पूज्य बापूजी के दिव्य दर्शन और भारतीय संस्कृति का सर्वहितकारी ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

Sunday, November 27, 2011

श्रीरामचरितमानस - Shri RamCharitManas
उत्तरकाण्ड  -  भजन महिमा - UttarKand Bhajan Mahima

रघुपति भगति सजीवन मूरी। अनूपान श्रद्धा मति पूरी॥
एहि बिधि भलेहिं सो रोग नसाहीं। नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं॥4॥ 
रघुनाथजी की भक्ति संजीवनी जड़ी है। श्रद्धा से पूर्ण बुद्धि ही अनुपान (दवा के साथ लिया जाने वाला मधु आदि) है। इस प्रकार का संयोग हो तो वे रोग भले ही नष्ट हो जाएँ, नहीं तो करोड़ों प्रयत्नों से भी नहीं जाते॥4॥

जानिअ तब मन बिरुज गोसाँई। जब उर बल बिराग अधिकाई॥
सुमति छुधा बाढ़इ नित नई। बिषय आस दुर्बलता गई॥5॥ 
हे गोसाईं! मन को निरोग हुआ तब जानना चाहिए, जब हृदय में वैराग्य का बल बढ़ जाए, उत्तम बुद्धि रूपी भूख नित नई बढ़ती रहे और विषयों की आशा रूपी दुर्बलता मिट जाए॥5॥

बिमल ग्यान जल जब सो नहाई। तब रह राम भगति उर छाई॥
सिव अज सुक सनकादिक नारद। जे मुनि ब्रह्म बिचार बिसारद॥6॥
इस प्रकार सब रोगों से छूटकर जब मनुष्य निर्मल ज्ञान रूपी जल में स्नान कर लेता है, तब उसके हृदय में राम भक्ति छा रहती है। शिवजी, ब्रह्माजी, शुकदेवजी, सनकादि और नारद आदि ब्रह्मविचार में परम निपुण जो मुनि हैं,॥6॥

सब कर मत खगनायक एहा। करिअ राम पद पंकज नेहा॥
श्रुति पुरान सब ग्रंथ कहाहीं। रघुपति भगति बिना सुख नाहीं॥7॥
हे पक्षीराज! उन सबका मत यही है कि श्री रामजी के चरणकमलों में प्रेम करना चाहिए। श्रुति, पुराण और सभी ग्रंथ कहते हैं कि श्री रघुनाथजी की भक्ति के बिना सुख नहीं है॥7॥

कमठ पीठ जामहिं बरु बारा। बंध्या सुत बरु काहुहि मारा॥
फूलहिं नभ बरु बहुबिधि फूला। जीव न लह सुख हरि प्रतिकूला॥8॥
कछुए की पीठ पर भले ही बाल उग आवें, बाँझ का पुत्र भले ही किसी को मार डाले, आकाश में भले ही अनेकों प्रकार के फूल खिल उठें, परंतु श्री हरि से विमुख होकर जीव सुख नहीं प्राप्त कर सकता॥8॥

तृषा जाइ बरु मृगजल पाना। बरु जामहिं सस सीस बिषाना॥
अंधकारु बरु रबिहि नसावै। राम बिमुख न जीव सुख पावै॥9॥
मृगतृष्णा के जल को पीने से भले ही प्यास बुझ जाए, खरगोश के सिर पर भले ही सींग निकल आवे, अन्धकार भले ही सूर्य का नाश कर दे, परंतु श्री राम से विमुख होकर जीव सुख नहीं पा सकता॥9॥

हिम ते अनल प्रगट बरु होई। बिमुख राम सुख पाव न कोई॥10॥
बर्फ से भले ही अग्नि प्रकट हो जाए (ये सब अनहोनी बातें चाहे हो जाएँ), परंतु श्री राम से विमुख होकर कोई भी सुख नहीं पा सकता॥10॥

दोहा :
बारि मथें घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल।
बिनु हरि भजन न तव तरिअ यह सिद्धांत अपेल॥122 क॥
जल को मथने से भले ही घी उत्पन्न हो जाए और बालू (को पेरने) से भले ही तेल निकल आवे, परंतु श्री हरि के भजन बिना संसार रूपी समुद्र से नहीं तरा जा सकता, यह सिद्धांत अटल है॥122 (क)॥

