पूज्य बापूजी के दिव्य दर्शन और भारतीय संस्कृति का सर्वहितकारी ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

Wednesday, June 30, 2010


भज गोविन्दम् - Bhaj Govindam

श्रीमद् आद्य शंकराचार्यविरचितम् - Shri Shankracharyaji

भज गोविन्दं भज गोविन्दं,
गोविन्दं भज मूढ़मते।
संप्राप्ते सन्निहिते काले,
न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे ॥१॥

हे मोह से ग्रसित बुद्धि वाले मित्र, गोविंद को भजो, गोविन्द का नाम लो, गोविन्द से प्रेम करो क्योंकि मृत्यु के समय व्याकरण के नियम याद रखने से आपकी रक्षा नहीं हो सकती है ॥१॥

मूढ़ जहीहि धनागमतृष्णाम्,
कुरु सद्बुद्धिमं मनसि वितृष्णाम्।
यल्लभसे निजकर्मोपात्तम्,
वित्तं तेन विनोदय चित्तं ॥२॥

हे मोहित बुद्धि! धन एकत्र करने के लोभ को त्यागो। अपने मन से इन समस्त कामनाओं का त्याग करो। सत्यता के पथ का अनुसरण करो, अपने परिश्रम से जो धन प्राप्त हो उससे ही अपने मन को प्रसन्न रखो ॥२॥

नारीस्तनभरनाभीदेशम्,
दृष्ट्वा मागा मोहावेशम्।
एतन्मान्सवसादिविकारम्,
मनसि विचिन्तय वारं वारम् ॥३॥

स्त्री शरीर पर मोहित होकर आसक्त मत हो। अपने मन में निरंतर स्मरण करो कि ये मांस-वसा आदि के विकार के अतिरिक्त कुछ और नहीं हैं ॥३॥

नलिनीदलगतजलमतितरलम्, तद्वज्जीवितमतिशयचपलम्।
विद्धि व्याध्यभिमानग्रस्तं,
लोक शोकहतं च समस्तम् ॥४॥

जीवन कमल-पत्र पर पड़ी हुई पानी की बूंदों के समान अनिश्चित एवं अल्प (क्षणभंगुर) है। यह समझ लो कि समस्त विश्व रोग, अहंकार और दु:ख में डूबा हुआ है ॥४॥

यावद्वित्तोपार्जनसक्त:,
तावन्निजपरिवारो रक्तः।
पश्चाज्जीवति जर्जरदेहे,
वार्तां कोऽपि न पृच्छति गेहे ॥५॥

जब तक व्यक्ति धनोपार्जन में समर्थ है, तब तक परिवार में सभी उसके प्रति स्नेह प्रदर्शित करते हैं परन्तु अशक्त हो जाने पर उसे सामान्य बातचीत में भी नहीं पूछा जाता है ॥५॥

यावत्पवनो निवसति देहे,
तावत् पृच्छति कुशलं गेहे।
गतवति वायौ देहापाये,
भार्या बिभ्यति तस्मिन्काये ॥६॥

जब तक शरीर में प्राण रहते हैं तब तक ही लोग कुशल पूछते हैं। शरीर से प्राण वायु के निकलते ही पत्नी भी उस शरीर से डरती है ॥६॥

बालस्तावत् क्रीडासक्तः,
तरुणस्तावत् तरुणीसक्तः।
वृद्धस्तावच्चिन्तासक्तः,
परे ब्रह्मणि कोऽपि न सक्तः ॥७॥

बचपन में खेल में रूचि होती है , युवावस्था में युवा स्त्री के प्रति आकर्षण होता है, वृद्धावस्था में चिंताओं से घिरे रहते हैं पर प्रभु से कोई प्रेम नहीं करता है ॥७॥

का ते कांता कस्ते पुत्रः,
संसारोऽयमतीव विचित्रः।
कस्य त्वं वा कुत अयातः,
तत्त्वं चिन्तय तदिह भ्रातः ॥८॥

कौन तुम्हारी पत्नी है, कौन तुम्हारा पुत्र है, ये संसार अत्यंत विचित्र है, तुम कौन हो, कहाँ से आये हो, बन्धु ! इस बात पर तो पहले विचार कर लो ॥८॥

सत्संगत्वे निस्संगत्वं,
निस्संगत्वे निर्मोहत्वं।
निर्मोहत्वे निश्चलतत्त्वं
निश्चलतत्त्वे जीवन्मुक्तिः ॥९॥

सत्संग से वैराग्य, वैराग्य से विवेक, विवेक से स्थिर तत्त्वज्ञान और तत्त्वज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति होती है ॥९॥

वयसि गते कः कामविकारः,
शुष्के नीरे कः कासारः।
क्षीणे वित्ते कः परिवारः,
ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः ॥१०॥

आयु बीत जाने के बाद काम भाव नहीं रहता, पानी सूख जाने पर तालाब नहीं रहता, धन चले जाने पर परिवार नहीं रहता और तत्त्व ज्ञान होने के बाद संसार नहीं रहता ॥१०॥

मा कुरु धनजनयौवनगर्वं,
हरति निमेषात्कालः सर्वं।
मायामयमिदमखिलम् हित्वा,
ब्रह्मपदम् त्वं प्रविश विदित्वा ॥११॥

धन, शक्ति और यौवन पर गर्व मत करो, समय क्षण भर में इनको नष्ट कर देता है| इस विश्व को माया से घिरा हुआ जान कर तुम ब्रह्म पद में प्रवेश करो ॥११॥

दिनयामिन्यौ सायं प्रातः,
शिशिरवसन्तौ पुनरायातः।
कालः क्रीडति गच्छत्यायुस्तदपि
न मुन्च्त्याशावायुः ॥१२॥

दिन और रात, शाम और सुबह, सर्दी और बसंत बार-बार आते-जाते रहते है काल की इस क्रीडा के साथ जीवन नष्ट होता रहता है पर इच्छाओ का अंत कभी नहीं होता है ॥१२॥

