पूज्य बापूजी के दिव्य दर्शन और भारतीय संस्कृति का सर्वहितकारी ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

Wednesday, July 10, 2013

कठोपनिषद्- Kathopnishad

प्रथम अध्याय
द्वितीय वल्ली

अन्यच्छेयोऽन्यदुतैव प्रेयस्ते उभे नानार्भे पुरुषं सिनीतः।
तयोः श्रेय आददानस्य साधु भवति हीयतेऽर्थाद्य उ प्रेयो वृणीते ॥१॥

श्रेयस् अन्य है, प्रेयस् अन्य है। ये दोनों पुरुष को भिन्न-भिन्न प्रयोजनों से आकर्षित करते हैं। उनमें श्रेयस् को ग्रहण करनेवाले पुरुष का कल्याण होता है और जो प्रेयस् का वरण करता है, वह यथार्थ से भ्रष्ट हो जाता है।

श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीरः। 
श्रेयो हि धीरोऽभिप्रेयसो वृणीते प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद् वृणीते ॥२॥

श्रेय और प्रेय (दोनों) मनुष्य को प्राप्त होते हैं। श्रेष्ठबुद्धिसम्पन्न पुरुष विचार करके उन्हें पृथक्-पृथक् समझता है। श्रेष्ठबुद्धिवाला मनुष्य प्रेय की अपेक्षा श्रेय को ही ग्रहण करता है। मन्दबुद्धिवाला मनुष्य लौकिक योगक्षेम (की इच्छा) से प्रेय का ग्रहण करता है। 

स त्वं प्रियान् प्रियरूपांश्च कामानभिध्यायन्नचिकेतोऽत्यस्त्राक्षीः।
नैतां सृडकां वित्तमयीमवाप्तो यस्यां मज्जन्ति बहवो मनुष्याः ॥३॥

वह तू है (ऐसे तुम हो कि) प्रिय प्रतीत होनेवाले और प्रिय रूपवाले (समस्त) भोगों को सोच-समझकर (तुमने) छोड़ दिया, इस बहुमूल्य रत्नमाला को भी स्वीकार नहीं किया जिसमें (जिसके प्रलोभन में) अधिकांश लोग फँस जाते हैं।

दूरमेते विपरीत विषूची अविद्या या च विद्येति ज्ञाता।
विद्याभीप्सितं नचिकेतसं मन्ये न त्वा कामा बहवोऽलोलुपन्त ॥४॥

जो अविद्या और विद्या नाम से विख्यात हैं, ये (परस्पर) अत्यन्त विपरीत हैं। (ये) भिन्न-भिन्न फल देनेवाली हैं। मैं तुम नचिकेता को विद्या का अभिलाषी मानता हूँ, तुम्हें बहुत से भोगों ने प्रलुब्ध नहीं किया।

अविद्यायामन्तरे वर्तमानः स्वयं धीराः पण्डितम्मन्यमानाः।
दन्द्रम्यमाणाः परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः ॥५॥

अविद्या के भीतर ही रहते हुए, स्वयं को धीर, पण्डित माननेवाले मूढजन, भटकते हुए चक्रवत् घूमते रहते हैं, जैसे अन्धे से ले जाते हुए अन्धे।

न साम्परायः प्रतिभाति बालं प्रमाद्यन्तं वित्तमोहेन मूढम्।
अयं लोको नास्ति पर इति मानी पुनः पुनर्वशमापद्यते मे।। ६।।

धन सम्पत्ति से मोहित, प्रमादग्रस्त अज्ञानी को परलोक (अथवा लोकोत्तर-अवस्था) नहीं सूझता। यह प्रत्यक्ष दीखनेवाला लोक (ही सत्य) है, इससे परे (अतिरिक्त) कुछ नहीं है, ऐसा माननेवाला अभिमानी मनुष्य पुनः पुनः मेरे (यमराज के) वश में आ जाता है।

श्रवणायापि बहुरभिर्यो न लक्ष्यः श्रृण्वन्तो·पि बहवो यं न विद्युः। 
आश्चर्यो वक्ता कुशलो·स्य लब्धा··श्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः।। ७।। 

जो (आत्मतत्त्व) बहुत से मनुष्यों को सुनने के लिए भी नहीं मिलता, जिसे बहुत से मनुष्य सुनकर भी नहीं समझ पाते, इसका कहनेवाला आश्चर्यमय है, ग्रहण करनेवाला परम बुद्धिमान् है, उससे शिक्षित ज्ञाता पुरुष आश्चर्यमय है।

न नरेणावरेण प्रोक्त एष सुविज्ञेयो बहुधा चिन्त्यमानः। 
अनन्यप्रोक्ते गतिरत्र अमीयान् ह्यतर्क्यमणुप्रमाणात्।। ८।।