मसकहि करइ बिरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन।
अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं प्रबीन॥122 ख॥
प्रभु मच्छर को ब्रह्मा कर सकते हैं और ब्रह्मा को मच्छर से भी तुच्छ बना सकते हैं। ऐसा विचार कर चतुर पुरुष सब संदेह त्यागकर श्री रामजी को ही भजते हैं॥122 (ख)॥

श्लोक :
विनिश्चितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे।
हरिं नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते॥122 ग॥
मैं आपसे भली-भाँति निश्चित किया हुआ सिद्धांत कहता हूँ- मेरे वचन अन्यथा (मिथ्या) नहीं हैं कि जो मनुष्य श्री हरि का भजन करते हैं, वे अत्यंत दुस्तर संसार सागर को (सहज ही) पार कर जाते हैं॥122 (ग)॥

चौपाई :
कहेउँ नाथ हरि चरित अनूपा। ब्यास समास स्वमति अनुरूपा॥
श्रुति सिद्धांत इहइ उरगारी। राम भजिअ सब काज बिसारी॥1॥
हे नाथ! मैंने श्री हरि का अनुपम चरित्र अपनी बुद्धि के अनुसार कहीं विस्तार से और कहीं संक्षेप से कहा। हे सर्पों के शत्रु गरुड़जी ! श्रुतियों का यही सिद्धांत है कि सब काम भुलाकर (छोड़कर) श्री रामजी का भजन करना चाहिए॥1॥

प्रभु रघुपति तजि सेइअ काही। मोहि से सठ पर ममता जाही॥
तुम्ह बिग्यानरूप नहिं मोहा। नाथ कीन्हि मो पर अति छोहा॥2॥
प्रभु श्री रघुनाथजी को छो़ड़कर और किसका सेवन (भजन) किया जाए, जिनका मुझ जैसे मूर्ख पर भी ममत्व (स्नेह) है। हे नाथ! आप विज्ञान रूप हैं, आपको मोह नहीं है। आपने तो मुझ पर बड़ी कृपा की है॥2॥

Wednesday, October 26, 2011



चतुःश्लोकी - Chatushaloki

(श्रीवल्लभाचार्य‎ जी ) - Shri Vallabhacharyaji



सर्वदा सर्वभावेन भजनीयो व्रजाधिपः।
स्वस्यायमेव धर्मो हि नान्यः क्वापि कदाचन॥१॥

सभी समय, सब प्रकार से व्रज के राजा श्रीकृष्ण का ही स्मरण करना चाहिए। केवल यह ही धर्म है, इसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं॥१॥

एवं सदा स्वकर्तव्यं स्वयमेव करिष्यति।
प्रभुः सर्व समर्थो हि ततो निश्चिन्ततां व्रजेत् ॥२॥

इस प्रकार अपने कर्तव्यों का हमेशा पालन करते रहना चाहिए, प्रभु सर्व समर्थ हैं इसको ध्यान रखते हुए निश्चिन्ततापूर्वक रहें॥२॥

यदि श्रीगोकुलाधीशो धृतः सर्वात्मना हृदि।
ततः किमपरं ब्रूहि लोकिकैर्वैदिकैरपि॥३॥

यदि तुमने सबके आत्मस्वरुप गोकुल के राजा श्रीकृष्ण को अपने ह्रदय में धारण किया हुआ है, फिर क्या उससे बढ़कर कोई और सांसारिक और वैदिक कार्य है॥३॥

अतः सर्वात्मना शश्ववतगोकुलेश्वर पादयोः।
स्मरणं भजनं चापि न त्याज्यमिति मे मतिः॥४॥

अतः सबके आत्मस्वरुप गोकुल के शाश्वत ईश्वर श्रीकृष्ण के चरणों का स्मरण और भजन कभी भी छोड़ना नहीं चाहिए, ऐसा मेरा (श्री वल्लभाचार्य का) विचार है॥४॥

Thursday, October 13, 2011


कृष्णाष्टकं - Krishnashtkam

(श्रीवल्लभाचार्य जी) - Shree Vallabhacharyaji

कृष्णप्रेममयी राधा राधाप्रेममयो हरिः।
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम ॥१॥

श्रीराधारानी श्रीकृष्ण प्रेम से ओत प्रोत हैं और श्रीकृष्ण श्रीराधारानी के प्रेम से। जीवन के नित्य धनस्वरुप श्रीराधाकृष्ण मेरा आश्रय हों ॥1॥

