पूज्य बापूजी के दिव्य दर्शन और भारतीय संस्कृति का सर्वहितकारी ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

Tuesday, August 31, 2010

कृष्णाश्रय - Krishanashray

श्रीवल्लभाचार्य जी - Shri Vallabhacharyaji 

सर्वमार्गेषु नष्टेषु कलौ च खलधर्मिणि।
पाषण्डप्रचुरे लोके कृष्ण एव गतिर्मम॥१॥

कलियुग में धर्म के सभी मार्ग नष्ट हो गए हैं, विश्व में अधर्म और पाखंड का बाहुल्य है, ऐसे समय में केवल श्रीकृष्ण ही मेरा आश्रय हैं॥1॥


म्लेच्छाक्रान्तेषु देशेषु पापैकनिलयेषु च।
सत्पीडाव्यग्रलोकेषु कृष्ण एव गतिर्मम॥२॥

दुर्जनों से आक्रांत (परेशान) देशों में, पाप पूर्ण स्थानों में, सज्जनों की पीड़ा से व्यग्र संसार में केवल श्रीकृष्ण ही मेरा आश्रय हैं॥2॥


गंगादितीर्थवर्येषु दुष्टैरेवावृतेष्विह।
तिरोहिताधिदेवेषु कृष्ण एव गतिर्मम॥३॥

गंगा आदि प्रमुख तीर्थ भी दुष्टों द्वारा घिरे हुए हैं, प्रत्यक्ष देवस्थान लुप्त हो गए हैं, ऐसे समय में केवल श्रीकृष्ण ही मेरा आश्रय हैं॥3॥


अहंकारविमूढेषु सत्सु पापानुवर्तिषु।
लोभपूजार्थयत्नेषु कृष्ण एव गतिर्मम॥४॥

अहंकार से मोहित हुए सज्जन व्यक्ति भी पाप का अनुसरण कर रहे हैं और लोभ वश ही पूजा करते हैं, ऐसे समय में केवल श्रीकृष्ण ही मेरा आश्रय हैं॥4॥


अपरिज्ञाननष्टेषु मन्त्रेष्वव्रतयोगिषु।
तिरोहितार्थवेदेषु कृष्ण एव गतिर्मम॥५॥

मंत्र ज्ञान नष्ट हो गया है, योगी नियमों का पालन न करने वाले हो गए हैं, वेदों का वास्तविक अर्थ लुप्त हो गया है, ऐसे समय में केवल श्रीकृष्ण ही मेरा आश्रय हैं॥5॥


नानावादविनष्टेषु सर्वकर्मव्रतादिषु।
पाषण्डैकप्रयत्नेषु कृष्ण एव गतिर्मम॥६॥

भिन्न-भिन्न प्रकार के मतों के कारण शुभ कर्म और व्रत आदि का नाश हो गया है, पाखंडपूर्ण कर्मों का ही आचरण हो रहा है, ऐसे समय में केवल श्रीकृष्ण ही मेरा आश्रय हैं॥6॥


अजामिलादिदोषाणां नाशकोऽनुभवे स्थितः।
ज्ञापिताखिलमाहात्म्यः कृष्ण एव गतिर्मम॥७॥

आपका नाम अजामिल आदि के दोषों का नाश करने वाला है, ऐसा सबने सुना है, आपके ऐसे संपूर्ण माहात्म्य को जानने के बाद, केवल आप श्रीकृष्ण ही मेरा आश्रय हैं॥7॥


प्राकृताः सकल देवा गणितानन्दकं बृहत्।
पूर्णानन्दो हरिस्तस्मात्कृष्ण एव गतिर्मम॥८॥

सभी देवता प्रकृति के अंतर्गत हैं, विराट का आनंद भी सीमित है, केवल श्रीहरि पूर्ण आनंद स्वरुप हैं, अतः केवल श्रीकृष्ण ही मेरा आश्रय हैं॥8॥


