पूज्य बापूजी के दिव्य दर्शन और भारतीय संस्कृति का सर्वहितकारी ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

Thursday, September 30, 2010


श्रीवामनपुराण - Shri Vaman Puran

अध्याय ८६ - 

नमस्तेऽस्तु जगन्नाथ देवदेव नमोऽस्तु ते।वासुदेव नमस्तेऽस्तु बहुरुप नमोऽस्तु ते ॥१॥
एकश्रृङ्ग नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं वृषाकपे।श्रीनिवास नमस्तेऽस्तु नमस्ते भूतभावन ॥२॥
विष्वक्सेन नमस्तुभ्यं नारायण नमोऽस्तु ते।ध्रुवध्वज नमस्तेऽस्तु सत्यध्वज नमोऽस्तु ते ॥३॥
यज्ञध्वज नमस्तुभ्यं धर्मध्वज नमोऽस्तु ते ।तालध्वज नमस्तेऽ‍स्तु नमस्ते गरुडध्वज ॥४॥
वरेण्य विष्णो वैकुण्ठ नमस्ते पुरुषोत्तम ।नमो जयन्त विजय जयानन्त पराजित ॥५॥
कृतावर्त महावर्त महादेव नमोऽस्तु ते ।अनाद्याद्यन्त मध्यान्त नमस्ते पद्मजप्रिय ॥६॥
पुरञ्जय नमस्तुभ्यं शत्रुञ्जय नमोऽस्तु ते ।शुभञ्जय नमस्तेऽस्तु नमस्तेऽस्तु धनञ्जय ॥७॥
सृष्टिगर्भ नमस्तुभ्यं शुचिश्रवः पृथुश्रवः ।नमो हिरण्यगर्भाय पद्मगर्भाय ते नमः ॥८॥

पुलस्त्यजी बोले - हे जगन्नाथ ! आपको नमस्कार है । हे देवदेव ! आपको नमस्कार है । हे वासुदेव ! आपको नमस्कार है । हे अनन्त रुप धारण करनेवाले ! आपको नमस्कार है । हे एकश्रृङ्ग ! आपको नमस्कार है । हे वृषाकपे ! आपको नमस्कार है । हे श्रीनिवास ! आपको नमस्कार है । हे भूतभावन ! आपको नमस्कार है । हे विष्वक्सेन ! आपको नमस्कार है । हे नारायण ! आपको नमस्कार है । हे ध्रुवध्वज ! आपको नमस्कार है । हे सत्यध्वज ! आपको नमस्कार है । हे यज्ञध्वज ! आपको नमस्कार है । हे धर्मध्वज ! आपको नमस्कार है । हे तालध्वज ! आपको नमस्कार है । हे गरुड़ध्वज ! आपको नमस्कार है । हे वरेण्य ! हे विष्णो ! हे वैकुण्ठ ! हे पुरुषोत्तम ! आपको नमस्कार है । हे जयन्त ! हे विजय ! हे जय ! हे अनन्त ! हे पराजित ! आपको नमस्कार है । हे कृतावर्त ! हे महावर्त ! हे महादेव ! आपको नमस्कार है । हे अनादि एवं आदि और अन्तमें विद्यमान ! हे मध्यान्त ! ( मध्य और अन्तवाले ) हे पद्मजप्रिय ! आपको प्रणाम है । हे पुरञ्जय ! आपको नमस्कार है । हे शत्रुञ्जय ! आपको प्रणाम है । हे शुभञ्जय ! आपको प्रणम है । हे धनञ्जय ! आपको प्रणाम है । सृष्टिगर्भ ! हे सृष्टि को अपने में सुरक्षित रखनेवाले ! श्रवणमात्र से ही पवित्र कर देनेवाले हे शुचिश्रवः ! आर्तजनों की पुकार को विशाल कर्णों से सुननेवाले हे पृथुश्रवः ! आपको नमस्कार है । आप हिरण्यगर्भ को नमस्कार है । आप पद्मगर्भ को नमस्कार है ॥१ - ८॥