कृष्णस्य द्रविणं राधा राधायाः द्रविणं हरिः। 
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम ॥२॥

श्रीकृष्ण का धन श्रीराधारानी जी हैं और श्रीराधारानी जी  का धन श्रीकृष्ण। जीवन के नित्य धनस्वरुप श्रीराधाकृष्ण मेरा आश्रय हों॥2॥  

कृष्णप्राणमयी राधा राधाप्राणमयो हरिः।
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम ॥३॥

श्रीकृष्ण के प्राण श्रीराधारानी जी में बसते हैं और श्रीराधारानी जी के प्राण श्रीकृष्ण में। जीवन के नित्य धनस्वरुप श्रीराधाकृष्ण मेरा आश्रय हों ॥3॥

कृष्णद्रवामयी राधा राधाद्रवामयो हरिः।
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम ॥४॥

श्रीकृष्ण के नाम से श्रीराधारानी जी प्रसन्न होती हैं और श्रीराधारानी जी के नाम से श्रीकृष्ण। जीवन के नित्य धनस्वरुप श्रीराधाकृष्ण मेरा आश्रय हों ॥4॥

कृष्ण गेहे स्थिता राधा राधा गेहे स्थितो हरिः।  
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम ॥५॥

(मन से) श्रीराधारानी जी  श्रीकृष्ण के घर में स्थित हैं और श्रीकृष्ण श्रीराधारानी जी के घर में। जीवन के नित्य धनस्वरुप श्रीराधाकृष्ण मेरा आश्रय हों ॥5॥

कृष्णचित्तस्थिता राधा राधाचित्स्थितो हरिः।
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम ॥६॥

श्रीराधारानी जी के मन में श्रीकृष्ण स्थित हैं और श्रीकृष्ण के मन में श्रीराधारानी जी। जीवन के नित्य धनस्वरुप श्रीराधाकृष्ण मेरा आश्रय हों ॥6॥

नीलाम्बरा धरा राधा पीताम्बरो धरो हरिः।  
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम ॥७॥  

श्रीराधारानी जी नीले वस्त्र धारण करती हैं और श्रीकृष्ण पीले। जीवन के नित्य धनस्वरुप श्रीराधाकृष्ण मेरा आश्रय हों॥7॥

वृन्दावनेश्वरी राधा कृष्णो वृन्दावनेश्वरः।
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम ॥८॥

वृन्दावन की देवी हैं श्रीराधारानी जी और वृन्दावन के देवता हैं श्रीकृष्ण। जीवन के नित्य धनस्वरुप श्रीराधाकृष्ण मेरा आश्रय हों॥8॥

Friday, September 23, 2011


ब्रह्मसूत्र - BrahmSutr

चतुर्थ अध्याय - Chaturt Adhyay
 पहला पाद - Pahla Paad

आवृत्तिर् असकृदुपदेशात् । १ ।
अध्ययन की हुई उपासना का आवर्तन ( बार-बार अभ्यास) करना चाहिएक्योंकि श्रुति में बार-बार इसके लिए उपदेश किया गया है । 1

लिङ्गाच् च । २ ।
स्मृति के वर्णन रूप लिंग (प्रमाण) से भी यही बात सिद्ध होती है । 2
  
आत्मेति तूपगच्छन्ति ग्राहयन्ति च । ३ ।
वह मेरा आत्मा हैइस भाव से ही ज्ञानीजन उसे जानते या प्राप्त करते हैं और ऐसा ही ग्रहण कराते या समझाते हैं । 3
  
न प्रतीके न हि सः । ४ ।
प्रतीक में आत्मभाव नहीं करना चाहिए क्योंकि वह उपासक का आत्मा नहीं है । 4
  
ब्रह्मदृष्टिर् उत्कर्षात् । ५ ।
ब्रह्म ही सर्वश्रेष्ठ हैइसलिए प्रतीक में ब्रह्म दृष्टि करनी चाहिएक्योंकि निकृष्ट वस्तु में ही उत्कृष्ट की भावना की जाती है । 5
  
आदित्यादिमतयश् चाङ्ग उपपत्तेः । ६ ।
तथा कर्माङ्गभूत उद्गीथ आदि में आदित्य आदि की बुद्धि करनी चाहिए । क्योंकि यही युक्ति युक्त हैऐसा करने से कर्म समृद्धि रूप फल की सिद्धि होती है । 6

