पूज्य बापूजी के दिव्य दर्शन और भारतीय संस्कृति का सर्वहितकारी ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

Thursday, December 23, 2010



इशावास्योपनिषद् - Ishavasyopnishad


ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः॥

ॐ वह (परब्रह्म) पूर्ण है और यह (कार्यब्रह्म) भी पूर्ण है; क्योंकि पूर्ण से पूर्ण की ही उत्पत्ति होती है। तथा [प्रलयकाल मे] पूर्ण [कार्यब्रह्म]- का पूर्णत्व लेकर (अपने मे लीन करके) पूर्ण [परब्रह्म] ही बच रहता है। त्रिविध ताप की शांति हो।

॥अथ इशावास्योपनिषद्॥

ॐ ईशा वास्यमिदँ सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्॥१॥

जगत् मे जो कुछ स्थावर-जङ्गम संसार है, वह सब ईश्वर के द्वारा आच्छादनीय है। [अर्थात् उसे भगवत्स्वरूप अनुभव करना चाहिए] । उसके त्याग-भाव से तू अपना पालन कर; किसीके धन की इच्छा न कर ।।1।।

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतँ समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे॥२॥

इस लोक मे कर्म करते हुए ही सौ वर्ष जीनेकी इच्छा करे । इस प्रकार मनुष्यत्व का अभिमान रखनेवाले तेरे लिए इसके सिवा और कोई मार्ग नहीं है, जिससे तुझे [अशुभ] कर्मका लेप न हो ॥2॥

असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसाऽऽवृताः।
ताँस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः॥३॥

वे असुरसम्बन्धी लोक आत्मा के अदर्शनरूप अज्ञान से आच्छादित हैं । जो कोई भी आत्मा का हनन करनेवाले लोग हैं, वे मरनेके अनन्तर उन्हे प्राप्त होते हैं ॥3॥

अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन्पूर्वमर्षत्।
तद्धावतोऽन्यानत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति॥४॥

वह आत्मतत्त्व अपने स्वरूप से विचलित न होनेवाला, एक तथा मन से भी तीव्र गतिवाला है । इसे इंद्रियाँ प्राप्त नहीं कर सकीं; क्योंकि यह उन सबसे पहले (आगे) गया हुआ (विद्यमान) है । वह स्थिर होनेपर भी अन्य सब गतिशीलों को अतिक्रमण कर जाता है । उसके रहते हुए ही [अर्थात् उसकी सत्ता मे ही] वायु समस्त प्राणियों के प्रवृत्ति रूप कर्मों का विभाग करता है ॥4॥

तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः॥५॥

वह आत्मतत्त्व चलता है और नहीं भी चलता । वह दूर है और समीप भी है । वह सबके अंतर्गत है और वही इस सबके बाहर भी है ॥5॥

यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते॥६॥

जो [साधक] सम्पूर्ण भूतों को आत्मा मे ही देखता है और समस्त भूतों मे भी आत्मा को ही देखता है, वह इस [सार्वात्म्यदर्शन]- के कारण ही किसीसे घृणा नहीं करता ॥6॥

यस्मिन्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः।
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः॥७॥

जिस समय ज्ञानी पुरुष के लिए सब भूत आत्मा ही हो गए, उस समय एकत्व देखने वाले उस विद्वान को क्या शोक और क्या मोह हो सकता है ॥7॥

स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रण-मस्नाविरँ शुद्धमपापविद्धम्।
कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भू-र्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः॥८॥

वह आत्मा सर्वगत, शुद्ध, अशरीरी, अक्षत, स्नायु से रहित, निर्मल, अपापहत, सर्वद्रष्टा, सर्वज्ञ, सर्वोत्कृष्ट और स्वयंभू (स्वयं ही होनेवाला) है । उसीने नित्यसिद्ध सवंत्सर नामक प्रजापतियों के लिए यथायोग्य रीति से अर्थों (कर्तत्व्यों अथवा पदार्थों)- का विभाग किया है ॥8॥

अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायाँ रताः॥९॥

जो अविद्या (कर्म)- की उपासना करते हैं वे [अविद्यारूप] घोर अन्धकार मे प्रवेश करते हैं और जो विद्या (उपासना)-मे ही रत हैं वे मानों उससे भी अधिक अन्धकार मे प्रवेश करते हैं ॥9॥
कर्म और उपासना के समुच्चय का फल