नमः कमलनेत्राय कालनेत्राय ते नमः। कालनाभ नमस्तुभ्यं महानाभ नमो नमः ॥९॥
वृष्टिमूल महामूल मूलावास नमोऽस्तु ते । धर्मावास जलावास श्रीनिवास नमोऽस्तु ते ॥१०॥
धर्माध्यक्ष प्रजाध्यक्ष लोकाध्यक्ष नमो नमः । सेनाध्यक्ष नमस्तुभ्यं कालाध्यक्ष नमोऽस्तु ते ॥११॥
गदाधर श्रुतिधर चक्रधारिन् श्रियोधर । वनमालाधर हरे नमस्ते धरणीधर ॥१२॥
आर्चिषेण महासेन नमस्तेऽस्तु पुरुष्टुत ।बहुकल्प महाकल्प नमस्ते कल्पनामुख ॥१३॥
सर्वात्मन् सर्वग विभो विरिञ्चे श्वेत केशव ।नील रक्त महानील अनिरुद्ध नमोऽस्तु ते ॥१४॥
द्वादशात्मक कालात्मन् सामात्मन् परमात्मक ।व्योमकात्मक सुब्रह्मन् भूतात्मक नमोऽस्तु ते ॥१५॥
हरिकेश महाकेश गुडाकेश नमोऽस्तु ते । मुञ्जकेश हषीकेश सर्वनाथ नमोऽस्तु ते ॥१६॥

आप कमलनेत्र को प्रणाम है । आप कालनेत्र को प्रणाम है । हे कालनाभ ! आपको प्रणाम है । हे महानाभ ! आपको बारम्बार प्रणाम है । हे वृष्टिमूल ! हे महामूल ! हे मूलावास ! आपको प्रणाम है । हे धर्मावास ! हे जलावास ! हे श्रीनिवास ! आपको प्रणाम है । हे धर्माध्यक्ष ! हे प्रजाध्यक्ष ! हे लोकाध्यक्ष ! आपको बार - बार प्रणाम है । हे सेनाध्यक्ष ! आपको प्रणाम है । हे कालाध्यक्ष ! आपको प्रणाम है । हे गदाधर ! हे श्रुतिधर ! हे चक्रधर ! हे श्रीधर ! वनमाला और पृथ्वी को धारण करनेवाले हे हरे ! आपको प्रणाम है । हे आर्चिषेण ! हे महासेन ! हे पुरुसे स्तुत ! आपको प्रणाम है । हे बहुकल्प ! हे महाकल्प ! हे कल्पनामुख ! आपको प्रणाम है । हे सर्वात्मन् ! हे सर्वग ! हे विभो ! हे विरिञ्चिन् ! हे श्वेत ! हे केशव ! हे नील ! हे रक्त ! हे महानील ! हे अनिरुद्ध ! आपको नमस्कार है । हे द्वादशात्मक ! हे कालात्मन् ! हे सामात्मन् ! हे परमात्मक ! हे आकाशात्मक ! हे सुब्रह्मन् ! हे भूतात्मक ! आपको प्रणाम है । हे हरिकेश ! हे महाकेश ! हे गुडाकेश ! आपको प्रणाम है । हे मुञ्जकेश ! हे हषीकेश ! हे सर्वनाथ ! आपको प्रणाम है ॥९ - १६॥

सूक्ष्म स्थूल महास्थूल महासूक्ष्म शुभङ्कर।श्वेतपीताम्बरधर नीलवास नमोऽस्तु ते ॥१७॥
कुशेशय नमस्तेऽस्तु पद्मेशय जलेशय।गोविन्द प्रीतिकर्ता च हंस पीताम्बरप्रिय ॥१८॥
अधोक्षज नमस्तुभ्यं सीरध्वज जनार्दन।वामनाय नमस्तेऽस्तु नमस्ते मधुसूदन ॥१९॥
सहस्त्रशीर्षाय नमो ब्रह्मशीर्षाय ते नमः। नमः सहस्त्रनेत्राय सोमसूर्यानलेक्षण ॥२०॥
नमश्चाथर्वशिरसे महाशीर्षाय ते नमः ।नमस्ते धर्मनेत्राय महानेत्राय ते नमः ॥२१॥
नमः सहस्त्रपादाय सहस्त्रभुजमन्यवे ।नमो यज्ञवराहाय महारुपाय ते नमः ॥२२॥
नमस्ते विश्वदेवाय विश्वात्मन् विश्वसम्भव। विश्वरुप नमस्तेऽस्तु त्वत्तो विश्वमभूदिदम् ॥२३॥
न्यग्रोधस्त्वं महाशाखस्त्वं मूलकुसुमार्चितः।स्कन्धपत्राङ्कुरलतापल्लवाय नमोऽस्तु ते ॥२४॥