आसीनः संभवात् । ७ ।
बैठे हुए ही उपासना करनी चाहिए क्योंकि बैठे हुए ही निर्विघ्न उपासना संभव है । 7

ध्यानाच् च । ८ ।
उपासना का स्वरूप ध्यान है । इसलिए भी यही सिद्ध होता है कि बैठकर उपासना करनी चाहिए । 8

अचलत्वं चापेक्ष्य । ९ ।
तथा श्रुति में शरीर की निश्चलता को आवश्यक बताकर ध्यान करने का उपदेश किया गया है । 9

स्मरन्ति च । १० ।
तथा ऐसा ही स्मरण करते हैं । 10

यत्रैकाग्रता तत्राविशेषात् । ११ ।
किसी विशेष स्थान या दिशा का विधान न होने के कारण यही सिद्ध होता है कि जहाँ चित्त की एकाग्रता सुगमता से हो सकेवहीं बैठकर ध्यान का अभ्यास करे । 11

आप्रयाणात् तत्रापि हि दृष्टम् । १२ ।
मरण पर्यन्त उपासना करते रहना चाहिए क्योंकि मरण काल में भी उपासना करते रहने का विधान देखा जाता है । 12

तदधिगम उत्तरपूर्वाघयोर् अश्लेषविनाशौ तद्व्यपदेशात् । १३ ।
उस परब्रह्म परमात्मा के प्राप्त हो जाने पर आगे होने वाले और पहले किए हुए पापों का क्रमशः असंपर्क एवं नाश होता है । क्योंकि श्रुति में यही बात जगह-जगह कही गयी है । 13

इतरस्याप्य् एवम् असंश्लेषः पाते तु । १४ ।
पुण्यकर्म समुदाय का भी इसी प्रकार सम्बन्ध न होना और नाश हो जाना समझना चाहिए । देहपात होने पर तो वह परमात्मा को प्राप्त हो जाता है । 14

अनारब्धकार्ये एव तु पूर्वे तदवधेः । १५ ।
किन्तु जिनका फलभोग रूप कार्य आरम्भ नहीं हुआ है ऐसे पूर्वकृत पुण्य और पाप ही नष्ट होते हैं क्योंकि श्रुति में प्रारब्ध कर्म रहने तक शरीर के रहने की अवधि निर्धारित की गयी है । 15

अग्निहोत्रादि तु तत्कार्यायैव तद्दर्शनात् । १६ ।
आश्रमोपयोगी अग्निहोत्र आदि विहित कर्मों के अनुष्ठान का विधान तो उन उन विहित कर्मों की रक्षा करने के लिए ही है । यही श्रुतियों एवं स्मृतियों में देखा गया है । 16

अतोऽन्यापि ह्य् एकेषाम् उभयोः । १७ ।
इनसे भिन्न किया भी ज्ञानी और साधक दोनों के लिए ही किसी एक शाखा वालों के मत में विहित है । 17

यद् एव विद्ययेति हि । १८ ।
जो भी विद्या के सहित किया जाता हैइस प्रकार कथन करने वाली श्रुति है । इसलिए विद्या कर्मों का अंग किसी जगह हो सकती है । 18

भोगेन त्व् इतरे क्षपयित्वाथ संपद्यते । १९ ।
संचित और क्रियमाण के सिवा दूसरे प्रारब्ध रूप शुभाशुभ कर्मों को तो भोग के द्वारा क्षीण करके वह ज्ञानी परमात्मा को प्राप्त हो जाता है । 19

॥ पहला पाद संपूर्ण ॥


Tuesday, September 6, 2011

अष्टावक्र गीता - Ashtavakr Gita
एकादश अध्याय - Ekadash Adhyay

अष्टावक्र उवाच -
भावाभावविकारश्च स्वभावादिति निश्चयी।
निर्विकारो गतक्लेशः सुखेनैवोपशाम्यति॥१॥

श्री अष्टावक्र कहते हैं - भाव(सृष्टि, स्थिति) और अभाव(प्रलय, मृत्यु) रूपी विकार स्वाभाविक हैं, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला विकाररहित, दुखरहित होकर सुख पूर्वक शांति को प्राप्त हो जाता है॥1॥