द्वादशमंजरिकाभिरशेषः
कथितो वैयाकरणस्यैषः।
उपदेशोऽभूद्विद्यानिपुणैः, 
श्रीमच्छंकरभगवच्चरणैः ॥१२अ॥

बारह गीतों का ये पुष्पहार, सर्वज्ञ प्रभुपाद श्री शंकराचार्य द्वारा एक वैयाकरण को प्रदान किया गया ॥१२अ॥

काते कान्ता धन गतचिन्ता,
वातुल किं तव नास्ति नियन्ता।
त्रिजगति सज्जनसं गतिरैका,
भवति भवार्णवतरणे नौका ॥१३॥

तुम्हें पत्नी और धन की इतनी चिंता क्यों है, क्या उनका कोई नियंत्रक नहीं है| तीनों लोकों में केवल सज्जनों का साथ ही इस भवसागर से पार जाने की नौका है ॥१३॥

जटिलो मुण्डी लुञ्छितकेशः, काषायाम्बरबहुकृतवेषः।
पश्यन्नपि च न पश्यति मूढः,
उदरनिमित्तं बहुकृतवेषः ॥१४॥

बड़ी जटाएं, केश रहित सिर, बिखरे बाल , काषाय (भगवा) वस्त्र और भांति भांति के वेश ये सब अपना पेट भरने के लिए ही धारण किये जाते हैं, अरे मोहित मनुष्य तुम इसको देख कर भी क्यों नहीं देख पाते हो ॥१४॥

अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं,
दशनविहीनं जतं तुण्डम्।
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं,
तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम् ॥१५॥

क्षीण अंगों, पके हुए बालों, दांतों से रहित मुख और हाथ में दंड लेकर चलने वाला वृद्ध भी आशा-पाश से बंधा रहता है ॥१५॥

अग्रे वह्निः पृष्ठेभानुः,
रात्रौ चुबुकसमर्पितजानुः।
करतलभिक्षस्तरुतलवासः,
तदपि न मुञ्चत्याशापाशः ॥१६॥

सूर्यास्त के बाद, रात्रि में आग जला कर और घुटनों में सर छिपाकर सर्दी बचाने वाला, हाथ में भिक्षा का अन्न खाने वाला, पेड़ के नीचे रहने वाला भी अपनी इच्छाओं के बंधन को छोड़ नहीं पाता है ॥१६॥

कुरुते गङ्गासागरगमनं,
व्रतपरिपालनमथवा दानम्।
ज्ञानविहिनः सर्वमतेन,
मुक्तिं न भजति जन्मशतेन ॥१७॥

किसी भी धर्म के अनुसार ज्ञान रहित रह कर गंगासागर जाने से, व्रत रखने से और दान देने से सौ जन्मों में भी मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकती है ॥१७॥

सुर मंदिर तरु मूल निवासः,
शय्या भूतल मजिनं वासः।
सर्व परिग्रह भोग त्यागः,
कस्य सुखं न करोति विरागः ॥१८॥

देव मंदिर या पेड़ के नीचे निवास, पृथ्वी जैसी शय्या, अकेले ही रहने वाले, सभी संग्रहों और सुखों का त्याग करने वाले वैराग्य से किसको आनंद की प्राप्ति नहीं होगी ॥१८॥

योगरतो वाभोगरतोवा,
सङ्गरतो वा सङ्गवीहिनः।
यस्य ब्रह्मणि रमते चित्तं,
नन्दति नन्दति नन्दत्येव ॥१९॥

कोई योग में लगा हो या भोग में, संग में आसक्त हो या निसंग हो, पर जिसका मन ब्रह्म में लगा है वो ही आनंद करता है, आनंद ही करता है ॥१९॥

भगवद् गीता किञ्चिदधीता,
गङ्गा जललव कणिकापीता।
सकृदपि येन मुरारि समर्चा,
क्रियते तस्य यमेन न चर्चा ॥२०॥

जिन्होंने भगवदगीता का थोडा सा भी अध्ययन किया है, भक्ति रूपी गंगा जल का कण भर भी पिया है, भगवान कृष्ण की एक बार भी समुचित प्रकार से पूजा की है, यम के द्वारा उनकी चर्चा नहीं की जाती है ॥२०॥

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं,
पुनरपि जननी जठरे शयनम्।
इह संसारे बहुदुस्तारे,
कृपयाऽपारे पाहि मुरारे ॥२१॥

बार-बार जन्म, बार-बार मृत्यु, बार-बार माँ के गर्भ में शयन, इस संसार से पार जा पाना बहुत कठिन है, हे कृष्ण कृपा करके मेरी इससे रक्षा करें ॥२१॥

रथ्या चर्पट विरचित कन्थः,
पुण्यापुण्य विवर्जित पन्थः।
योगी योगनियोजित चित्तो,
रमते बालोन्मत्तवदेव ॥२२॥

रथ के नीचे आने से फटे हुए कपडे पहनने वाले, पुण्य और पाप से रहित पथ पर चलने वाले, योग में अपने चित्त को लगाने वाले योगी, बालक के समान आनंद में रहते हैं ॥२२॥

कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः,
का मे जननी को मे तातः।
इति परिभावय सर्वमसारम्,
विश्वं त्यक्त्वा स्वप्न विचारम् ॥२३॥

तुम कौन हो, मैं कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ, मेरी माँ कौन है, मेरा पिता कौन है? सब प्रकार से इस विश्व को असार समझ कर इसको एक स्वप्न के समान त्याग दो ॥२३॥

त्वयि मयि चान्यत्रैको विष्णुः,
व्यर्थं कुप्यसि मय्यसहिष्णुः।
भव समचित्तः सर्वत्र त्वं,
वाञ्छस्यचिराद्यदि विष्णुत्वम् ॥२४॥

तुममें, मुझमें और अन्यत्र भी सर्वव्यापक विष्णु ही हैं, तुम व्यर्थ ही क्रोध करते हो, यदि तुम शाश्वत विष्णु पद को प्राप्त करना चाहते हो तो सर्वत्र समान चित्त वाले हो जाओ ॥२४॥

शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ,
मा कुरु यत्नं विग्रहसन्धौ।
सर्वस्मिन्नपि पश्यात्मानं,
सर्वत्रोत्सृज भेदाज्ञानम् ॥२५॥

शत्रु, मित्र, पुत्र, बन्धु-बांधवों से प्रेम और द्वेष मत करो, सबमें अपने आप को ही देखो, इस प्रकार सर्वत्र ही भेद रूपी अज्ञान को त्याग दो ॥२५॥

कामं क्रोधं लोभं मोहं,
त्यक्त्वाऽत्मानं भावय कोऽहम्।
आत्मज्ञान विहीना मूढाः,
ते पच्यन्ते नरकनिगूढाः ॥२६॥

काम, क्रोध, लोभ, मोह को छोड़ कर, स्वयं में स्थित होकर विचार करो कि मैं कौन हूँ, जो आत्म- ज्ञान से रहित मोहित व्यक्ति हैं वो बार-बार छिपे हुए इस संसार रूपी नरक में पड़ते हैं ॥२६॥

गेयं गीता नाम सहस्रं,
ध्येयं श्रीपति रूपमजस्रम्।
नेयं सज्जन सङ्गे चित्तं,
देयं दीनजनाय च वित्तम् ॥२७॥

भगवान विष्णु के सहस्त्र नामों को गाते हुए उनके सुन्दर रूप का अनवरत ध्यान करो, सज्जनों के संग में अपने मन को लगाओ और गरीबों की अपने धन से सेवा करो ॥२७॥

सुखतः क्रियते रामाभोगः,
पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः।
यद्यपि लोके मरणं शरणं,
तदपि न मुञ्चति पापाचरणम् ॥२८॥

सुख के लिए लोग आनंद-भोग करते हैं जिसके बाद इस शरीर में रोग हो जाते हैं। यद्यपि इस पृथ्वी पर सबका मरण सुनिश्चित है फिर भी लोग पापमय आचरण को नहीं छोड़ते हैं ॥२८॥

अर्थंमनर्थम् भावय नित्यं,
नास्ति ततः सुखलेशः सत्यम्।
पुत्रादपि धनभजाम् भीतिः,
सर्वत्रैषा विहिता रीतिः ॥२९॥

धन अकल्याणकारी है और इससे जरा सा भी सुख नहीं मिल सकता है, ऐसा विचार प्रतिदिन करना चाहिए | धनवान व्यक्ति तो अपने पुत्रों से भी डरते हैं ऐसा सबको पता ही है ॥२९॥

प्राणायामं प्रत्याहारं,
नित्यानित्य विवेकविचारम्।
जाप्यसमेत समाधिविधानं,
कुर्ववधानं महदवधानम् ॥३०॥

प्राणायाम, उचित आहार, नित्य इस संसार की अनित्यता का विवेक पूर्वक विचार करो, प्रेम से प्रभु-नाम का जाप करते हुए समाधि में ध्यान दो, बहुत ध्यान दो ॥३०॥

गुरुचरणाम्बुज निर्भर भक्तः, संसारादचिराद्भव मुक्तः।
सेन्द्रियमानस नियमादेवं,
द्रक्ष्यसि निज हृदयस्थं देवम् ॥३१॥

गुरु के चरण कमलों का ही आश्रय मानने वाले भक्त बनकर सदैव के लिए इस संसार में आवागमन से मुक्त हो जाओ, इस प्रकार मन एवं इन्द्रियों का निग्रह कर अपने हृदय में विराजमान प्रभु के दर्शन करो ॥३१॥

मूढः कश्चन वैयाकरणो,
डुकृञ्करणाध्ययन धुरिणः।
श्रीमच्छम्कर भगवच्छिष्यै,
बोधित आसिच्छोधितकरणः ॥३२॥

इस प्रकार व्याकरण के नियमों को कंठस्थ करते हुए किसी मोहित वैयाकरण के माध्यम से बुद्धिमान श्री भगवान शंकर के शिष्य बोध प्राप्त करने के लिए प्रेरित किये गए ॥३२॥

भजगोविन्दं भजगोविन्दं,
गोविन्दं भजमूढमते।
नामस्मरणादन्यमुपायं,
नहि पश्यामो भवतरणे ॥३३॥

गोविंद को भजो, गोविन्द का नाम लो, गोविन्द से प्रेम करो क्योंकि भगवान के नाम जप के अतिरिक्त इस भव-सागर से पार जाने का अन्य कोई मार्ग नहीं है ॥३३॥

Wednesday, June 23, 2010


मुण्डक उपनिषद् - Mundak Upnishad

तृतीय मुण्डक - Tritya Mundak
द्वितीय खण्ड - Dwitya Khand

स वेदैतत् परमं ब्रह्मधाम यत्र विश्व निहितं भाति शुभ्रम।
उपासते पुरूषं ये ह्यकामास्ते शुक्रमेतदितवर्तन्ति धीराः॥१॥

वह इस परम शुभ्र ब्रह्मधाम (ज्योतिः स्वरूप ब्रह्म) को जान लेता है, जहाँ (जिसमें) सम्पूर्ण जगत् स्थित हुआ भासता है। जो अकाम मनुष्य परमपुरूष की उपासना करते हैं, वे धीर (बुद्धिमान् मनुष्य) इस शुक्र (देह, दैहिक स्तर) का अतिक्रमण कर देते हैं। वे ऊर्ध्वचेता एवं ऊर्ध्वरेता (यौनभाव पर विजय प्राप्त करनेवाले) होते हैं।

कामान् यः कामयते मन्यमानः स कामभिर्जायते तत्र तत्र।
पर्याप्तकामस्य कृतात्मनस्त्विहैव सर्वे प्रविलीयन्ति कामाः ॥२॥

जो भोगों को महत्त्व देनेवाला मनुष्य कामना करता है, वह कामनाओं के कारण वहाँ-वहाँ ही उत्पन्न होता है, किन्तु पूर्णकाम एवं शुद्ध अन्तःकरणवाले पुरूष की समस्त कामनाँ यहाँ ही सर्वथा विलीन (समाप्त) हो जाती हैं।