हे सूक्ष्म ! हे स्थूल ! हे महास्थूल ! हे महासूक्ष्म ! हे शुभङ्कर ! हे उज्ज्वल - पीले वस्त्र को धारण करनेवाले ! हे नीलवास ! आपको प्रणाम है । हे कुश पर शयन करनेवाले ! हे पद्म पर शयन करनेवाले ! हे जल में शयन करनेवाले ! हे गोविन्द ! हे प्रीतिकर्तः ! हे हंस ! हे पीताम्बरप्रिय ! आपको नमस्कार है । हे अधोक्षज ! हे सीरध्वज ! हे जनार्दन ! आपको प्रणाम है ! हे वामन ! आपको प्रणाम है । हे मधुसूदन ! आपको प्रणाम है । आप सहस्त्र सिरवाले को नमस्कार है । आप ब्रह्मशीर्ष को प्रणाम है । आप सहस्त्रनेत्र और चन्द्र, सूर्य तथा अग्निरुपी आँखवाले को प्रणाम है । अथर्वशिरा को नमस्कार है । महाशीर्ष को प्रणाम है । धर्मनेत्र को प्रणाम है । महानेत्र को प्रणाम है । सहस्त्रपाद को नमस्कार है । सहस्त्रों भुजाओं एवं सहस्त्रों यज्ञोंवाले को नमस्कार है । यज्ञवराह को नमस्कार है ! आप महारुप को नमस्कार है । विश्वदेव को प्रणाम है । हे विश्वात्मन् ! हे विश्वसम्भव ! हे विश्वरुप ! आपको नमस्कार है । आपसे यह विश्व उत्पन्न हुआ है । आप न्यग्रोध और महाशाख हैं आप ही मूलकुसुमार्चित हैं । स्कन्ध, पत्र, अङ्कुर, लता एवं पल्लवस्वरुप आपको नमस्कार है ॥१७ - २४॥

मूलं ते ब्राह्मणा ब्रह्मन् स्कन्धस्ते क्षत्रियाः प्रभो।वैश्याः शाखा दलं शूद्रा वनस्पते नमोऽस्तु ते ॥२५॥
ब्राह्मणाः साग्नयो वक्त्राः दोर्दण्डाः सायुधा नृपाः।पार्श्वाद् विशश्चोरुयुगाज्जाताः शूद्राश्च पादतः ॥२६॥
नेत्राद् भानुरभूत् तुभ्यं पद्भ्यां भूः श्रोत्रयोर्दिशः।नाभ्या ह्यभूदन्तरिक्षं शशाड्को मनसस्तव ॥२७॥
प्राणाद् वायुः समभवत् कामाद् ब्रह्मा पितामहः।क्रोधात् त्रिनयनो रुद्रः शीर्ष्णोः द्यौः समवर्तत ॥२८॥
इन्द्राग्नी वदनात् तुभ्यं पशवो मलसम्भवाः।ओषध्यो रोमसम्भूता विराजस्त्वं नमोऽस्तु ते ॥२९॥
पुष्पहास नमस्तेऽस्तु महाहास नमोऽस्तु ते।ॐ कारस्त्वंवषट्कारो वौषट त्वं च स्वधा सुधा ॥३०॥
स्वाहाकार नमस्तुभ्यं हन्तकार नमोऽस्तु ते।सर्वाकार निराकार वेदाकार नमोऽस्तु ते ॥३१॥
त्वं हि वेदमयो देवः सर्वदेवमयस्तथा।सर्वतीर्थमयश्चैव सर्वयज्ञमयस्तथा ॥३२॥

ब्रह्मन् ! ब्राह्मण आपके मूल हैं । प्रभो ! क्षत्रिय आपके स्कन्ध, वैश्य शाखा एवं शूद्र पत्ते हैं । वनस्पते ! आपको नमस्कार है । अग्निसहित ब्राह्मण आपके मुख एवं शस्त्रसहित क्षत्रिय आपकी भुजाएँ हैं । वेश्य आपके दोनों जाँघों के पार्श्वभाग से तथा शूद्र आपके चरणों से उत्पन्न हुए हैं । आपके नेत्र से सूर्य उत्पन्न हुए हैं । आपके चरणों से पृथ्वी, कानों से दिशाएँ, नाभि से अन्तरिक्ष तथा मन से चन्द्रमा उत्पन्न हुए हैं । आपके प्राण से वायु काम से पितामह ब्रह्मा, क्रोध से त्रिनेत्र रुद्र और सिर से द्युलोक आविर्भूत हुए हैं । आपके मुख से इन्द्र और अग्नि, मल से पशु तथा रोम से ओषधियाँ उत्पन्न हुई । आप विराज हैं । आपको नमस्कार है । हे पुष्पहास ! आपको प्रणाम है । हे महाहास ! आपको प्रणाम है । आप ओङ्कार, वषट्कार और वौषट् हैं । आप स्वधा और सुधा हैं । हे स्वाहाकार ! आपको प्रणाम है । हे हन्तकार ! आपको प्रणाम है । हे सर्वाकार ! हे निराकार ! हे वेदाकार ! आपको प्रणाम है । आप वेदमय देव तथा सर्वदेवमय हैं । आप सर्वतीर्थमय और सर्वयज्ञमय हैं ॥२५ - ३२॥

