पूज्य बापूजी के दिव्य दर्शन और भारतीय संस्कृति का सर्वहितकारी ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

Wednesday, May 25, 2011


प्रश्नोपनिषद् - Prashnopnishad
पञ्चम प्रश्न - Pancham Prashan


अथ हैनं शैब्यः सत्यकामः पप्रच्छ  ।
स यो ह वै तद्भगवन्मनुष्येषु प्रायणान्तं ॐकारं अभिध्यायीत  ।
कतमं वाव स तेन लोकं जयतीति   । । 


तदनन्तर उन पिप्पलाद मुनि से शिबि पुत्र सत्यकाम ने पूछा-‘भगवन् ! मनुष्यों में जो पुरुष प्राणप्रयाणपर्यन्त इस ओङ्कार का चिंतन करे, वह उस (ओङ्कारोपासना)-से किस लोक को जीत लेता है ?’ ॥1॥

तस्मै स होवाच  ।
एतद्वै सत्यकाम परं चापरं च ब्रह्म यदोंकारः  ।
तस्माद्विद्वानेतेनैवायतनेनैकतरं अन्वेति   । । 


उससे उस पिप्पलाद ने कहा-हे सत्यकाम ! यह जो ओङ्कार है वही निश्चय पर और अपर ब्रह्म है । अंतः विद्वान इसीके आश्रय से उनमें से किसी एक [ब्रह्म]-को प्राप्त हो जाता है ॥2॥

स यद्येकमात्रं अभिध्यायीत  ।
स तेनैव संवेदितस्तूर्णं एव जगत्यां अभिसम्पद्यते  ।
तं ऋचो मनुष्यलोकं उपनयन्ते  ।
स तत्र तपसा ब्रह्मचर्येण श्रद्धया सम्पन्नो महिमानं अनुभवति   । ।


वह यदि एकमात्राविशिष्ट ओङ्कार का ध्यान करता है तो उसीसे बोध को प्राप्त कर तुरंत ही संसार को प्राप्त हो जाता है । उसे ऋचाएँ मनुष्य लोक में ले जाती हैं । वहाँ वह तप, ब्रह्मचर्य और श्रद्धा से सम्पन्न होकर महिमा का अनुभव करता है ॥3॥

अथ यदि द्विमात्रेण मनसि संपद्यते  ।
सोऽन्तरीक्षं यजुर्भिरुन्नीयते सोमलोकं  ।
स सोमलोके विभूतिं अनुभूय पुनरावर्तते   । ।


और यदि वह द्विमात्राविशिष्ट ओङ्कार के चिन्तन द्वारा मन से एकत्व को प्राप्त हो जाता है तो उसे यजुःश्रुतियाँ अन्तरिक्ष स्थित सोमलोक में ले जाती हैं । तदनन्तर सोमलोक में विभूति का अनुभव कर वह फिर लौट आता है ॥4॥

यः पुनरेतं त्रिमात्रेणोमित्येतेनैवाक्षरेण परं पुरुषं अभिध्यायीत  ।
स तेजसि सूर्ये संपन्नः  ।
यथा पादोदरस्त्वचा विनिर्मुच्यते  ।
एवं ह वै स पाप्मना विनिर्मुक्तः स सामभिरुन्नीयते ब्रह्मलोकं  ।
स एतस्माज्जीवधनात्परापरं पुरिशयं पुरुषं ईक्षते तदेतौ श्लोकौ भवतः   । ।


किन्तु जो उपासक त्रिमात्राविशिष्ट ‘ॐ’ इस अक्षर द्वारा इस परमपुरुष की उपासना करता है वह तेजोमय सूर्यालोक को प्राप्त होता है । सर्प जिस प्रकार केंचुली से निकाल आता है उसी प्रकार वह पापों से मुक्त हो जाता है । वह सामश्रुतियों द्वारा ब्रह्मलोक में ले जाया जाता है और इस जीवनघन से भी उत्कृष्ट हृदय स्थित परम पुरुष का साक्षात्कार करता है । इस संबंध में ये दो श्लोक हैं ॥5॥

तिस्रो मात्रा मृत्युमत्यः प्रयुक्ता अन्योन्यसक्ता अनविप्रयुक्ताः   ।
क्रियासु बाह्याभ्यन्तरमध्यमासु सम्यक्प्रयुक्तासु न कम्पते ज्ञः   । । 


ओङ्कार की तीनों मात्राएँ [पृथक्-पृथक्] रहने पर मृत्यु से युक्त हैं । वे [ध्यान-क्रिया में] प्रयुक्त होती हैं और परस्पर संबद्ध तथा अनविप्रयुक्ता (जिनका विपरीत प्रयोग न किया गया हो-ऐसी) हैं । इस प्रकार बाह्य (जाग्रत्), आभ्यंतर (सुषुप्ति) और मध्यम (स्वप्नस्थानीय) क्रियाओं में उनका सम्यक् प्रयोग किया जाने पर ज्ञाता पुरुष विचलित नहीं होता ॥6॥

ऋग्भिरेतं यजुर्भिरन्तरिक्षं सामभिर्यत्तत्कवयो वेदयन्ते   ।
तं ॐकारेणैवायतनेनान्वेति विद्वान्यत्तच्छान्तं अजरं अमृतं अभयं परं चेति   । । 