विवेकधैर्यभक्त्यादिरहितस्य विशेषतः।
पापासक्तस्य दीनस्य कृष्ण एव गतिर्मम॥९॥

विवेक, धैर्य, भक्ति आदि से रहित, विशेष रूप से पाप में आसक्त मुझ दीन के लिए केवल श्रीकृष्ण ही आश्रय हैं॥9॥


सर्वसामर्थ्यसहितः सर्वत्रैवाखिलार्थकृत्।
शरणस्थमुद्धारं कृष्णं विज्ञापयाम्यहम्॥१०॥

अनंत सामर्थ्यवान, सर्वत्र सभी प्रकार की मनोकामना पूर्ण करने वाले, शरणागतों का उद्धार करने वाले श्रीकृष्ण की मैं वंदना करता हूँ॥10॥


कृष्णाश्रयमिदं स्तोत्रं यः पठेत्कृष्णसन्निधौ।
तस्याश्रयो भवेत्कृष्ण इति श्रीवल्लभोऽब्रवीत्॥११॥

श्रीकृष्ण के आश्रय में और उनकी मूर्ति के समीप जो इस स्तोत्र का पाठ करता है उसके आश्रय श्रीकृष्ण हो जाते हैं, ऐसा श्रीवल्लभाचार्य का कथन है॥11॥



Saturday, August 21, 2010



श्री विष्णुपुराण - Shri Vishnu Puran

द्वितीय अंश अध्याय 14 - 2nd ansh adhyay 14

श्रीपराशर उवाच
निशम्य तस्येति वचः परमार्थसमन्वितम् । प्रश्रयावनतो भूत्वा तमाह नृपतिर्द्विजम् ॥१॥

श्रीपराशरजी बोले - 
उनके ये परमार्थमय वचन सुनकर राजाने विनयावनत होकर उन विप्रवरसे कहा ॥1॥


राजोवाच
भगवन्यत्त्वया प्रोक्त परमार्थमयं वचः । श्रुते तस्मिन्भ्रन्तीव मनसो मम वृत्तयः ॥२॥

राजा बोले - 
भगवान् ! आपने जो परमार्थमय वचन कहे हैं उन्हें सुनकर मेरी मनोवृत्तियाँ भ्रान्त-सी हो गयीं है ॥2॥

एतद्विवेकविज्ञानं यदशेषेषु जन्तुषु । भवता दर्शितं विप्र तप्तरं प्रकृतेर्महत् ॥३॥

हे विप्र ! आपने सम्पूर्ण जीवों में व्याप्त जिस असंग विज्ञान का दिग्दर्शन कराया है वह प्रकृति से परे ब्रह्मा ही है ( इसमें मुझे कोई सन्देह नहीं है ) ॥3॥


नाहं वहामि शिबिकां शिबिका न मयि स्थिता । शरिरमनुयदस्मत्तो येनेयं शिबिका धृता ॥४॥
गुणप्रवृत्त्या भूतानां प्रवृत्तिः कर्मचोदिता । प्रवर्तन्ते गुणा ह्योते किं ममेति त्वयोदितम् ॥५॥

परंतु आपने जो कहा कि मैं शिबिका को वहन नहीं कर रहा हूँ, शिबिका मेरे ऊपर नहीं है, जिसने इसे उठा रखा हैं वह शरीर मुझसे अत्यन्त पृथक् है । जीवोंकी प्रवृत्ति गुणों ( सत्व, रज, तम ) की प्रेरणा से होती है और गुण कर्मों से प्रेरित होकर प्रवृत्त होते हैं - इसमें मेरा कर्तुत्त्व कैसे माना जा सकता हैं ? ॥4-5॥


एतस्मिन्पमार्थज्ञ मम श्रोत्रपथं गते । मनो विह्वलतामेति परमार्थाथितां गतम् ॥६॥

हे परमार्थज्ञ ! यह बात मेरे कानों में पड़ते ही मेरा मन परमार्थ का जिज्ञासु होकर बड़ा उतावला हो रहा है ॥6॥