नमस्ते यज्ञपुरुष यज्ञभागभुजे नमः।नमः सहस्त्रधाराय शतधाराय ते नमः ॥३३॥
भूर्भुवः स्वः स्वरुपाय गोदायामृतदायिने।सुवर्णब्रह्मदात्रे च सर्वदात्रे च ते नमः ॥३४॥
ब्रह्मेशाय नमस्तुभ्यं ब्रह्मादे ब्रह्मरुपधृक्।परब्रह्म नमस्तेऽस्तु शब्दब्रह्म नमोऽस्तु ते ॥३५॥
विद्यास्त्वं वेद्यरुपस्त्वं वेदनीयस्त्वमेव च।बुद्धिस्त्वमपि बोध्यश्च बोधस्त्वं च नमोऽस्तु ते ॥३६॥
होता होमश्च हव्यं च हूयमानश्च हव्यवाद्।पाता पोता च पूतश्च पावनीयश्च ॐ नमः ॥३७॥
हन्ता च हन्यमानश्च ह्नियमाणस्त्वमेव च।हर्त्ता नेता च नीतिश्च पूज्यो‍ऽग्र्यो विश्वधार्यसि ॥३८॥
स्रुकस्रुवौ परधामासि कपालोलूखलोऽरणिः।यज्ञपात्रारणेयस्त्वमेकधा बहुधा त्रिधा ॥३९॥
यज्ञस्त्वं यजमानस्त्वमीड्यस्त्वमासि याजकः।ज्ञाता ज्ञेयस्तथा ज्ञानं ध्येयो ध्याताऽसि चेश्वर ॥४०॥
ध्यानयोगश्च योगी च गतिर्मोक्षो धृतिः सुखम्।योगाङ्गानि त्वमीशानः सर्वगस्त्वं नमोऽस्तु ते॥४१॥

यज्ञपुरुष ! आपको प्रणाम है । हे यज्ञभागके भोक्तः ! आपको प्रणाम है । सहस्त्रधार और शतधार को प्रणाम है । भूर्भुवः स्वः स्वरुप, गोदाता, अमृतदाता, सुवर्ण और ब्रह्म ( संसारके निमित्त और उपादान कारण आदि ) - के भी जन्मदाता तथा सर्वदाता आपको प्रणाम है । आप ब्रह्मेश को नमस्कार है । हे ब्रह्मादि ! हे ब्रह्मरुपधारिन् ! हे परमब्रह्म ! आपको प्रणाम है । हे शब्दब्रह्म ! आपको प्रणाम है । आप ही विद्या, आप ही वेद्यरुप तथा आप ही जानने योग्य हैं । आप ही बुद्धि, बोध्य और बोधरुप हैं । आपको प्रणाम है । आप होता, होम, हव्य, हूयमान द्रव्य तथा हव्यवाट् , पाता, पोता, पूत तथा पावनीय ओङ्कार हैं । आपको नमस्कार है । आप हन्ता, हन्यमान, हियमाण, हर्ता, नेता, नीति, पूज्य, श्रेष्ठ तथा संसार को धारण करनेवाले हैं । आप स्रुक्, स्रुव, परधाम, कपाली, उलूखल, अरणि, यज्ञपात्र, आरणेय, एकधा, त्रिधा और बहुधा हैं । आप यज्ञ हैं और आप यजमान हैं । आप स्तुत्य और याजक हैं । आप ज्ञाता, ज्ञेय, ज्ञान, ध्येय, ध्याता तथा ईश्वर हैं । आप ध्यानयोग, योगी, गति, मोक्ष, धृति, सुख, योगाङ्ग, ईशान एवं सर्वग हैं । आपको नमस्कार है ॥३३ - ४१॥