तुच्छ बुद्धिवाले मनुष्य से कहे जाने पर, बहुत प्रकार से चिन्तन करने पर भी, यह आत्मतत्त्व समझ में नहीं आता। किसी अन्य ज्ञानी पुरुष के द्वारा उपदेश न किये जाने पर इस विषय में प्रवेश नहीं होता, क्योंकि यह (विषय) अणुप्रमाण (सूक्ष्म) से भी अधिक सूक्ष्म है, तर्क से परे है।

नैषा तर्केण मतिरापनेया प्रोक्तान्येनैव सुज्ञानाय प्रेष्ठ। 
यां त्वमापः सत्यधृतिर्बतासि त्वादृक् नो भूयान्नचिकेतः प्रष्टा।।९।।

हे परमप्रिय, यह बुद्धि, जिसे तुमने प्राप्त किया है, तर्क से प्राप्त नहीं होती। अन्य (विद्वान्) के द्वारा कहे जाने पर भली प्रकार समझ में आ सकती है। वास्तव में, नचिकेता, तुम सत्यनिष्ठ हो (अथवा सच्चे निश्चयवाले हो)। तुम्हारे सदृश जिज्ञासु हमें मिला करें।

जानाम्यहं शेवधिरित्यनित्यं न ह्यध्रुवैः प्राप्यते हि ध्रुवं तत्। 
ततो मया नाचिकेतश्चितोमन्गिरनित्यैर्द्रव्यैः प्राप्तवानस्मि नित्यम्।।१०।।

मैं जानता हूँ कि धन अनित्य है। निश्चय ही अनित्य वस्तुओं से नित्य वस्तु को प्राप्त नहीं किया जा सकता। तथापि मेरे द्वारा अनित्य पदार्थों के द्वारा नाचिकेत अग्नि का चयन किया गया और (उसके बाद) मैं नित्यप्रद को प्राप्त है गया हूँ।

कामस्याप्तिं जगतः प्रतिष्ठां क्रतोरनन्त्यमभयस्य पारम्।
स्योममहदुरुगायं प्रतिष्ठां दृष्टवा धृत्या धीरो नचिकेतो·त्यस्त्राक्षीः।। ११।।

हे नचिकेता, तुमने भोग-ऐश्वर्य की प्राप्ति करानेवाले स्वर्ग को (अथवा भोग-ऐश्वर्य की प्राप्ति को), यज्ञ की अनन्तता (अनन्त फल) से प्राप्त स्वर्ग को (अथवा यज्ञ के अनन्त फल को), निर्भीकता की पराकाष्ठावाले स्वर्ग को (अथवा निर्भीकता की पराकाष्ठा को), स्तुति को योग्य एवं महान् और वेदों में जिसका गुणगान है ऐसे स्वर्ग को, स्थिर स्थितिवाले स्वर्ग को (अथवा लोकप्रतिष्ठा को), धीर होकर, विचार करके छोड़ दिया है (तुमने स्वर्ग का मोह छोड़ दिया है)।

तं दुर्दर्शं गूढमनुप्रविष्टं गुहाहितं गव्हरेष्ठं पुराणम्।
अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं मत्वा धीरो हर्षशोकौ जहाति।। १२।।

उस दुर्दर्श (दर्शन में कठिन, जानने में कठिन), गूढ (छिपे हुए, अदृश्य), सर्वत्र विद्यमान (सर्वव्यापी), बुद्धिरूप गुहा में स्थित, हृदयरूप गव्हर में (अथवा संसाररूप गहन गव्हर में) रहनेवाले, सनातन देव (परमात्मा) को अध्यात्मयोग की प्राप्ति के द्वारा, मनन कर (समझकर), धीर पुरुष हर्ष और शोक को छोड़ देता है।

एतच्छ्रुत्वा सम्परिगृह्य मर्त्यः प्रवृह्य धर्म्यमणुमेतमाप्य।
स मोदते मोदनीयं हि लब्ध्वा विवृतं सद्म नचिकेतसं मन्ये।।१३।।

मरणधर्मा मनुष्य इस धर्ममय उपदेश को सुनकर, धारण कर (तथा) विवेचना कर (तथा) इस सूक्ष्म आत्मतत्त्व को जानकर (इसका अनुभव कर लेता है), वह आनन्दस्वरूप परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर निश्चय ही आनन्दमग्न हो जाता है। मैं नचिकेता के (तुम्हारे) लिए परमधाम का द्वार खुला हुआ मानता हूँ।