ईश्वरः सर्वनिर्माता नेहान्य इति निश्चयी।
अन्तर्गलितसर्वाशः शान्तः क्वापि न सज्जते॥२॥

ईश्वर सबका सृष्टा है कोई अन्य नहीं ऐसा निश्चित रूप से जानने वाले की सभी आन्तरिक इच्छाओं का नाश हो जाता है। वह शांत पुरुष सर्वत्र आसक्ति रहित हो जाता है॥2॥

आपदः संपदः काले दैवादेवेति निश्चयी।
तृप्तः स्वस्थेन्द्रियो नित्यं न वान्छति न शोचति॥३॥

संपत्ति (सुख) और विपत्ति (दुःख) का समय प्रारब्धवश (पूर्व कृत कर्मों के अनुसार) है, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला संतोष और निरंतर संयमित इन्द्रियों से युक्त हो जाता है। वह न इच्छा करता है और न शोक ॥3॥

सुखदुःखे जन्ममृत्यू दैवादेवेति निश्चयी।
साध्यादर्शी निरायासः कुर्वन्नपि न लिप्यते॥४॥

सुख-दुःख और जन्म-मृत्यु प्रारब्धवश (पूर्व कृत कर्मों के अनुसार) हैं, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला, फल की इच्छा न रखने वाला, सरलता से कर्म करते हुए भी उनसे लिप्त नहीं होता है॥4॥

चिन्तया जायते दुःखं नान्यथेहेति निश्चयी।
तया हीनः सुखी शान्तः सर्वत्र गलितस्पृहः॥५॥

चिंता से ही दुःख उत्पन्न होते हैं किसी अन्य कारण से नहीं, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला, चिंता से रहित होकर सुखी, शांत और सभी इच्छाओं से मुक्त हो जाता है॥5॥

नाहं देहो न मे देहो बोधोऽहमिति निश्चयी।
कैवल्यं इव संप्राप्तो न स्मरत्यकृतं कृतम्॥६॥

न मैं यह शरीर हूँ और न यह शरीर मेरा है, मैं ज्ञानस्वरुप हूँ, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला जीवन मुक्ति को प्राप्त करता है। वह किये हुए (भूतकाल) और न किये हुए (भविष्य के) कर्मों का स्मरण नहीं करता है॥6॥

आब्रह्मस्तंबपर्यन्तं अहमेवेति निश्चयी।
निर्विकल्पः शुचिः शान्तः प्राप्ताप्राप्तविनिर्वृतः॥ ७॥

तृण से लेकर ब्रह्मा तक सब कुछ मैं ही हूँ, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला विकल्प (कामना) रहित, पवित्र, शांत और प्राप्त-अप्राप्त से आसक्ति रहित हो जाता है॥7

नाश्चर्यमिदं विश्वं न किंचिदिति निश्चयी।
निर्वासनः स्फूर्तिमात्रो न किंचिदिव शाम्यति॥८॥

अनेक आश्चर्यों से युक्त यह विश्व अस्तित्वहीन है, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला, इच्छा रहित और शुद्ध अस्तित्व हो जाता है। वह अपार शांति को प्राप्त करता है॥८॥

Monday, August 1, 2011


विनय पत्रिका - Vinay Patrika  


विनयावली १७१ - Vinyavli 171
(तुलसीदास जी) - Tulsi Dasji


तुम सम दीनबंधु , न दीन कोउ मो सम , सुनहु नृपति रघुराई ।
मोसम कुटिल - मौलिमनि नहिं जग , तुमसम हरि ! न हरन कुटिलाई ॥१॥ 


महाराज रामचन्द्रजी ! आपके समान तो कोई दीनोंका कल्याण करनेवाला बन्धु नहीं है और मेरे समान कोई दीन नहीं है । मेरी बराबरी का संसार में कोई कुटिलों का शिरोमणि नहीं है और हे नाथ ! आपके बराबर कुटिलता का नाश करनेवाला कोई नहीं हैं ॥1॥ 


हौं मन - बचन - कर्म पातक - रत , तुम कृपालु पतितन - गतिदाई । 
हौं अनाथ , प्रभु ! तुम अनाथ - हित , चित यहि सुरति कबहुँ नहिं जाई ॥२॥  