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यों न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्॥३॥

यह आत्मा (परमात्मा) न प्रवचन से, न तीव्र बुद्धि होने से, न बहुत श्रवण करने से प्राप्त होता है। वह जिसका वरण कर लेता है, उसके द्वारा ही प्राप्त हो सकता है। यह आत्मा उसके लिए अपने स्वरूप को प्रकट कर देता है।

नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो न च प्रमादात्तपसो वाप्यलिङ्गात्।
एतैरूपायैर्यतते यस्तु विद्वांस्तस्यैष आत्मा विशते ब्रह्मधाम॥४॥

यह आत्मा (परमात्मा) बलहीन मनुष्य नहीं प्राप्त किया जा सकता, प्रमाद होने पर भी नहीं प्राप्त होता, तथा केवलमात्र लक्षणरहित तप से भी नहीं प्राप्त हो सकता है (अथवा केवलमात्र संन्यास से नहीं तथा केवलमात्र तप से भी नहीं प्राप्त हो सकता है), किन्तु बुद्धमान पुरूष इन सब उपायों से प्रयत्न करता है। तब उसका यह आत्मा ब्रह्मधाम मे प्रविष्ट हो जाता है।

सम्प्राप्यैनमृषयो ज्ञानतृप्ताः कृतात्मानों वीतरागाः प्रशान्ताः।
ते सर्वगं सर्वतः प्राप्य धीरा युक्तामानः सर्वमेवाविशन्ति॥५॥

वीतराग, विशुद्ध अन्तःकरणवाले ऋषिगण इस परमात्मा को प्राप्त करके ज्ञान से तृप्त (और) परमा शान्त (हो जाते है)। अपने-आपको परमात्मा से युक्त कर देनेवाले वे ज्ञानीजन सर्वव्यापी परमात्मा को सब ओर से प्राप्त करके सर्वरूप परमात्मा में ही प्रविष्ट हो जाते हैं।

वेदान्तविज्ञानसुनिश्चितार्थाः संन्यासयोगाद् यतयः शद्धसत्त्वाः।
ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले परामृताः परिमुच्यन्ति सर्वे ॥६॥

जिन्होंने वेदान्तशास्त्र के (उपनिषदों के) ज्ञान द्वारा उसके अर्थभूत परमात्मा को सुनिश्चित कर लिया, जिनका अन्तःकरण संन्यासयोग से विशुद्ध हो गया, वे समस्त यति (इन्द्रयों का सयंम करनेवाले, यत्न करनेवाले) देहान्त होने पर, ब्रह्मलोक मे जाकर, अमृतस्वरूप होकर सर्वथा मुक्त हो जाते हैं।

गताः कलाः पञ्चदश प्रतिष्ठा देवाश्च सर्वे प्रतिदेवतासु।
कर्माणि विज्ञानमयश्च आत्मा परेऽवय्ये सर्वे एकीभवन्ति॥७॥

(परब्रह्म की प्राप्ति करनेवाले महात्मा की) पन्द्रह कलाएँ और सारे देवता (सारी इन्द्रियाँ) अपने-अपने अभिमानी देवों में जाकर स्थित हो जाते हैं। समस्त कर्म औऱ विज्ञानमय आत्मा (जीवात्मा), सब परम अविनाशी परब्रह्म में एक हो जाते हैं।

यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय।
तथा विद्वान नामरूपाद् विमुक्तः परात्परं पुरूषमुपैति दिव्यम्॥८॥

जिस प्रकार बहती हुई नदियाँ नाम और रूप को छोड़कर समुद्र में विलीन हो जाती हैं, उसी प्रकार ज्ञानी महात्मा नाम ओर रूप से विमुक्त होकर परात्पर दिव्य पुरूष (ब्रह्म) को प्राप्त होता है।

स यो ह वै तत्परमं ब्रह्म वेद ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति, नास्याब्रह्मवित्कुले भवति।
तरति शोकं तरति पाप्मानं गुहाग्रन्थिभ्यो विमुक्तोऽमृतो भवति॥९॥

निश्चय ही जो कोई भी उस परमब्रह्म परमात्मा को जान लेता है वह ब्रह्म ही हो जाता है। इसके कुल में कोई नास्तिक नहीं होता। वह शोक को पार कर लेता है। वह हृदयगुहा की ग्रन्थियों (गाँठो) से विमुक्त होकर अमृत हो जाता है।

तदेतदृचाभ्युक्तम-
क्रियावन्तः श्रोत्रिया ब्रह्मनिष्ठाः स्वयं जह्वत एकर्षि श्रद्धयन्तः
तेषामेवैतां ब्रह्मविद्यां वदेत शिरोव्रतं विधिवत् यैस्तु चीर्णम् ॥१०॥

वह इस ऋचा के द्वारा कहा गया है-क्रियावान (जो कर्मकाण्ड कर चुका है) श्रोत्रिय (वेदज्ञ), ब्रह्मनिष्ठ, श्रद्धावान् स्वयं एकर्षि (अग्नि अथवा ब्रह्म) में हवन करते हैं तथा जिनके द्वारा विधिपूर्वक शिरोव्रत का पालन किया गया है, उन्हें ही ब्रह्मविद्या का कथन करना चाहिए।

तदेतत् सत्यमृषिरङ्गिराः पुरोवाच नैतदचीर्णव्रतोऽधीते।
नमः परमऋषिभ्यों नमः परमऋषिभ्यः ॥११॥

उसी इस सत्य को पुरातन काल में अङ्गिरा ऋषि ने कहा था। व्रत का पालन न करनेवाला मनुष्य इसका ग्रहण नहीं कर सकता । परम ऋषियों को नमस्कार, परम ऋषियों को नमस्कार।

Friday, June 4, 2010

श्रीयोगवाशिष्ठ महारामायण -YogVashisht Maharamayan
उपशमप्रकरण (पञ्चम)
त्रयोदशस्सर्ग

