न है।

आकाशस् तल्लिङ्गात् ।२२।

‘वहाँ ‘आकाश’ शब्द परब्रह्म परमात्मा का ही वाचक है, क्योंकि जो लक्षण बताये गये हैं, वे उस ब्रह्म के ही हैं।

अत एव प्राणः ।२३।

इसलिए प्राण भी ब्रह्म ही है।

ज्योतिश् चरणाभिधानात् ।२४।

उक्त ज्योति के चार पादों का कथन होने से ‘ज्योति’ शब्द वहाँ ब्रह्म का वाचक है।

छन्दोऽभिधानान् नेति चेन् न तथा चेतोऽर्पणनिगदात् तथा हि दर्शनम् ।२५।

यदि कहो गायत्री छन्द का कथन होने के कारण उसी के चार पादों का वर्णन है, ब्रहम् के चार पादों का वर्णन नहीं है। तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि उस प्रकार के वर्णन द्वारा ब्रह्म में चित का समर्पण बताया गया है वैसा ही वर्णन दूसरी जगह भी देखा गया है।

भूतादिपादव्यपदेशोपपत्तेश् चैवम् ।२६।

भूत आदि को पाद बतलाना युक्तिसंगत हो सकता है, इसलिए भी ऐसा ही है।

उपदेशभेदान् नेति चेन् नोभयस्मिन्न् अप्य् अविरोधात् ।२७।

यदि कहो कि उपदेश में भिन्नता होने से गायत्री शब्द ‘ब्रह्म’ का वाचक नहीं है तो यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि दो प्रकार का वर्णन होने पर भी कोई विरोध नहीं है।

प्राणस् तथानुगमात् ।२८।

‘प्राण’ शब्द यहाँ भी ब्रहम् का ही वाचक है क्योंकि पूर्वापर के प्रसंग पर विचार करने से ऐसा ही ज्ञात होता है।

न वक्तुर् आत्मोपदेशाद् इति चेद् अध्यात्मसंबन्धभूमा ह्य् अस्मिन् ।२९।

यदि कहो वक्ता (इन्द्र) का उद्देश्य अपने को ‘प्राण’ नाम से बतलाना है, इसलिए ‘प्राण’ शब्द ब्रहम् का वाचक नहीं हो सकता, तो यह कथन ठीक नहीं है। क्योंकि इस प्रकरण में अध्यात्म सम्बन्धी उपदेश कि बहुलता है।

शास्त्रदृष्ट्या तूपदेशो वामदेववत् ।३०।

यहां इन्द्र का अपने को प्राण बतलाना तो वाम-देव की भाँति केवल शास्त्र दृष्टि से है।

जीवमुख्यप्राणलिङ्गान् नेति चेन् नोपासात्रैविध्यादाश्रितत्वाद् इह तद्योगात् ।३१।

यदि कहो, इस प्रसंग के वर्णन में जीवात्मा तथा प्रसिद्ध प्राण के लक्षण पाये जाते हैं, इसलिए प्राण शब्द ब्रह्म का वाचक नहीं है तो यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर त्रिविध उपासना का प्रसंग उपस्थित होगा। इसके सिवा सब लक्षण ब्रह्म के आश्रित हैं तथा इस प्रसंग में ब्रहम् के लक्षणों का ही कथन है इसलिए यहाँ ‘प्राण’ शब्द ब्रह्म का ही वाचक है।

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