अन्यत्र धर्मादन्यत्राधर्मादन्यत्रास्मात्कृताकृतात्।
अन्यत्र भूताच्च भव्याच्च यत्तत्पश्यसि तद्वद।। १४।।

(नचिकेता ने कहा) आप जिस उस आत्मतत्त्व को धर्म और अधर्म से परे और कृत और अकृत से भिन्न, भूत और भविष्यत् से परे जानते हैं, उसे कहें।

सर्वे वेदा यत् पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद् वदन्ति।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत्।। १५।।

सारे वेद जिस पद का प्रतिपादन करते हैं और सारे तप जिसकी घोषणा करते हैं, जिसकी इच्छा करते हुए (साधकगण) ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, उस पद को तुम्हारे लिए संक्षेप में कहता हूँ, ओम् ऐसा यह अक्षर है।

एतद्धेवाक्षरं ब्रह्म एतद्धेवाक्षरं परम्।
एतद्धेवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत्।। १६।।

यह अक्षर ही तो ब्रह्म है, यह अक्षर ही परब्रह्म है। इसीलिए इसी अक्षर को जानकर जो जिसकी इच्छा करता है, उसे वही मिल जाता है।

एतदालम्बनं श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम्। 
एतदावम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते।। १७।। 

ॐकार ही श्रेष्ठ आलम्बन है, ॐकार सर्वोच्च (अन्तिम) आलम्बन अथवा आश्रय है। इस आलम्बन को जानकर मनुष्य ब्रह्मलोक में महिमामय होता है।

न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित्।
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।। १८।।

ज्ञानस्वरूप आत्मा न जन्म लेता है और न मृत्यु को प्राप्त होता है। यह न किसी का कार्य है, न किसी का कारण है। यह अजन्मा, नित्यस शाश्वत, पुरातन है। शरीर के नष्ट हो जाने पर इसका नाश नहीं होता।

हन्ता चेन्मन्यते हन्तुं हतश्चेन्मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते।। १९।।

यदि कोई मारनेवाला स्वयं को मारने में समर्थ मानता है और यदि मारा जानेवाला स्वयं को मारा गया मानता है, वे दोनों ही (सत्य को) नहीं जानते। यह आत्मा न मारता है, न मार दिया जाता है।

अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य जन्तोर्निहितो गुहायाम्।
तमक्रतु: पश्यति वीतशोको धातुप्रसादान्महिमानमात्मन:।। २०।।

इस जीवात्मा की हृदयरूप गुहा में स्थित आत्मा (परमात्मा) अणु से भी छोटा, महान् से भी बड़ा है। परमात्मा की उस महिमा को निष्काम व्यक्ति मन तथा इन्द्रियों की निर्मलता होने पर देख लेता है और (समस्त) शोक से पार हो जाता है।

आसीनो दूरं व्रजति शयानो याति सर्वत:।
कस्तं मदामदं देवं मदन्यो ज्ञातुमहर्ति।। २१।।

परमात्मा बैठा हुआ भी दूर पहुँच जाता है, सोता हुआ भी सब ओर चला जाता है, उस मद से मदान्वित न होनेवाले देव को, मुझसे अतिरिक्त कौन जानने के योग्य है ?

अशरीरं शरीरेष्वनवस्थेष्ववस्थितम्।
महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति।। २२।।

अस्थिर शरीरो में संस्थित (उस) महान् सर्वव्यापक परमात्मा को जानकर धीर शोक नहीं करता।

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्।।२३।।

यह परब्रह्म परमात्मा न तो प्रवचन से, न बुद्धि से, न बहुत श्रवण से ही प्राप्त हो सकता है। यह जिसे स्वीकार कर लेता है, उसको ही प्राप्त हो सकता है। यह परमात्मा उसे अपने स्वरूप को प्रकट कर देता है।

नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहित:।
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्।। २४।।

इसे (परमात्मा को) सूक्ष्म बुद्धि अथवा आत्मज्ञान से भी न वह मनुष्य प्राप्त कर सकता है, जो दुराचार से निवृत्त न हुआ हो; न अशान्त व्यक्ति ही उसे प्राप्त कर सकता है, जो असंयत हो और न अशान्त मनवाला ही उसे प्राप्त कर सकता है। (एक अन्य अर्थ है कि प्रज्ञान से ही परमात्मा को प्राप्त कर सकता है।)

यस्य ब्रह्म च क्षत्रं च उभे भवत ओदनः। 
मृत्युर्यस्योपसेचनं क इत्था वेद यत्र सः।। २५।।

जिस परमात्मा के लिए बुद्धिबल और बाहुबल दोनों भोजन हो जाते हैं, मृत्यु जिसका उपसेचन होता है, वह परमात्मा जहाँ कैसा है, कौन जानता है?