मैं मन से , वचन से और कर्म से पापों में रत हूँ और हे कृपालो ! आप पापियों को परमगति देनेवाले हैं । मैं अनाथ हूँ और हे प्रभो ! आप अनाथों का हित करनेवाले हैं । यह बात मेरे मनसे कभी नहीं जाती  ॥2॥



हौं आरत , आरति - नासक तुम , कीरति निगम पुराननि गाई । 
हौं सभीत तुम हरन सकल भय , कारन कवन कृपा बिसराई ॥३॥ 


मैं दुःखी हूँ , आप दुःखों के दूर करनेवाले हैं । आपका यश यह वेद - पुराण गा रहे हैं । मैं ( जन्म - मृत्युरुप ) संसार से डरा हुआ हूँ और आप सब भय नाश करनेवाले हैं । ( आपके और मेरे इतने सम्बन्ध होने पर भी ) क्या कारण है , कि आप मुझपर कृपा नहीं करते ? ॥3॥ 


तुम सुखधाम राम श्रम - भंजन , हौं अति दुखित त्रिबिध श्रम पाई । 
यह जिय जानि दास तुलसी कहँ राखहु सरन समुझि प्रभुताई ॥४॥ 


हे श्रीरामजी ! आप आनन्द के धाम तथा श्रम के नाश करनेवाले हैं और मैं संसारके तीनों ( दैहिक , दैविक और भौतिक ) श्रमों से अत्यन्त ही दुःखी हो रहा हूँ । इन बातोंको अपने मन में विचारकर तथा अपनी प्रभुता को समझकर तुलसीदास को अपनी शरण में रख ही लीजिये ॥4॥

Thursday, July 14, 2011


गुर्वष्टकम् - Gururashtkam

श्रीमद आद्य शंकराचार्यविरचितम् - Shankracharyaji

शरीरं सुरूपं तथा वा कलत्रं,
यशश्चारु चित्रं धनं मेरु तुल्यम् |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||||

यदि शरीर रूपवान होपत्नी भी रूपसी हो और सत्कीर्ति चारों दिशाओं में विस्तरित होमेरु पर्वत के तुल्य अपार धन होकिंतु गुरु के श्रीचरणों में यदि मन आसक्त न हो तो इन सारी उपलब्धियों से क्या लाभ?

कलत्रं धनं पुत्र पौत्रादिसर्वं,
गृहो बान्धवाः सर्वमेतद्धि जातम् |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||||

सुन्दरी पत्नीधनपुत्र-पौत्रघर एवं स्वजन आदि प्रारब्ध से सर्व सुलभ हो किंतु गुरु के श्रीचरणों में यदि मन आसक्त न हो तो इस प्रारब्ध-सुख से क्या लाभ?

षड़ंगादिवेदो मुखे शास्त्रविद्या,
कवित्वादि गद्यं सुपद्यं करोति |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||||

वेद एवं षटवेदांगादि शास्त्र जिन्हें कंठस्थ होंजिनमें सुन्दर काव्य निर्माण की प्रतिभा होकिंतु उनका मन यदि गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न हो तो इन सदगुणों से क्या लाभ?

विदेशेषु मान्यः स्वदेशेषु धन्यः,
सदाचारवृत्तेषु मत्तो न चान्यः |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||||

जिन्हें विदेशों में समादर मिलता होअपने देश में जिनका नित्य जय-जयकार से स्वागत किया जाता हो और जो सदाचार पालन में भी अनन्य स्थान रखता होयदि उनका भी मन गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न हो तो सदगुणों से क्या लाभ?

क्षमामण्डले भूपभूपलबृब्दैः,
सदा सेवितं यस्य पादारविन्दम् |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||||

जिन महानुभाव के चरणकमल पृथ्वीमण्डल के राजा-महाराजाओं से नित्य पूजित रहा करते होंकिंतु उनका मन यदि गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न हो तो इस सदभाग्य से क्या लाभ?

यशो मे गतं दिक्षु दानप्रतापात्,
जगद्वस्तु सर्वं करे यत्प्रसादात् |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||||

दानवृत्ति के प्रताप से जिनकी कीर्ति दिगदिगांतरों में व्याप्त होअति उदार गुरु की सहज कृपादृष्टि से जिन्हें संसार के सारे सुख-एश्वर्य हस्तगत हों,किंतु उनका मन यदि गुरु के श्रीचरणों में आसक्तभाव न रखता हो तो इन सारे एशवर्यों से क्या लाभ?