पूर्वमेव महाभागं कपिलर्षिमहं द्विज । प्रष्टुमभ्युद्यतो गत्वा श्रेयः किं त्वत्र शंस मे ॥७॥

हे द्विज ! मैं तो पहले ही महाभाग कपिलमुनि से यह पूछने के लिये कि बताइये 'संसारमें मनुष्यों का श्रेय किसमें है;' उसने पास जाने को तत्पर हुआ हूँ ॥7॥


तदन्तरे च भवता यदेतद्वाक्यमीरितम् । तेनैव परमार्थार्थं त्वयि चेतः प्रधावति ॥८॥

किन्तु बीच ही में आपने जो वाक्य कहे हैं उन्हें सुनकर मेरा चित्त परमार्थ-श्रवण करनेके लिये आपकी और झुक गया है ॥8॥


कपिलर्षिर्भवतः सर्वभूतस्य वै द्विज । विष्णोरंशो जगन्मोहनाशायोर्वीमुपागतः ॥९॥

हे द्विज ! ये कपिलमुनि सर्वभुत भगवान विष्णु के ही अंश हैं । इन्होंने संसार का मोह दूर करने के लिये ही पृथ्वी पर अवतार लिया है ॥9॥


स एव भगवान्नुनस्माकं हितकाम्यया । प्रत्यक्षतामत्र गतो यथैतद्भवतोच्यते ॥१०॥

किन्तु आप जो इस प्रकार भाषण कर रहे हैं उससे मुझे निश्चय होता हैं कि वे ही भगवान् कपिलदेव मेरे हितकी कामना से यहाँ आपके रूप में प्रकट हो गये हैं ॥10॥
तन्मह्यां प्रणताय त्वं यच्छ्रेयः परमं द्विज । तद्वदाखिलविज्ञानजलवीच्युदधिर्भवान् ॥११॥
अतः हे द्विज ! हमारा जो परम श्रेय हो वह आप मुझ विनीत से कहिये । हे प्रभो! आप सम्पूर्ण विज्ञान – तरंगो के मानो समुद्र ही हैं ॥11॥


ब्राह्मण उवाच
ब्राह्मण बोले
भ्रूप पृच्छसि किं श्रेयः परमार्थ नु पृच्छसि । श्रेयांस्यपरमाथानि अशेषाणि च भूपते ॥१२॥

हे राजन् ! तुम श्रेय पूछना चाहते हो या परमार्थ ? क्योंकि हे भूपते ! श्रेय तो सब अपारमार्थिक ही हैं ॥12॥


देवताराधनं कृत्वा धनसम्पदमिच्छति । पुत्रानिच्छति राज्यं च श्रेयस्तस्यैव तन्नृप ॥१३॥

हे नृप ! जो पुरुष देवताओं की आराधना करके धन, सम्पत्ति, पुत्र और राज्यादि की इच्छा करता है उसके लिये तो वे ही परम श्रेय हैं ॥13॥


कर्म यज्ञात्मकं श्रेयः फलं स्वर्गात्पिलक्षणम् । श्रेयः प्रधानं च फले तदेवानभिसंहिते ॥१४॥

जिसका फल स्वर्गलोक की प्राप्ति है वह यज्ञात्मक कर्म भी श्रेय है: किन्तु प्रधान श्रेय तो उसके फल का इच्छा न करने में ही हैं ॥14॥


आत्मा ध्येयः सदा भूप योगयुक्तैस्तथा परम् । श्रेयस्तस्यैव संयोगः श्रेयो यः परमात्मनः ॥१५॥

अतः हे राजन् । योगयुक्त पुरुषो कों प्रकृति आदि से अतीत उस आत्मा का ही ध्यान करना चाहिये, क्योंकी उस परमात्मा का संयोगरूप श्रेय ही वास्तविक श्रेय है ॥15॥