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार जनक की नाईं अपने आपसे आपको विचार करो और पीछे जो विदितवेद पुरुषों ने किया है उसी प्रकार तुम भी करके निर्वाण हो जाओ । जो बुद्धि मान पुरुष है और जिनका यह अन्त का जन्म है वे राजस-सात्त्विकी पुरुष आप ही परमपद को प्राप्त होते हैं । जब तक अपने आपसे आत्मदेव प्रसन्न न हो तब तक इन्द्रियरूपी शत्रुओं के जीतने का यत्न करो और जब आत्मदेव जो सर्ववत् परमात्मा ईश्वरों का भी ईश्वर है प्रसन्न होगा तो आप ही स्वयंप्रकाश देखेगा और सब दोष दृष्टि क्षीण हो जायगी । मोहरूपी बीज को जो मुट्ठी भर बोता था और नाना प्रकार की आपदारूपी वर्षा से महामोह की बेलि जो होती दृष्टि आती थी वह नष्ट हो जाती है! परमात्मा का साक्षात्कार होता तब भ्रान्ति दृष्टि नहीं आती । हे रामजी! तुम सदा बोध से आत्मपद में स्थित हो, जनकवत् कर्मों का आरम्भ करो और ब्रह्म लक्षवान् होकर जगत् में विचरो तब तुमको खेद कुछ न होगा । जब नित्य आत्मविचार होता है तब परमदेव आपही प्रसन्न होता है और उसके साक्षात्कार हुए से तुम चञ्चलरूपी संसारीजनों को देखकर जनक की नाईं हँसोगे । हे रामजी! संसार के भय से जो जीव भयभीत हुए हैं उनको अपनी रक्षा करने को अपना ही प्रयत्न चाहिये और दैव अथवा कर्म वा धन, बान्धवों से रक्षा नहीं होती । जो पुरुष दैव को ही निश्चय कर रहे हैं पर शास्त्रविरुद्ध कर्म करते हैं और संकल्प विकल्प में तत्पर होते हैं वे मन्द बुद्धि हैं उनके मार्ग की ओर तुम न जाना उनकी बुद्धि नाश करती है, तुम परम विवेक का आश्रय करो और अपने आपको आपसे देखो । बैराग्यवान् शुद्ध बुद्धि से संसार समुद्र को तर जाता है । यह मैंने तुमसे जनक का वृत्तांत कहा है-जैसे आकाश से फल गिर पड़े तैसे ही उसको सिद्धों के विचार में ज्ञान की प्राप्ति हुई । यह विचार ज्ञानरूपी वृक्ष की मञ्जरी है । जैसे अपने विचार से राजा जनक को आत्मबोध हुआ तैसे ही तुमको भी प्राप्त होगा । जैसे सूर्यमुखी कमल सूर्य को देखकर प्रसन्न होता है तैसे ही इस विचार से तुम्हारा हृदय प्रफुल्लित हो आवेगा और मन का मननभाव जैसे बरफ का कणका सूर्य से तप्त हो गल जाता है शान्त हो जावेगा । जब अहं’ ‘त्वंआदि रात्रि विचाररूपी सूर्य से क्षीण हो जावेगी तब परमात्मा का प्रकाश साक्षात् होगा, भेदकल्पना नष्ट हो जावेगी और अनन्तब्रह्माण्ड में जो व्यापक आत्मतत्त्व है । वह प्रकाशित होगा । जैसे अपने विचार से जनक ने अहंकाररूपी वासना का त्याग किया है तैसे ही तुम भी विचार करके अहंकार-रूपी वासना का त्याग किया है तैसे ही तुम भी विचार करके अहंकाररूपी वासना का त्याग करो अहंकाररूपी मेघ जब नष्ट होगा और चित्ताकाश निर्मल होगा तब आत्मरूपी सूर्य प्रकाशित होगा । जब तक अहंकाररूपी मेघ आवरण है तबतक आत्मरूपी सूर्य नहीं भासता । विचाररूपी वायु से जब अहंकाररूपी मेघ नाश हो तब आत्मरूपी सूर्य प्रकट भासेगा । हे रामजी! ऐसे समझो कि मैं हूँ न कोई और है, न नास्ति है, न अस्ति है, जब ऐसी भावना दृढ़ होगी तब मन शा न्त हो जावेगा और हेयोपादेय बुद्धि जो इष्ट पदार्थों मे होती है उसमें न डूबोगे । इष्ट अनिष्ट के ग्रहण त्याग में जो भावना होती है यही मन का रूप है और यही बन्धन का कारण है- इससे भिन्न बन्धन कोई नहीं । इससे तुम इन्द्रियों के इष्ट अनिष्ट में हेयो पादेय बुद्धि मत करो और दोनों के त्यागने से जो शेष रहे उसमें स्थित हो । इष्ट अनिष्ट की भावना उसकी की जाती है जिसको हेयोपादेय बुद्धि नहीं होती और जबतक हेयो पादेय बुद्धि क्षीण नहीं होती तबतक समता भाव नहीं उपजता । जैसे मेघ के नष्ट हुए बिना चन्द्रमा की चाँदनी नहीं भासती तैसे ही जबतक पदार्थों में इष्ट अनिष्ट बुद्धि है और मन लोलुप होता है तबतक समता उदय नहीं होती । जबतक युक्त अयुक्त लाभ अलाभ इच्छा नहीं मिटती तबतक शुद्ध समता और निरसता नहीं उपजती । एक ब्रह्मतत्त्व जो निरामयरूप और नानात्व से रहित है उसमें युक्त क्या और अयुक्त क्या? जब तक इच्छा- अनिच्छा और वाञ्छित-अवाञ्छित यह दोनों बातें स्थित हैं अर्थात् फुरते और क्षोभ करते हैं तबतक सौम्यताभाव नहीं होता । जो हेयोपादेय बुद्धि से रहित ज्ञानवान् है उस पुरुष को यह शक्ति आ प्राप्त होती है-जैसे राजा के अन्तःपुर में पटु (चतुर) रानी स्थित होती हैं । वह शक्ति यह है, भोगों में निरसता, देहाभिमान से रहित