पूज्य बापूजी के दिव्य दर्शन और भारतीय संस्कृति का सर्वहितकारी ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

Tuesday, December 14, 2010


अवधूत गीता - Avdhoot Geeta

अथ चतुर्थोऽध्यायः - 4th Adhyay

नावाहनं नैव विसर्जनं वा
पुष्पाणि पत्राणि कथं भवन्ति
ध्यानानि मन्त्राणि कथं भवन्ति
समासमं चैव शिवार्चनं च ||१||

श्री दत्त बोले- न आवाहन है, न विसर्जन है | पुष्प और पत्र कैसे हैं, ध्यान और विषम कैसे हैं, सम और विषम कैसे हैं, शिव का पूजन कैसे है ||१||

न केवलं बन्धविबन्धमुक्तो
न केवलं शुद्धविशुद्धमुक्तः
न केवलं योगवियोगमुक्तः
स वै विमुक्तो गगनोपमोऽहम् ||२||

वह केवल बंधन और मोक्ष से ही अलग नहीं है, न केवल शुद्ध-अशुद्ध से ही मुक्त है, न केवल संयोग-वियोग से ही मुक्त है | वह निश्चय सबसे छूटा हुआ है | मै आकाश के समान हूँ ||२||

सञ्जायते सर्वमिदं हि तथ्यं
सञ्जायते सर्वमिदं वितथ्यम्
एवं विकल्पो मम नैव जातः
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||३||

जन्म लेता है, वह सब सत्य है | जन्म लेता है, वह सब झूठ है | इस प्रकार भेद मेरे नहीं है, मैं मोक्ष स्वरुप हूँ और निरोग हूँ||३||

न साञ्जनं चैव निरञ्जनं वा
न चान्तरं वापि निरन्तरं वा
अन्तर्विभन्नं न हि मे विभाति
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||४||
न तो वह माया से युक्त है, न माया से अलग है, न उसमे भेद है, न अभेद है | भीतर अलग मुझको नहीं दीखता है | मैं मोक्ष स्वरुप हूँ और निरोग हूँ ||४||

अबोधबोधो मम नैव जातो
बोधस्वरूपं मम नैव जातम्
निर्बोधबोधं च कथं वदामि
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||५||

अज्ञान और ज्ञान मेरे बीच में पैदा नहीं हुआ | जिसमे ज्ञान नहीं है, ऐसे ज्ञान को कैसे कहूँ | मैं मोक्ष स्वरुप और निरोग हूँ ||५||

न धर्मयुक्तो न च पापयुक्तो
न बन्धयुक्तो न च मोक्षयुक्तः
युक्तं त्वयुक्तं न च मे विभाति
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||६||
न तो मेरे धर्म है, न अधर्म है, न बंधन है, न मोक्ष है, योग्य और अयोग्य मेरे बीच में प्रकाश नहीं करते हैं | मैं मोक्ष स्वरुप और निरोग हूँ ||६||

परापरं वा न च मे कदाचित्
मध्यस्थभावो हि न चारिमित्रम्
हिताहितं चापि कथं वदामि
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||७||

पहला और पिछला मेरे कभी नहीं है, न बीच का भाव है, न शत्रु और मित्र है | हित और अहित कैसे कहूँ | मैं मोक्ष रूप हूँ और निरोग हूँ ||७||

नोपासको नैवमुपास्यरूपं
न चोपदेशो न च मे क्रिया च
संवित्स्वरूपं च कथं वदामि
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||८||
न तो उपासना करने वाला है, न उपासना के योग्य रूप है, न उपदेश है, न क्रिया है | ज्ञानस्वरूप का कैसे वर्णन करूँ | मैं मोक्ष रूप हूँ और निरोग हूँ||८||