श्रेयांस्येवमनेकानि शतशोऽथ सहस्त्रशः । सन्त्यत्र परमार्थस्तु न त्वेते श्रुयतां च मे ॥१६॥

इस प्रकार श्रेय तो सैकड़ो - हजारों प्रकार के अनेकों हैं, किंतु ये सब परमार्थ नहीं हैं । अब जो परमार्थ है सो सुनो ॥16॥


धर्माय त्यज्यते किन्नु परमार्था धनं यदि । व्यवश्च क्रियते कस्मात्कामप्राप्त्युपलक्षणः ॥१७॥

यदि धन ही परमार्थ है तो धर्मके लिये उसका त्याग क्यों किया जाता हैं ? तथा इच्छित भोगों की प्राप्ति के लिये उसका व्यय क्यों किया जात हैं ? ( अतः वह परमार्थ नहीं है ) ॥17॥


पुत्रश्चैत्परमार्थः स्यात्सोऽप्यन्यस्य नरेश्वर । परमार्थभूतः सोऽन्यस्य परमार्थो हि तप्तिता ॥१८॥

हे नरेश्वर ! यदि पुत्र को परमार्थ कहा जाय तो वह तो अन्य ( अपने पिता ) का परमार्थभूत है, तथा उसका पिता भी दुसरे का पुत्र होने के कारण उस ( अपने पिता ) का परमार्थ होगा ॥18॥


एवं न परमार्थोऽस्ति जगत्यस्मित्र्चराचरे परमार्थो हो कार्याणि कार्णानामशेषतः ॥१९॥

अतः इस चराचर जगत् ‌में पिता का कार्यरूप पुत्र भी परमार्थ नहीं है । क्योंकि फिर तो सभी कारणों के कार्य परमार्थ हो जायँगे ॥19॥


राज्यादिप्राप्तिरत्रोक्ता परर्मार्थतया यदि । परमार्था भवन्त्यत्र न भवन्ति च वै ततः ॥२०॥

यदि संसार में राज्यादि की प्राप्ति को परमार्थ कहा जाय तो ये कभी रहते हैं और कभी नहीं रहते । अतः परमार्थ भी आगमापायी हो जायगा । ( इसलिये राज्यादि भी परमार्थ नहीं हो सकते ) ॥20॥


ऋग्यजुः सामनिष्पाद्यं यज्ञकर्म मतं तव । परमार्थभूतं तत्रापि श्रूयतां गदतो मम ॥२१॥

यदि ऋक् , यजुः और सामरूप वेदत्रयी से सम्पन्न होनेवाले यज्ञकर्म को परमार्थ मानते हो तो उसके विषय में मेरा ऐसा विचार हैं - ॥21॥


यत्तु निष्पाद्यते कार्य मृदा कारणभूतया । तत्कारणानुगमनाज्ज्ञायते नृप मृण्मयम् ॥२२॥

हे नृप ! जो वस्तु कारणरूपा मृत्तिका का कार्य होती है वह कारण की अनुगामिनी होनेसे मृत्तिकारूप ही जानी जाती हैं ॥22॥


एवं निनाशिभिर्द्रव्यैः समिदाज्यकुशादिभिः । निष्पाद्यते क्रिया या तु सा भवित्री विनाशिनी ॥२३॥

अतः जो क्रिया समिध, घृत और कुशा आदि नाशवान् द्रव्यों से सम्पन्न होती है वह भी नाशवान ही होगी ॥23॥


अनाशी परमार्थश्च प्राज्ञैरभ्युपगम्यते । तत्तु नाशि न सन्देहो नाशिद्रव्योपपादितम् ॥२४॥

किन्तु परमार्थ को तो प्राज्ञ पुरुष अविनाशी बतलातें हैं और नाशवान् द्रव्यों से निष्पन्न होने के कारण कर्म (अथवा उनसे निष्पन्न होने वाले स्वर्गादि) नाशवान् ही हैं - इसमें सन्देह नहीं ॥24॥