निर्भयता, नित्यता, समता, पूर्णआत्मा-दृष्टि, ज्ञाननिष्ठा, निरिच्छता, निरहंकारता आपको सदा अकर्त्ता जानना, इष्ट अनिष्ट की प्राप्ति में समचित्तता, निर्विकल्पता, सदा आनन्द- स्वरूप रहना,धैर्य से सदा एकरस रहना, स्वरूप से भिन्न वृत्ति न फुरना, सब जीवों से मैत्रीभाव, सत्यबुद्धि, निश्चयात्मकरूप से तुष्टता, मुदिता और मृदुभाषणा,इतनी शक्ति हेयोपादेय से रहित पुरुष को आ प्राप्त होती है । हे रामजी! संसार के पदार्थों की ओर जो चित्त धावता है उसको वैराग्य से उलटाके खैंचना-जैसे पुल से जल के वेग का निवारण होता है तैसे ही जगत् से रोककर मन को आत्मपद में लगाने से आत्मभाव प्रकाशता है । इससे हृदय से सब वासना का त्याग करो और बाहर से सब क्रिया में रहो । वेग चलो, श्वास लो और सर्वदा, सब प्रकार चेष्टा करो, पर सर्वदा सब प्रकार की वासना त्याग करो । संसाररूपी समुद्र में वासनारूपी जल है और चिन्तारूपी सिवार है, उस जल में तृष्णावान् रूपी मच्छ फँसे हैं । यह विचार जो तुमसे कहा है उस विचाररूपी शिला से बुद्धि को तीक्ष्ण करो और इस जाल को छेदो तब संसार से मुक्त होगे संसाररूपी वृक्ष का मूल बीज मन है । ये वचन जो कहे हैं-उनको हृदय में धरकर धैर्यवान हो तब आधि व्याधिदुःखों से मुक्त होगे । मन से मन को छेदो, जो बीती है उसका स्मरण न करो और भविष्यत् की चिन्ता न करो, क्योंकि वह असत्यरूप है और वर्तमान को भी असत्य जानके उसमें बिचरो । जब मन से संसार का विस्मरण होता है तब मन में फिर न फुरेगा । मन असत्यभाव जानके चलो, बैठो, श्वाश लो, निश्वास करो, उछलो, सोवो, सब चेष्टा करो परन्तु भीतर सब असत्यरूप जानो तब खेद न होगा । अहं’ ‘ममरूपी मल का त्याग करो प्राप्ति में बिचरो अथवा राज आ प्राप्त हो उसमें बिचरो परन्तु भीतर से इसमें आस्था न हो । जैसे आकाश का सब पदार्थों में अन्वय है परन्तु किसी से स्पर्श नहीं करता, तै से ही बाहर कार्य करो परन्तु मन से किसी में बन्धायमान न हो तुम चेतनरूप अजन्मा महेश्वर पुरुष हो, तुम से भिन्न कुछ नहीं और सबमें व्याप रहे हो । जिस पुरुष को सदा यही निश्चय रहता है उसको संसार के पदार्थों चलायमान नहीं कर सकते और जिनको संसार में आसक्त भावना है और स्वरूप भूले हैं उनको संसार के पदार्थों से विकार उपजता है और हर्ष, शोक और भय खींचते हैं, उससे वे बाँधे हुए हैं । जो ज्ञानवान् पुरुष राग द्वेष से रहित हैं उनको लोहा, बट्टा, (ढेला) पाषाण और सुवर्ण सब एक समान है । संसार वासना के ही त्यागने का नाम मुक्ति है । हे रामजी! जिस पुरुष को स्वरूप में स्थिति हुई है और सुख दुःख में समता है वह जो कुछ करता, भोगता, देता, लेता इत्यादिक क्रिया करता है सो करता हुअ भी कुछ नहीं करता । वह यथा प्राप्त कार्य में बर्तता है । और उसे अन्तःकरण में इष्ट अनिष्ट की भावना नहीं फुरती और कार्य में रागद्वेषवान् होकर नहीं डूबता । जिसको सदा यह निश्चय रहता है कि सर्वचिदाकाशरूप है और जो भोगों के मनन से रहित है वह समता भाव को प्राप्त होता है । हे रामजी! मन जड़रूप है और आत्मा चेतनरूप है, उसी चेतन की सत्ता से जीव पदार्थों को ग्रहण करता है इसमें अपनी सत्यता कुछ नहीं । जैसे सिंह के मारे हुए पशु बिल्ली भी खाने जाती है, उसको अपना बल कुछ भी नहीं, तैसे ही चेतन के बल से मन दृश्य का आश्रय करता है, आप असत्यरूप है चेतन की सत्ता पाकर जीता है, संसार के चिन्तवन को समर्थ होता है और प्रमाद से चिन्ता से तपायमान होता है । यह वार्त्ता प्रसिद्ध है कि मन जड़ है और चेतनरूपी दीपक से प्रकाशित है । चेतन सत्ता से रहित सब समान है और आत्म सत्ता से रहित उठ भी नहीं सकता । आत्मसत्ता को भुलाकर जो कुछ करता है उस फुरने को बुद्धिमान कलना कहते हैं । जब वही कलना शुद्ध चेतनरूप आपको जानती है तब आत्मभाव को प्राप्त होता है और प्रमाद से रहित आत्मरूप होता है । चित्तकला जब चैत्य दृश्य से अस्फुर होती है उसका नाम सनातन ब्रह्म होता है और जब चैत्य के साथ मिलती है तब उसका नाम कलना होता है, स्वरूप से कुछ भिन्न नहीं केवल ब्रह्मतत्त्व स्थित है और उसमें भ्रान्ति से मन आदि भासते हैं । जब चेतनसत्ता दृश्य के सम्मुख होती है तब वही कलनारूप होती है और अपने स्वरूप के विस्मरण किये से और संकल्प की ओर धावने से कलना कहाती है । वह आपको परिच्छिन्न जानती है उससे परिच्छिन्न हो जाती है और