ब्रह्मा होता तथोद्गाता साम यूपोऽथ दक्षिणा।दीक्षा त्वं त्वं पुरोडाशस्त्वं पशुः पशुवाह्यसि ॥४२॥
गुह्यो धाता च परमः शिवो नारायणस्तथा।महाजनो निरयनः सहस्त्रार्केन्दुरुपवान् ॥४३॥
द्वादशारोऽथ षण्णाभिस्त्रिव्यूहो द्वियुगस्तथा।कालचक्रो भवानीशो नमस्ते पुरुषोत्तमः ॥४४॥
पराक्रमो विक्रमस्त्वं हयग्रीवो हरीश्वरः।नरेश्वरोऽथ ब्रह्मेशः सूर्येशस्त्वं नमोऽस्तु ते ॥४५॥
अश्ववक्त्रो महामेधाः शम्भुः शक्रः प्रभञ्जनः।मित्रावरुणमूर्तिस्त्वमूर्तिरनघः परः ॥४६॥
प्राग्वंशकायो भूतादिर्महाभूतोऽच्युतो द्विजः।त्वमूर्ध्वकर्त्ता ऊर्ध्वश्च ऊर्ध्ज्वरेता नमोऽस्तु ते ॥४७॥
महापातकहा त्वं च उपपातकहा तथा।अनीशः सर्वपापेभ्यस्त्वामहं शरणं गतः ॥४८॥
इत्येतत् परमं स्तोत्रं सर्वपापप्रमोचनम्।महेश्वरेण कथितं वाराणस्यां पुरा मुने ॥४९॥
केशवस्याग्रतो गत्वा स्त्रात्वा तीर्थे सितोदके।उपशान्तस्तथा जातो रुद्रः पापवशात् ततः ॥५०॥
एतत् पवित्रं त्रिपुरघ्रभाषितं पठन् नरो विष्णुपरो महर्षे।विमुक्तपापो ह्युपशान्तमूर्तिः सम्पूज्यते देववरैः प्रसिद्धैः ॥५१॥

आप ब्रह्मा, होता, उद्गाता, साम, यूप, दक्षिणा तथा दीक्षा हैं । आप पुरोडाश एवं आप ही पशु तथा पशुवाही हैं । आप गुह्य, धाता, परम, शिव, नारायण, महाजन, निराश्रय तथा हजारों सूर्य और चन्द्रमा के समान रुपवान् हैं । आप बारह अरों, छः नाभियों, तीन व्यूहों एवं दो युगोंवाले कालचक्र तथा ईश एवं पुरुषोत्तम हैं । आपको नमस्कार है । आप पराक्रम, विक्रम, हयग्रीव, हरीश्वर, नरेश्वर, ब्रह्मेश और सूर्येष है । आपको नमस्कार है । आप अश्ववक्त्र, महामेधा, शम्भु, शक्र, प्रभञ्जन, मित्रावरुण की मूर्ति, अमूर्ति, निष्पाप और श्रेष्ठ हैं । आप प्राग्वंशकाय ( मूलपुरुष ), भूतादि, महाभूत, अच्युत और द्विज हैं । आप ऊर्ध्वकर्त्ता, ऊर्ध्व और ऊर्ध्वरेता हैं । आपको नमस्कार है । आप महापातकों का विनाश करनेवाले तथा उपपातकों के नाशक हैं । आप सभी पापोंसे निर्लिप्त हैं । मैं आपकी शरणमें आया हूँ । मुने ! प्राचीन कालमें महेश्वरने सम्पूर्ण पापोंसे मुक्ति देनेवाले इस श्रेष्ठ स्तोत्र को वाराणसी में कहा था । तीर्थके स्वच्छ जलमें स्त्रान कर केशवका दर्शन करनेसे रुद्र पापके प्रभावसे मुक्त एवं शान्त हुए थे । महर्षे ! त्रिपुरारिके द्वारा कहे गये इस स्तोत्रका पाठ करनेसे विष्णुभक्त मनुष्य पापसे मुक्त और सौम्य होकर प्रसिद्ध तथा श्रेष्ठ देवताओंसे पूजित होता है ॥४२ - ५१॥

॥ इस प्रकार श्रीवामनपुराणमें छियासीवाँ अध्याय समाप्त हुआ ॥

Saturday, September 25, 2010



रुद्राष्टकम् - Rudrashtkam

(तुलसीदास जी) - Tulsidasji

नमामीशमीशान निर्वाणरूपं,
विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं,
चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं॥१॥