अन्यदेवाहुर्विद्ययाऽन्यदाहुरविद्यया।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे॥१०॥

विद्या (देवताज्ञान)-से और ही फल बतलाया गया है तथा अविद्या (कर्म)-से और ही फल बतलाया गया है। ऐसा हमने बुद्धिमान् पुरुषों से सुना है, जिन्होने हमारे प्रति उसकी व्यवस्था की थी ॥10।।

विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयँ सह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते॥११॥

जो विद्या और अविद्या-इन दोनों को ही एक साथ जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार करके विद्या से अमरत्व प्राप्त कर लेता है ॥11।।

अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽसम्भूतिमुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ सम्भूत्याँ रताः॥१२॥

जो असम्भूति (अव्यक्त प्रकृति)- की उपासना करते हैं, वे घोर अन्धकार मे प्रवेश करते हैं और जो सम्भूति (कार्यब्रह्म)- मे रत हैं, वे मानो उनसे भी अधिक अन्धकार मे प्रवेश करते हैं ॥12॥

अन्यदेवाहुः सम्भवादन्यदाहुरसम्भवात्।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे॥१३॥

कार्यब्रह्म की उपासना से और ही फल बतलाया गया है; तथा अव्यक्तोपासना से और ही फल बतलाया है। ऐसा हमने बुद्धिमानों से सुना है, जिन्होने हमारे प्रति उसकी व्याख्या की थी ॥13॥

सम्भूतिं च विनाशं च यस्तद्वेदोभयँ सह।
विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्याऽमृतमश्नुते॥१४॥

जो असम्भूति और कार्यब्रह्म इन दोनों को साथ-साथ जानता है; वह कार्यब्रह्म की उपासना से मृत्यु को पार करके असम्भूति के द्वारा [प्रकृतिलयरूप] अमरत्व प्राप्त कर लेता है ॥14॥

हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये॥१५॥

आदित्यमण्डलस्थ ब्रह्म का मुख ज्योतिर्मय पात्र से ढका हुआ है। हे पूषन्! मुझ सत्यधर्मा को आत्मा की उपलब्धि कराने क लिए तू उसे उघाड़ दे ॥15॥

पूषन्नेकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मीन् समूह तेजः।
यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि योऽसावसौ पुरुषः सोऽहमस्मि॥ १६॥

हे जगत्पोषक सूर्य! हे एकाकी गमन करने वाले! हे यम (संसार का नियमन करनेवाले) ! हे सूर्य (प्राण और रस का शोषण करने वाले) ! हे प्रजापतिनन्दन ! तू अपनी किरणों को हटा ले (अपने तेज को समेत ले)। तेरा जो अतिशय कल्याणमय रूप है, उसे मैं देखता हूँ। यह जो आदित्यमण्डलस्थ पुरुष है वह मैं हूँ ॥16॥

वायुरनिलममृतमथेदं भस्मांतँ शरीरम्।
ॐ क्रतो स्मर कृतँ स्मर क्रतो स्मर कृतँ स्मर॥१७॥

अब मेरा प्राण सर्वात्मक वायुरूप सूत्रात्मा को प्राप्त हो और यह शरीर भस्मशेष हो जाय। हे मेरे संकल्पात्मक मन! अब तू स्मरण कर, अपने किए हुए को स्मरण कर, अब तू स्मरण कर, अपने किए हुए को स्मरण कर ॥17॥

अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नमउक्तिं विधेम॥१८॥

हे अग्ने! हमें कर्मफलभोग के लिए सन्मार्ग से ले चल। हे देव! तू समस्त ज्ञान और कर्मों को जाननेवाला है। हमारे पाषण्डपूर्ण पापों को नष्ट कर। हम तेरे लिए अनेकों नमस्कार करते हैं। ॥18॥

॥इति इशावास्योपनिषद्॥

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः॥


1 comment:

  1. Hari OM !!!
    Apko Seva karya ki khoob khoob badhaai ...
    Pujya Sadgurudev sab par aisi kripa karen !
    Hari OM !!!

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