हेयोपादेय धर्मिणी होती है । हे रामजी! चित्तसत्ता अपने ही फुरने से जड़ता को प्राप्त हुई है और जब तक विचार करके न जगावे तब तक स्वरूप में नहीं जागती इसी कारण सत्य शास्त्रों के विचार और वैराग से इन्द्रियों का निग्रह करके अपनी कलना को आप जगावो सब जीवों की कलना विज्ञान और सम करके जगाने से ब्रह्म तत्त्व को प्राप्त होती है और इससे भिन्न मार्ग से भ्रमता रहता है । मोहरूपी मदिरा से जो पुरुष उन्मत्त होता है वह विषयरूपी गढ़े में गिरता है । सोई हुई कलना आत्मबोध से नहीं जगाते अप्रबोध ही रहते हैं सो चित्त कलना जड़ रहती है, जो भासती है तो भी असत्यरूप है । ऐसा पदार्थ जगत् में कोई नहीं जो संकल्प से कल्पित न हो, इससे तुम अजड़धर्मा हो जाओ । कलना जड़ उपलब्धरूपिणी है और परमार्थसत्ता से विकासमान होती है-जैसे सूर्य से कमल विकासमान होता है । जैसे पाषाण की मूर्ति से कहिये कि तू नृत्य कर तो वह नहीं करती क्योंकि जड़रूप है, तैसे ही देह में जो कलना है वह चेतन कार्य नहीं कर सकती । जैसे मूर्ति का लिखा हुआ राजा गुर गुर शब्द करके युद्ध नहीं कर सकता और मूर्ति का चन्द्रमा औषध पुष्ट नहीं कर सकता तैसे ही कलना जड़ कार्य नहीं कर सकती । जैसे निरवयव अंगना से आलिंगन नहीं होता, संकल्प के रचे आकाश के वन की छाया से नीचे कोई नहीं बैठता और मृगतृष्णा के जल से कोई तृप्त नहीं होता तैसे ही जड़रूप मन क्रिया नहीं कर सकता । जैसे सूर्य की धूप से मृग तृष्णा की नदी भासती है तैसे ही चित्तकलना के फुरने से जगत् भासता है । शरीर में जो स्पन्दशक्ति भासती है वही प्राणशक्ति है और प्राणों से ही बोलता, चलता, बैठता है । ज्ञानरूप संवित् जो आत्मतत्त्व है उससे कुछ भिन्न नहीं, जब संकल्पकला फुरती है तब अहं’ ‘त्वंइत्यादिक कलना से वही रूप हो जाता है और जब आत्मा और प्राण का फुरना इकट्ठा होता है अर्थात् प्राणों से चेतन संवित् मिलता है तब उसका नाम जीव होता है । और बुद्धि, चित्त, मन, सब उसी के नाम है । सब संज्ञा अज्ञान से कल्पित होती हैं । अज्ञानी को जैसे भासती है, तैसे ही उसको है, परमार्थ से कुछ हुआ नहीं, न मन है, न बुद्धि है, न शरीर है केवल आत्मामात्र अपने आप में स्थित है-द्वैत नहीं । सब जगत् आत्मरूप है और काल क्रिया भी सब अल्परूप है, आकाश से भी निर्मल, अस्ति नास्ति सब वही रूप है और द्वितीय फुरने से रहित है इस कारण है और नहीं ऐसा स्थित है और सब रूप से सत्य है । आत्मा सब पदों से रहित है इस कारण असत्य की नाईं है और अनुभवरूप है इससे सत्य है और सब कलनाओं से रहित केवल अनुभवरूप है । ऐसे अनुभव का जहाँ ज्ञान होता है वहाँ मन क्षीण हो जाता है- जैसे जहाँ सूर्य का प्रकाश होता है वहाँ अन्धकार क्षीण हो जाता है । जब आत्मसत्ता में संवित् करके इच्छा फुरती है तो वह संकल्प के सम्मुख हुई थोड़ी भी बड़े विस्तार को पाती है, तब चित्तकला को आत्मस्वरूप विस्मरण हो जाता है, जन्मों की चेष्टा से जगत् स्मरण हो आता है और परम पुरुष को संकल्प से तन्मय होने करके चित्त नाम कहाता है । जब चित्तकला संकल्प से रहित होती है तब मोक्षरूप होता है । चित्तकला फुरने का नाम चित्त और मन कहते हैं और दूसरी वस्तु कोई नहीं । एकता मात्र ही चित्त का रूप है और सम्पूर्ण संसार का बीज मन है । संकल्प के सम्मुख हो करके चेतन संवित् का नाम मन होता है और निर्विकल्प जो चित्तसत्ता है वह संकल्प करके मलीन होती है तब उसको कलना कहते हैं । वही मन जब घटादिक की नाईं परिच्छिन्न भेद को प्राप्त होता हे तब क्रियाशक्ति से अर्थात् प्राण और ज्ञान शक्ति से मिलता है, उस संयोग का नाम संकल्प विकल्प का कर्त्ता मन होता है । वही जगत् का बीज है और उसके लीन करमने के दो उपाय हैं-एक तत्त्वज्ञान दूसरा प्राणों का रोकना । जब प्राणशक्ति का निरोध होता है तब भी मन लीन हो जाता है और जब सत्य शास्त्रों के द्वारा ब्रह्म तत्त्व का ज्ञान होता है तो भी लीन हो जाता है । प्राण किसका नाम है और मन किसको कहते हैं? हृदयकोश से निकलकर जो बाहर आता है और फिर बाहर से भीतर आता है वह प्राण है, शरीर बैठा है और वासना से जो देश देशान्तर भ्रमताहै उसका नाम मन होता है, उसको वैराग और योगाभ्यास से वासना से रहित करना और प्राणवायु को स्थित करना ये दोनों उपाय हैं। हे रामजी! जब तत्त्वज्ञान होता है तब मन स्थित हो जाता है क्योंकि प्राण और