न भोगे न योगे न वा वाजिराजौ,
न कन्तामुखे नैव वित्तेषु चित्तम् |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||||

जिनका मन भोगयोगअश्वराज्यस्त्री-सुख और धनोभोग से कभी विचलित न हुआ होफिर भी गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न बन पाया हो तो मन की इस अटलता से क्या लाभ?

अरण्ये न वा स्वस्य गेहे न कार्ये,
न देहे मनो वर्तते मे त्वनर्ध्ये |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||||

जिनका मन वन या अपने विशाल भवन मेंअपने कार्य या शरीर में तथा अमूल्य भण्डार में आसक्त न होपर गुरु के श्रीचरणों में भी वह मन आसक्त न हो पाये तो इन सारी अनासक्त्तियों का क्या लाभ?

गुरोरष्टकं यः पठेत्पुरायदेही,
यतिर्भूपतिर्ब्रह्मचारी च गेही |
लमेद्वाच्छिताथं पदं ब्रह्मसंज्ञं,
गुरोरुक्तवाक्ये मनो यस्य लग्नम् ||||

जो यतिराजाब्रह्मचारी एवं गृहस्थ इस गुरु अष्टक का पठन-पाठन करता है और जिसका मन गुरु के वचन में आसक्त हैवह पुण्यशालीशरीरधारी अपने इच्छितार्थ एवं ब्रह्मपद इन दोनों को संप्राप्त कर लेता है यह निश्चित है |


Wednesday, July 6, 2011


श्रीमद् भगवदगीता - Shrimad BhagwadGeeta

नौवाँ अध्यायः - 9th Adhyay
राजविद्याराजगुह्ययोग - Rajvidhya Rajguhayog

।। अथ नवमोऽध्यायः ।।

श्रीभगवानुवाचइदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे।
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।1।।
श्रीभगवान बोलेः तुझ दोष दृष्टिरहित भक्त के लिए इस परम गोपनीय विज्ञानसहित ज्ञान को पुनः भली भाँति कहूँगा, जिसको जानकर तू दुःखरूप संसार से मुक्त हो जाएगा।(1)


राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्।।2।
यह विज्ञानसहित ज्ञान सब विद्याओं का राजा, सब रहस्यों का राजा, अति पवित्र, अति उत्तम, प्रत्यक्ष फलवाला, धर्मयुक्त साधन करने में बड़ा सुगम और अविनाशी है।(2)

अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परंतप।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि।।3।।
हे परंतप ! इस उपर्युक्त धर्म में श्रद्धारहित पुरुष मुझको न प्राप्त होकर मृत्युरूप संसारचक्र में भ्रमण करते रहते हैं।


मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः।।4।।

मुझ निराकार परमात्मा से यह सब जगत जल से बर्फ से सदृश परिपूर्ण है और सब भूत मेरे अन्तर्गत संकल्प के आधार स्थित हैं, किन्तु वास्तव में मैं उनमें स्थित नहीं हूँ।(4)


न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः।।5।।

वे सब भूत मुझमें स्थित नहीं हैं, किन्तु मेरी ईश्वरीय योगशक्ति को देख कि भूतों को धारण-पोषण करने वाला और भूतों को उत्पन्न करने वाला भी मेरा आत्मा वास्तव में भूतों में स्थित नहीं है।(5)


यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय।।6।।

जैसे आकाश से उत्पन्न सर्वत्र विचरने वाला महान वायु सदा आकाश में ही स्थित है, वैसे ही  मेरे संकल्प द्वारा उत्पन्न होने से सम्पूर्ण भूत मुझमें स्थित हैं, ऐसा जान।(6) 


सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्।।7।।

हे अर्जुन ! कल्पों के अन्त में सब भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं अर्थात् प्रकृति में लीन होते हैं और कल्पों के आदि में उनको मैं फिर रचता हूँ।(7)


प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्।।

अपनी प्रकृति को अंगीकार करके स्वभाव के बल से परतन्त्र हुए इस सम्पूर्ण भूतसमुदाय को बार-बार उनके कर्मों के अनुसार रचता हूँ।(8)