तदेवाफलदं कर्म परमार्थो मतस्तव । मुक्तिसाधनभूतत्वात्परमार्थो न साधनम् ॥२५॥

यदि फलशा सें रहित निष्कामकर्म को परमार्थ मानते हो तो वह तो मुक्तिरूप फल का साधन होने से साधन ही है, परमार्थ नहीं ॥25॥


ध्यानं चैवात्मनो भूप परमार्थार्थशब्दितम् । भेदकारि परेभ्यस्तु परमर्थो न भेदवान् ॥२६॥

यदि देहादि से आत्मा का पार्थक्य विचारकर उसके ध्यान करने को परमार्थ कहा जाय तो वह तो अनात्मा से आत्मा का भेद करनेवाला है और परमार्थ में भेद हैं नहीं ( अतः वह भी परमार्थ नहीं हो सकता ) ॥26॥


परमात्मात्मनोर्योगः परमार्थ इतीष्यते । मिथ्यैतदन्यद्‍द्रव्यं हि नैति तद्‌द्रव्यतां यतः ॥२७॥

यदि परमात्मा और जीवात्मा के संयोग को परमार्थ कहें तो ऐसा कहना सर्वथा मिथ्या हैं, क्योंकी अन्य द्रव्यसे अन्य द्रव्य की एकता कभी नहीं हो सकती* ॥27॥
( * अर्थात् यदि आत्मा परमात्मा से भिन्न है तब तो गौ और अश्व के समान उनकी एकता हो नहीं सकती और यदि बिम्ब- प्रतिबिम्ब की भाँति अभिन्न है तो उपाधिक निराकार के अतिरिक्त और उनका संयोग ही क्या होगा ? )


तस्माच्छ्रेयांस्यषाणि नृपैतानि न संशयः । परमार्थस्तु भूपाल संक्षेपाच्छूयतां मम ॥२८॥

अतः हे राजन् निःसन्देह ये सब श्रेय ही हैं, ( परमार्थ नहीं ) अब जो परमार्थ है वह मैं संक्षेप से सुनाता हूँ, श्रवण करो ॥28॥


एको व्यापी समः शुद्धो निर्गुणः प्रकृतेः परः । जन्मवृद्धयादिरहित आत्मा सर्वगतोऽव्ययः ॥२९॥

आत्मा एक, व्यापक, सम, शुद्ध, निर्गुण और प्रकृति से परे हैं; वह जन्म-वृद्धि आदि से रहित, सर्वव्यापी और अव्यय है ॥29॥


परज्ञानमयोऽसद्भिर्नामजात्यादिभिर्विभुः । न योगवान्न युक्तोऽभून्नैव पार्थिव योक्ष्यते ॥३०॥

हे राजन् ! वह परम ज्ञानमय है, असत नाम और जाति आदि से उस
सर्वव्यापक का संयोग न कभी हुआ, न है और न होगा ॥30॥


तस्यात्मपरदेहेषु सतोऽप्येकमयं हि यत् । विज्ञानं परमार्थोऽसौ द्वैतिनोऽतथ्यदर्शिनः ॥३१॥

‘वह, अपने और अन्य प्राणियों के शरीर में विद्यमान रहते हुए भी, एक ही हैं' - इस प्रकार का जो विशेष ज्ञान है वही परमार्थ है; द्वैत भावनावाले पुरुष तो अपरमार्थदर्शी हैं ॥31॥


वेणुरन्ध्रुप्रभदेन भेदः षड्‌जादिसंज्ञितः । अभेदव्यापिनो वायोस्तथास्य परमात्मनः ॥३२॥

जिस प्रकार अभिन्न भाव से व्याप्त एक ही वायु के बाँसुरी के छिद्रो के भेद से षड्‌ज आदि भेद होते हैं उसी प्रकार ( शरीरादि उपाधियों के कारण ) एक ही परमात्मा के ( देवतामनुष्यादि ) अनेक भेद प्रतीत होते हैं ॥32॥