चित्तकला का आपस में वियोग होता है और जब प्राण स्थित होता है तब भी मन स्थिर हो जाता है, क्योंकि प्राण स्थित हुए चेतनकला से नहीं मिलते तब मन भी स्थित हो जाता है और नहीं रहता । मन चेतनकला और प्राण फुरने बिना नहीं रहता । मन को भी अपनी सत्ताशक्ति कुछ नहीं, स्पन्दरूप जो शक्ति है वह प्राणों को है सो चलरूप जड़ात्मक है और आत्मसत्ता चेतनरूप है और वह अपने आपमें स्थित है । चेतनशक्ति और स्पन्दशक्ति के सम्बन्ध होनेसे मन उपजा है सो उस मन का उपजना भी मिथ्या है । इसी का नाम मिथ्याज्ञान है । हे रामजी! मैंने तुमसे अविद्या जो परम अज्ञानरूप संसाररूपी विष के देनेवाली है कही है । चित्त शक्ति और स्पन्दशक्ति का सम्बन्ध संकल्प से कल्पित है, जो तुम संकल्प न उठाओ तो मन संज्ञा क्षीण हो जावेगी । इससे संसार भ्रम से भयमान् मत हो जब स्पन्दरूप प्राण को चित्तसत्ता चेतती है तब चेतने से मन चित्तरूप को प्राप्त होता है और अपने फुरने से दुःख प्राप्त होता है जैसे बालक अपनी परछाहीं में वैताल कल्प कर भयवान् होता है । अखण्ड मण्डलाकार जो चेतनसत्ता सर्वगत है उसका सम्बन्ध किस के साथ हो और अखण्ड शक्ति उन्निद्ररूप आत्मा को कोई इकट्ठा नहीं कर सकता इसी कारण सम्बन्ध का अभाव है । जो सम्बन्ध ही नहीं तो मिलना किससे हो और मिलाप न हुआ तो मन की सिद्धता क्या कहिये? चित्त और स्पन्द की एकता मन कहाती है मन और कोई वस्तु नहीं । जैसे रथ, घोड़ा, हस्ति प्यादा इनके सिवा सेना का रूप और कुछ नहीं, तैसे ही चित्त स्पन्द के सिवा मन का रूप और कुछ नहीं-इस कारण दुष्टरूप मन के समान तीनों लोकों में कोई नहीं सम्यक्‌ज्ञान हो तब मृतकरूप मन नष्ट हो जाता है मिथ्या अनर्थ का कारण चित्त है इसको मत धरो अर्थात् संकल्प का त्याग करो ।हे रामजी! मन का उपजना परमार्थ से नहीं । संकल्प का नाम मन है इस कारण कुछ है नहीं । जैसे मृगतृष्णा की नदी मिथ्या भासती है तैसे ही मन मिथ्या है हृदयरूपी मरुस्थल है, चेतनरूपी सूर्य है और मन रूपी मृगतृष्णा का जल भासता है । जब सम्यक्‌ज्ञान होता है तब इसका अभाव हो जाता है । मन जड़ता से निःस्वरूप है और सर्वदा मृतकरूप है उसी मृतक ने सब लोगों को मृतक किया है । यह बड़ा आश्चर्य है कि अंग भी कुछ नहीं, देह भी नहीं और न आधार है, न आधेय है पर जगत् को भक्षण करता है और बिना जाल के लोगों को फँसाये है । सामग्री से बल, तेज, विभूति, हस्त पदादि रहित लोगों को मारता है, मानों कमल के मारने से मस्तक फट जाता है । जो जड़ मूक अधम हैं वे पुरुष ऐसे मानते हैं कि हम बाँधे हैं, मानों पूर्णमासी के चन्द्रमा की किरणों से जलते हैं । जो शूरमा होते हैं वे उसको हनन करते हैं । जो अविद्यमान मन है उसी ने मिथ्या ही जगत् को मारा है और मिथ्या संकल्प और उदय और स्थित हुआ है । ऐसा दुष्ट है जो किसी ने उस को देखा नहीं । मैंने तुमसे उसकी शक्ति कही है सो बड़ा आश्चर्यरूप विस्तृतरूप है, चञ्चल असत्‌रुप चित्त से मैं विस्मित हुआ हूँ । जो मूर्ख है वह सब आपदा का पात्र है कि मन है नहीं पर उससे वह इतना दुःख पाता है । बड़ा कष्ट है कि सृष्टि मूर्खता से चली जाती है और सब मन से तपते हैं । यह मैं मानता हूँ कि सब जगत् मूढ़रूप है और तृष्णारूपी शस्त्र से कण कण हो गया है, पैलवरूप है जो कमल से विदारण हुआ है, चन्द्रमा की किरणों से दग्ध हो गये हैं, दृष्टिरूपी शस्त्र से बेधे हैं और संकल्प रूपी मन से मृतक हो गये हैं । वास्तव में कुछ नहीं, मिथ्या कल्पना से नीच कृपण करके लोगों को हनन किया है, इससे वे मूर्ख हैं । मूर्ख हमारे उपदेश योग्य नहीं, उपदेश का अधिकारी जिज्ञासु है । जिसको स्वरूप का साक्षात्कार नहीं हुआ पर संसार से उपराम हुआ है, मोक्ष की इच्छा रखता है और पद पदार्थ का ज्ञाता है वही उपदेश करने योग्य है । पूर्ण ज्ञानवान् को उपदेश नहीं बनता और अज्ञानी मूर्ख को भी नहीं बनता । मूर्ख वीणा की धुनि सुनकर भयवान् होता है और बान्धव निद्रा में सोया पड़ा है, उसको मृतक जानके भयवान् होता है और स्वप्न में हाथी को देखकर भय से भागता है । इस मन ने अज्ञानियों को वश किया है और भोगों का लव जो तुच्छ सुख है उसके निमित्त जीव अनेक यत्न करते हैं और दुःख पाते हैं हृदय में स्थित जो अपना स्वरूप है उसको वे नहीं देख सकते और प्रमाद से अनेक कष्ट पाते हैं । अज्ञानी जीव मिथ्या ही मोहित होते हैं ।