ईशान [स्वामी], ईश्वर, मोक्षस्वरुप, सर्वोपरि, सर्वव्यापक, ब्रह्म और वेदस्वरुप श्रीशिव को नमस्कार है, आत्मस्वरुप में स्थित, गुणातीत, भेदरहित, इच्छारहित, चेतनरूपी आकाश के समान और आकाश में रहने वाले आपका मैं भजन करता हूँ॥1॥

निराकारमोंकारमूलं तुरीयं,
गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशं।
करालं महाकाल कालं कृपालं,
गुणागार संसारपारं नतोऽहं॥२॥

निराकार, ओंकार के मूल, तुरीय [जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति से परे], वाणी, ज्ञान और इन्द्रियों से परे, कैलाशपति, विकराल, महाकाल के भी काल, दयालु, गुणों के धाम, संसार से परे आपको सविनय नमस्कार है॥2॥

तुषाराद्रि संकाश गौरं गम्भीरं,
मनोभूत कोटि प्रभा श्रीशरीरं।
स्फुरंमौलि कल्लोलिनी चारू गंगा,
लसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा॥३॥

हिमालय के समान गौरवर्ण, गंभीर, करोङों कामदेव के समान प्रकाशवान और सुन्दर शरीर वाले, जिनके सिर पर कलकल रूपी मधुर स्वर करने वाली सुन्दर गंगाजी शोभायमान हैं, जिनके मस्तक पर बालचन्द्र और गले में सर्प सुशोभित हैं॥3॥

चलत्कुंडलं भ्रू सुनेत्रं विशालं,
प्रसन्नाननं नीलकंठं दयालं।
मृगाधीश चर्माम्बरं मुंडमालं,
प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि॥४॥

चलायमान कुंडल धारण करने वाले, सुन्दर और विशाल त्रिनेत्र वाले, प्रसन्न मुख, नीले गले वाले, दयालु, सिंहचर्म को वस्त्र जैसे धारण करने वाले, मुंडमाला पहनने वाले, सबके प्रिय और सबके स्वामी श्रीशंकर जी को मैं भजता हूँ॥4॥

प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं,
अखंडं अजं भानुकोटिप्रकाशं।
त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं,
भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं॥५॥

प्रचंड[रौद्र रूप वाले], श्रेष्ठ, तेजस्वी, परमेश्वर, अखंड, अजन्मे, करोङों सूर्य के समान प्रकाशवान, तीनों प्रकार के दुखों [दैहिक, दैविक, भौतिक] का नाश करने वाले, हाथ में त्रिशूल धारण करने वाले, श्री पार्वती जी के पति और प्रेम से प्राप्त होने वाले श्री शिव को मैं भजता हूँ॥5॥

कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी,
सदा सज्जनानंददाता पुरारि।
चिदानन्द संदोह मोहापहारी,
प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारि॥६॥

कलाओं से परे, कल्याण स्वरुप, कल्प का प्रलय करने वाले, सत्पुरुषों को सदा हर्षित करने वाले, त्रिपुर के शत्रु, संघनित [ठोस] चेतन और आनंद स्वरुप, मोह को दूर करने वाले, [मन को मथने वाले] कामदेव के शत्रु, हे प्रभु, प्रसन्न होइए, प्रसन्न होइए॥6॥

न यावद् उमानाथ पादारविन्दं,
भजंतीह लोके परे वा नराणां।
न तावत्सुखं शांति संतापनाशं,
प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासं॥७॥

जब तक श्री उमापति शिव के चरण कमलों को लोग नहीं भजते, तब तक उन्हें न इस संसार में और न परलोक में सुख- शांति प्राप्त होती है और न उनकी परेशानियों का नाश होता है। अतः सबके ह्रदय में निवास करने वाले हे प्रभु! प्रसन्न होइए॥7॥

न जानामि योगं जपं नैव पूजां,
नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यं।
जरा जन्म दुखौघ तातप्यमानं,
प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो॥८॥

मैं न योग जानता हूँ, न ही जप और पूजा, हे शम्भु! मैं तो सदा-सर्वदा आपको ही नमन करता हूँ। हे मेरे प्रभु!, हे मेरे ईश्वर!, हे शम्भु! वृद्धावस्था, जन्म [और मृत्यु] आदि दुखों से घिरे मुझ दुखी की रक्षा कीजिये ॥8॥