नो व्यापकं व्याप्यमिहास्ति किञ्चित्
न चालयं वापि निरालयं वा
अशून्यशून्यं च कथं वदामि
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||९||
न तो यहाँ कुछ व्यापक है, न व्यापक होने क योग्य कुछ है, न उपदेश है, न क्रिया है, फिर उस ज्ञान स्वरुप को कैसे कहूँ | मैं मोक्ष स्वरुप हूँ और निरोग हूँ ||९||

न ग्राहको ग्राह्यकमेव किञ्चित्
न कारणं वा मम नैव कार्यम्
अचिन्त्यचिन्त्यं च कथं वदामि
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||१०||

न तो कोई उसको पकड़नेवाला है, न वह पकड़ने योग्य है, न मेरे कुछ कारण है, न कार्य है | वह इश्वर विचार करने में नहीं आ सकता है, उसका रूप कैसे कहूँ | मैं मोक्ष रूप हूँ और निरोग हूँ ||१०||

न भेदकं वापि न चैव भेद्यं
न वेदकं वा मम नैव वेद्यम्
गतागतं तात कथं वदामि
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||११||
न भेद करने वाला है, न भेद के योग्य है, न जानने वाला है, न जानने में आ सकता है, न जाता है, न आता है | हे तात! उसका कैसे वर्णन करूँ | मैं मोक्ष स्वरुप हूँ और निरोग हूँ ||११|

न चास्ति देहो न च मे विदेहो
बुद्दिर्मनो मे न हि चेन्द्रियाणि
रागो विरागश्च कथं वदामि
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||१२||
न मेरे देह है, न विदेह है, न बुद्धि और मन है, न इन्द्रियां है |
राग और विराग का कैसे वर्णन करूँ | मैं मोक्ष स्वरुप हूँ और निरोग हूँ ||१२||

उल्लेखमात्रं न हि भिन्नमुच्चै-
रुल्लेखमात्रं न तिरोहितं वै
समासमं मित्र कथं वदामि
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||१३||
लिखने मात्र को भी वह किसी से अलग नहीं है, लिखने मात्र को भी वह छिपा नहीं है | हे मित्र! सम-विषम कैसे कहूँ | मैं मोक्ष स्वरुप हूँ और निरोग हूँ ||१३||

जितेन्द्रियोऽहं त्वजितेन्द्रियो वा
न संयमो मे नियमो न जातः
जयाजयौ मित्र कथं वदामि
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||१४||
मैं जितेन्द्रिय हूँ और अजितेन्द्रिय हूँ, न मेरे संयम है, न नियम है |
हे मित्र! जीतना और हारना मेरे नहीं है | उसका वर्णन कैसे करूँ, मैं मोक्ष स्वरुप हूँ और निरोग हूँ ||१४||

अमूर्तमूर्तिर्न च मे कदाचि-
दाद्यन्तमध्यं न च मे कदाचित्
बलाबलं मित्र कथं वदामि
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||१५||

झूठी मूर्ति मेरे कभी नहीं है, आदि-अंत-मध्य ये मेरे कभी नहीं है |
हे मित्र! बल और अबल को कैसे कहूँ | मैं मोक्ष स्वरुप हूँ और निरोग हूँ||१५||

मृतामृतं वापि विषाविषं च
सञ्जायते तात न मे कदाचित्
अशुद्धशुद्धं च कथं वदामि
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||१६||
हे तात! मरना और न मरना, विष और अविष, ये मेरे कभी पैदा नहीं होते है, अशुद्ध और शुद्ध नहीं है, इसका वर्णन कैसे करूँ | मैं मोक्ष स्वरुप हूँ और निरोग हूँ ||१६||

स्वप्नः प्रबोधो न च योगमुद्रा
नक्तं दिवा वापि न मे कदाचित्
अतुर्यतुर्यं च कथं वदामि
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||१७||
सोना और जागना, ये मेरे नहीं है, न योग मुद्रा है, रात और दिन मेरे कभी नहीं है, सुषुप्ति और समाधि का वर्णन कैसे कहूँ | मैं मोक्ष रुप हूँ और निरोग हूँ ||१७||