एकस्वरूपभेदश्च बाह्यकर्मप्रवृत्तिजः । देवादि भेदेऽपध्वस्ते नास्त्येवावरणे हि सः ॥३३॥

एकरूप आत्मा के जो नाना भेद हैं वे बाह्य देहादि की कर्मप्रवृत्ति के कारण ही हुए हैं । देवादि शरीरों के भेद का निराकारण हो जाने पर वह नहीं रहता । उसकी स्थिति तो अविद्या के आवरण तक ही है ॥33॥

इति श्रीविष्णुपुराणे द्वितीयेंऽशे चतुर्दशोऽध्यायः ॥१४॥

Tuesday, August 10, 2010


निर्वाणषटकम् - Nivaranshatkam

श्रीमद् आद्य शंकराचार्य जी - Shri Shankracharyaji

मनोबुद्ध्यहंकारचित्तानि नाहं
न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे।
न च व्योमभूमिर्न तेजो न वायुः
चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥१॥

मैं मन, बुद्धि, अहंकार और स्मृति नहीं हूँ, न मैं कान, जिह्वा, नाक और आँख हूँ। न मैं आकाश, भूमि, तेज और वायु ही हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ ॥1॥


न च प्राणसंज्ञो न वै पञ्चवायुः
न वा सप्तधातुर्न वा पञ्चकोशाः।
न वाक्पाणिपादं न चोपस्थपायू
चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥२॥

न मैं मुख्य प्राण हूँ और न ही मैं पञ्च प्राणों (प्राण, उदान, अपान, व्यान, समान) में कोई हूँ, न मैं सप्त धातुओं (त्वचा, मांस, मेद, रक्त, पेशी, अस्थि, मज्जा) में कोई हूँ और न पञ्च कोशों (अन्नमय, मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय, आनंदमय) में से कोई, न मैं वाणी, हाथ, पैर हूँ और न मैं जननेंद्रिय या गुदा हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ ॥2॥


न मे द्वेषरागौ न मे लोभ मोहौ
मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः।
न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्षः
चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥३॥

न मुझमें राग और द्वेष हैं, न ही लोभ और मोह, न ही मुझमें मद है न ही ईर्ष्या की भावना, न मुझमें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ही हैं, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ ॥3॥


न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखम्
न मंत्रो न तीर्थ न वेदा न यज्ञाः।
अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता
चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥४॥

न मैं पुण्य हूँ, न पाप, न सुख और न दुःख, न मन्त्र, न तीर्थ, न वेद और न यज्ञ, मैं न भोजन हूँ, न खाया जाने वाला हूँ और न खाने वाला हूँ, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ ॥4॥


न मे मृत्युशंका न मे जातिभेदः
पिता नैव मे नैव माता न जन्म।
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यः
चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥५॥

न मुझे मृत्यु का भय है, न मुझमें जाति का कोई भेद है, न मेरा कोई पिता ही है, न कोई माता ही है, न मेरा जन्म हुआ है, न मेरा कोई भाई है, न कोई मित्र, न कोई गुरु ही है और न ही कोई शिष्य, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ ॥5॥


अहं निर्विकल्पो निराकाररूपः
विभुर्व्याप्य सर्वत्र सर्वेन्द्रियाणाम्।
सदा मे समत्वं न मुक्तिर्न बन्धः
चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम्॥६॥

मैं समस्त संदेहों से परे, बिना किसी आकार वाला, सर्वगत, सर्वव्यापक, सभी इन्द्रियों को व्याप्त करके स्थित हूँ, मैं सदैव समता में स्थित हूँ, न मुझमें मुक्ति है और न बंधन, मैं चैतन्य रूप हूँ, आनंद हूँ, शिव हूँ, शिव हूँ ॥6॥