Sunday, September 12, 2010



अष्टावक्र गीता - Ashtavakr Gita

पंचदश अध्याय - Panchdash Adhyay

अष्टावक्र उवाच -
यथातथोपदेशेन कृतार्थः सत्त्वबुद्धिमान्।
आजीवमपि जिज्ञासुः परस्तत्र विमुह्यति॥१॥

श्रीअष्टावक्र कहते हैं - सात्विक बुद्धि से युक्त मनुष्य साधारण प्रकार के उपदेश से भी कृतकृत्य(मुक्त) हो जाता है परन्तु ऐसा न होने पर आजीवन जिज्ञासु होने पर भी परब्रह्म का यथार्थ ज्ञान नहीं होता है॥1॥

मोक्षो विषयवैरस्यं बन्धो वैषयिको रसः।
एतावदेव विज्ञानं यथेच्छसि तथा कुरु॥२॥

विषयों से उदासीन होना मोक्ष है और विषयों में रस लेना बंधन है, ऐसा जानकर तुम्हारी जैसी इच्छा हो वैसा ही करो ॥2॥


वाग्मिप्राज्ञामहोद्योगं जनं मूकजडालसं।
करोति तत्त्वबोधोऽयमतस्त्यक्तो बुभुक्षभिः॥३॥

वाणी, बुद्धि और कर्मों से महान कार्य करने वाले मनुष्यों को तत्त्व-ज्ञान शांत, स्तब्ध और कर्म न करने वाला बना देता है, अतः सुख की इच्छा रखने वाले इसका त्याग कर देते हैं॥3॥


न त्वं देहो न ते देहो भोक्ता कर्ता न वा भवान्।
चिद्रूपोऽसि सदा साक्षी निरपेक्षः सुखं चर॥४॥

न तुम शरीर हो और न यह शरीर तुम्हारा है, न ही तुम भोगने वाले अथवा करने वाले हो, तुम चैतन्य रूप हो, शाश्वत साक्षी हो, इच्छा रहित हो, अतः सुखपूर्वक रहो॥4॥


रागद्वेषौ मनोधर्मौ न मनस्ते कदाचन।
निर्विकल्पोऽसि बोधात्मा निर्विकारः सुखं चर॥५॥

राग(प्रियता) और द्वेष(अप्रियता) मन के धर्म हैं और तुम किसी भी प्रकार से मन नहीं हो, तुम कामनारहित हो, ज्ञान स्वरुप हो, विकार रहित हो, अतः सुखपूर्वक रहो॥5॥


सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि।
विज्ञाय निरहंकारो निर्ममस्त्वं सुखी भव॥६॥

समस्त प्राणियों को स्वयं में और स्वयं को सभी प्राणियों में स्थित जान कर अहंकार और आसक्ति से रहित होकर तुम सुखी हो जाओ॥6॥


विश्वं स्फुरति यत्रेदं तरंगा इव सागरे।
तत्त्वमेव न सन्देहश्चिन्मूर्ते विज्वरो भव॥७॥

इस विश्व की उत्पत्ति तुमसे उसी प्रकार होती है जैसे कि समुद्र से लहरों की, इसमें संदेह नहीं है। तुम चैतन्य स्वरुप हो, अतः चिंता रहित हो जाओ॥7॥


श्रद्धस्व तात श्रद्धस्व नात्र मोऽहं कुरुष्व भोः।
ज्ञानस्वरूपो भगवानात्मा त्वं प्रकृतेः परः॥८॥

हे प्रिय! इस अनुभव पर निष्ठा रखो, इस पर श्रद्धा रखो, इस अनुभव की सत्यता के सम्बन्ध में मोहित मत हो, तुम ज्ञान स्वरुप हो, तुम प्रकृति से परे और आत्म स्वरुप भगवान हो॥8॥


गुणैः संवेष्टितो देहस्तिष्ठत्यायाति याति च।
आत्मा न गंता नागंता किमेनमनुशोचसि॥९॥

गुणों से निर्मित यह शरीर स्थिति, जन्म और मरण को प्राप्त होता है, आत्मा न आती है और न ही जाती है, अतः तुम क्यों शोक करते हो॥9॥


देहस्तिष्ठतु कल्पान्तं गच्छत्वद्यैव वा पुनः।
क्व वृद्धिः क्व च वा हानिस्तव चिन्मात्ररूपिणः॥१०॥