संविद्धि मां सर्वविसर्वमुक्तं
माया विमाया न च मे कदाचित्
सन्ध्यादिकं कर्म कथं वदामि
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||१८||
सब और अधूरा ये मुझमें नहीं है, माया और अमाया मुझमें कभी नहीं है | संध्या से लेकर काल नहीं है, कर्म नहीं है, फिर कैसे कहूँ | मैं मोक्ष स्वरुप हूँ और निरोग हूँ ||१८||

संविद्धि मां सर्वसमाधियुक्तं
संविद्धि मां लक्ष्यविलक्ष्यमुक्तम्
योगं वियोगं च कथं वदामि
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||१९||
सब समाधियों से युक्त मुझको जान, जो देख लिया जाये और जो देखने में न आवे, इनसे अलग मुझको जान | योग और वियोग कैसे कहूँ | मैं मोक्ष स्वरुप हूँ और निरोग हूँ ||१९||

मूर्खोऽपि नाहं न च पण्डितोऽहं
मौनं विमौनं न च मे कदाचित्
तर्कं वितर्कं च कथं वदामि
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||२०||
न मैं मूर्ख हूँ, न पंडित हूँ | मौन और विशेष मौन, ये मेरे कभी नहीं है |
तर्क और कुतर्क भी नहीं है, फिर उसका कैसे वर्णन करूँ | मैं मोक्ष स्वरुप हूँ और निरोग हूँ ||२०||

पिता च माता च कुलं न जाति-
र्जन्मादि मृत्युर्न च मे कदाचित्
स्नेहं विमोहं च कथं वदामि
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||२१||
न मेरे माता है, न पिता है, कुल है, न जाति है | मेरे कभी जन्म-मृत्यु नहीं है, स्नेह और मोह नहीं है, फिर कैसे वर्णन करूँ | मैं मोक्ष स्वरुप हूँ और निरोग हूँ ||२१||

अस्तं गतो नैव सदोदितोऽहं
तेजोवितेजो न च मे कदाचित्
सन्ध्यादिकं कर्म कथं वदामि
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||२२||
मेरा अस्त नहीं है, सदा उदय है | तेज और अंधकार, ये मुझमें प्रकाश करते हैं | सांय काल - प्रातःकाल आदि मेरे नहीं है | कर्म भी नहीं है, फिर कैसे वर्णन करूँ | मैं मोक्ष स्वरुप हूँ और निरोग हूँ ||२२||

असंशयं विद्धि निराकुलं मां
असंशयं विद्धि निरन्तरं माम्
असंशयं विद्धि निरञ्जनं मां
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||२३||
निश्चय मुझको व्याकुलता से रहित जान, निश्चय मुझको व्यापक जान, निश्चय मुझको माया रहित जान | मैं मोक्ष स्वरुप हूँ और निरोग हूँ ||२३||

ध्यानानि सर्वाणि परित्यजन्ति
शुभाशुभं कर्म परित्यजन्ति
त्यागामृतं तात पिबन्ति धीराः
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||२४||
धीर मनुष्य सब ध्यानों को छोड़ देते हैं, शुभ-अशुभ कर्मों को छोड़ देते हैं | हे तात! वे त्याग रुपी अमृत को पीते हैं | मैं मोक्ष स्वरुप हूँ और निरोग हूँ ||२४||

विन्दति विन्दति न हि न हि यत्र
छन्दोलक्षणं न हि न हि तत्र
समरसमग्नो भावितपूतः
प्रलपति तत्त्वं परमवधूतः ||२५||
न तो इसमें काव्य है, न छन्द और लक्षण है | समान रस में मग्न होकर, भावना से शुद्ध होकर अवधूत केवल तत्व को कहता है ||२५||

||इति चतुर्थोऽध्यायः ४||

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