साधक ऋग्वेद द्वारा इस लोक को, यजुर्वेद द्वारा अन्तरिक्ष को और सामवेद द्वारा उस लोक को प्राप्त होता है जिसे विज्ञजन जानते हैं । तथा उस ओङ्काररूप आलंबन के द्वारा ही विद्वान उस लोक को प्राप्त होता है जो शांत, अजर, अमर, अभय एवं सबसे पर (श्रेष्ठ) है ॥7॥


इति पञ्चमः प्रश्नः

Thursday, May 12, 2011


साधन पंचकम् - Sadhan Panchkam

(श्रीमद् आद्य शंकराचार्य जी) - Shankracharyaji

वेदो नित्यमधीयताम्, तदुदितं कर्म स्वनुष्ठीयतां,
तेनेशस्य विधीयतामपचितिकाम्ये मतिस्त्यज्यताम्।
पापौघः परिधूयतां भवसुखे दोषोsनुसंधीयतां, 
आत्मेच्छा व्यवसीयतां निज गृहात्तूर्णं विनिर्गम्यताम्॥१॥  


वेदों का नियमित अध्ययन करें, उनमें निर्देशित (कहे गए) कर्मों का पालन करें, उस परम प्रभु के विधानों (नियमों)  का पालन करें, व्यर्थ के कर्मों में बुद्धि को न लगायें। समग्र पापों  को जला दें, इस संसार के सुखों में छिपे हुए दुखों को देखें, आत्म-ज्ञान के लिए प्रयत्नशील रहें, अपने घर की आसक्ति को शीघ्र त्याग दें ॥१॥


संगः सत्सु विधीयतां भगवतो भक्ति: दृढाऽऽधीयतां, 
शान्त्यादिः परिचीयतां  दृढतरं कर्माशु संत्यज्यताम्।  
सद्विद्वानुपसृप्यतां प्रतिदिनं तत्पादुका सेव्यतां, 
ब्रह्मैकाक्षरमर्थ्यतां श्रुतिशिरोवाक्यं समाकर्ण्यताम्॥२॥


सज्जनों का साथ करें, प्रभु में भक्ति को दृढ़ करें, शांति आदि गुणों का सेवन करें, कठोर कर्मों का परित्याग करें, सत्य को जानने वाले विद्वानों की शरण लें, प्रतिदिन उनकी चरण पादुकाओं की पूजा करें, ब्रह्म के एक अक्षर वाले नाम ॐ के अर्थ पर विचार करें, उपनिषदों के महावाक्यों को सुनें ॥२॥


वाक्यार्थश्च विचार्यतां श्रुतिशिरःपक्षः समाश्रीयतां,
दुस्तर्कात् सुविरम्यतां श्रुतिमतस्तर्कोऽनुसंधीयताम्।  
ब्रम्हास्मीति विभाव्यतामहरहर्गर्वः परित्यज्यताम्  
देहेऽहंमति रुझ्यतां बुधजनैर्वादः परित्यज्यताम्॥३॥    


वाक्यों के अर्थ पर विचार करें, श्रुति के प्रधान पक्ष का अनुसरण करें, कुतर्कों से दूर रहें, श्रुति पक्ष के तर्कों का विश्लेषण करें, मैं ब्रह्म हूँ ऐसा विचार करते हुए मैं रुपी अभिमान का त्याग करें, मैं शरीर हूँ, इस भाव का त्याग करें, बुद्धिमानों से वाद-विवाद न करें ॥३॥


क्षुद्व्याधिश्च चिकित्स्यतां प्रतिदिनं भिक्षौषधं भुज्यतां, 
स्वाद्वन्नं न तु याच्यतां विधिवशात् प्राप्तेन संतुष्यताम्। 
शीतोष्णादि विषह्यतां न तु वृथा वाक्यं समुच्चार्यतां 
औदासीन्यमभीप्स्यतां जनकृपानैष्ठुर्यमुत्सृज्यताम्॥४॥


भूख को रोग समझते हुए प्रतिदिन भिक्षा रूपी औषधि का सेवन करें, स्वाद के लिए अन्न की याचना न करें, भाग्यवश जो भी प्राप्त हो उसमें ही संतुष्ट रहें| सर्दी-गर्मी आदि विषमताओं को सहन करें, व्यर्थ वाक्य न बोलें, निरपेक्षता की इच्छा करें, लोगों की कृपा और निष्ठुरता से दूर रहें ॥४॥


एकान्ते सुखमास्यतां परतरे चेतः समाधीयतां
पूर्णात्मा सुसमीक्ष्यतां जगदिदं तद्वाधितं दृश्यताम्।
प्राक्कर्म प्रविलाप्यतां चितिबलान्नाप्युत्तरैः श्लिश्यतां 
प्रारब्धं त्विह भुज्यतामथ परब्रह्मात्मना स्थीयताम्॥५॥ 


एकांत के सुख का सेवन करें,  परब्रह्म में चित्त को लगायें, परब्रह्म की खोज करें, इस विश्व को उससे व्याप्त देखें, पूर्व कर्मों का नाश करें, मानसिक बल से भविष्य में आने वाले कर्मों का आलिंगन करें, प्रारब्ध का यहाँ ही भोग करके परब्रह्म में स्थित हो जाएँ ॥५॥