यह शरीर सृष्टि के अंत तक रहे अथवा आज ही नाश को प्राप्त हो जाये, तुम तो चैतन्य स्वरुप हो, इससे तुम्हारी क्या हानि या लाभ है॥10॥


त्वय्यनंतमहांभोधौ विश्ववीचिः स्वभावतः।
उदेतु वास्तमायातु न ते वृद्धिर्न वा क्षतिः॥११॥

अनंत महासमुद्र रूप तुम में लहर रूप यह विश्व स्वभाव से ही उदय और अस्त को प्राप्त होता है, इसमें तुम्हारी क्या वृद्धि या क्षति है॥11॥


तात चिन्मात्ररूपोऽसि न ते भिन्नमिदं जगत्।
अतः कस्य कथं कुत्र हेयोपादेयकल्पना॥१२॥

हे प्रिय, तुम केवल चैतन्य रूप हो और यह विश्व तुमसे अलग नहीं है, अतः किसी की किसी से श्रेष्ठता या निम्नता की कल्पना किस प्रकार की जा सकती है॥12॥


एकस्मिन्नव्यये शान्ते चिदाकाशेऽमले त्वयि।
कुतो जन्म कुतो कर्म कुतोऽहंकार एव च॥१३॥

इस अव्यय, शांत, चैतन्य, निर्मल आकाश में तुम अकेले ही हो, अतः तुममें जन्म, कर्म और अहंकार की कल्पना किस प्रकार की जा सकती है॥13॥


यत्त्वं पश्यसि तत्रैकस्त्वमेव प्रतिभाससे।
किं पृथक् भासते स्वर्णात् कटकांगदनूपुरम्॥१४॥

तुम एक होते हुए भी अनेक रूप में प्रतिबिंबित होकर दिखाई देते हो। क्या स्वर्ण कंगन, बाज़ूबन्द और पायल से अलग दिखाई देता है॥14॥


अयं सोऽहमयं नाहं विभागमिति संत्यज।
सर्वमात्मेति निश्चित्य निःसङ्कल्पः सुखी भव॥१५॥

यह मैं हूँ और यह मैं नहीं हूँ, इस प्रकार के भेद को त्याग दो। सब कुछ आत्मस्वरूप तुम ही हो, ऐसा निश्चय करके और कोई संकल्प न करते हुए सुखी हो जाओ॥15॥


तवैवाज्ञानतो विश्वं त्वमेकः परमार्थतः।
त्वत्तोऽन्यो नास्ति संसारी नासंसारी च कश्चन॥१६॥

अज्ञानवश तुम ही यह विश्व हो पर ज्ञान दृष्टि से देखने पर केवल एक तुम ही हो, तुमसे अलग कोई दूसरा संसारी या असंसारी किसी भी प्रकार से नहीं है॥16॥


भ्रान्तिमात्रमिदं विश्वं न किंचिदिति निश्चयी।
निर्वासनः स्फूर्तिमात्रो न किंचिदिव शाम्यति॥१७॥

यह विश्व केवल भ्रम(स्वप्न की तरह असत्य) है और कुछ भी नहीं, ऐसा निश्चय करो। इच्छा और चेष्टा रहित हुए बिना कोई भी शांति को प्राप्त नहीं होता है॥17॥

एक एव भवांभोधावासीदस्ति भविष्यति।
न ते बन्धोऽस्ति मोक्षो वा कृत्यकृत्यः सुखं चर॥१८॥

एक ही भवसागर(सत्य) था, है और रहेगा। तुममें न मोक्ष है और न बंधन, आप्त-काम होकर सुख से विचरण करो॥18॥

मा सङ्कल्पविकल्पाभ्यां चित्तं क्षोभय चिन्मय।
उपशाम्य सुखं तिष्ठ स्वात्मन्यानन्दविग्रहे॥१९॥

हे चैतन्यरूप! भाँति-भाँति के संकल्पों और विकल्पों से अपने चित्त को अशांत मत करो, शांत होकर अपने आनंद रूप में सुख से स्थित हो जाओ॥19॥

त्यजैव ध्यानं सर्वत्र मा किंचिद् हृदि धारय।
आत्मा त्वं मुक्त एवासि किं विमृश्य करिष्यसि॥२०॥

सभी स्थानों से अपने ध्यान को हटा लो और अपने हृदय में कोई विचार न करो। तुम आत्मरूप हो और
मुक्त ही हो, इसमें विचार करने की क्या आवश्यकता है॥20॥