न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु।।9।।

हे अर्जुन ! उन कर्मों में आसक्ति रहित और उदासीन के सदृश स्थित मुझ परमात्मा को वे कर्म नहीं बाँधते।(9)


मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।।10।।

हे अर्जुन ! मुझ अधिष्ठाता के सकाश से प्रकृति चराचर सहित सर्व जगत को रचती है और इस हेतु से ही यह संसारचक्र घूम रहा है।(10)


अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।।11।। 
मेरे परम भाव को न जानने वाले मूढ़ लोग मनुष्य का शरीर धारण करने वाले मुझ सम्पूर्ण भूतों के महान ईश्वर को तुच्छ समझते हैं अर्थात् अपनी योगमाया से संसार के उद्धार के लिए मनुष्यरूप में विचरते हुए मुझ परमेश्वर को साधारण मनुष्य मानते हैं।(11)


मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः।।12।।

वे व्यर्थ आशा, व्यर्थ कर्म और व्यर्थ ज्ञानवाले विक्षिप्तचित्त अज्ञानीजन राक्षसी, आसुरी और मोहिनी प्रकृति को ही धारण किये रहते हैं।(12)


महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्।।13।।

परन्तु हे कुन्तीपुत्र ! दैवी प्रकृति के आश्रित महात्माजन मुझको सब भूतों का सनातन कारण और नाशरहित अक्षरस्वरूप जानकर अनन्य मन से युक्त होकर निरन्तर भजते हैं।(13) 


सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः।
नमस्यन्तश्च मां भक्तया नित्ययुक्ता उपासते।।14।।

वे दृढ़ निश्चय वाले भक्तजन निरन्तर मेरे नाम और गुणों का कीर्तन करते हुए तथा मेरी प्राप्ति के लिए यत्न करते हुए और मुझको बार-बार प्रणाम करते हुए सदा मेरे ध्यान में युक्त होकर अनन्य प्रेम से मेरी उपासना करते हैं।(14)


ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते।
एकत्वेन पृथक्तवेन बहुधा विश्वतोमुखम्।।15।।

दूसरे ज्ञानयोगी मुझ निर्गुण-निराकार ब्रह्म का ज्ञानयज्ञ के द्वारा अभिन्नभाव से पूजन करते हुए भी मेरी उपासना करते हैं और दूसरे मनुष्य बहुत प्रकार से स्थित मुझ विराटस्वरूप परमेश्वर की पृथक भाव से उपासना करते हैं।(15)


अहं क्रतुरहं यज्ञः स्धाहमहमौषधम्।
मंत्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम्।।16।।

क्रतु मैं हूँ, यज्ञ मैं हूँ, स्वधा मैं हूँ, औषधि मैं हूँ, मंत्र मैं हूँ, घृत मैं हूँ, अग्नि मैं हूँ और हवनरूप क्रिया भी मैं ही हूँ।(16)


पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च।।17।।

इस सम्पूर्ण जगत का धाता अर्थात् धारण करने वाला और कर्मों के फल को देने वाला, पिता माता, पितामह, जानने योग्य, पवित्र ओंकार तथा ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ।(17)


गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।।18।।

प्राप्त होने योग्य परम धाम, भरण-पोषण करने वाला, सबका स्वामी, शुभाशुभ का देखने वाला, सब का वासस्थान, शरण लेने योग्य, प्रत्युपकार न चाहकर हित करने वाला, सबकी उत्पत्ति-प्रलय का हेतु, स्थिति का आधार, निधान और अविनाशी कारण भी मैं ही हूँ।(18)


तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन।।19।।

मैं ही सूर्यरूप से तपता हूँ, वर्षा का आकर्षण करता हूँ और उसे बरसाता हूँ। हे अर्जुन ! मैं ही अमृत और मृत्यु हूँ और सत् असत् भी मैं ही हूँ।(19)


त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापा
यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक-
मश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्।।20।।
तीनों वेदों में विधान किये हुए सकाम कर्मों को करने वाले, सोम रस को पीने वाले, पाप रहित पुरुष मुझको यज्ञों के द्वारा पूजकर स्वर्ग की प्राप्ति चाहते हैं, वे पुरुष अपने पुण्यों के फलरूप स्वर्गलोक को प्राप्त होकर स्वर्ग में दिव्य देवताओं के भोगों को भोगते हैं।


ते तं भुक्तवा स्वर्गलोकं विशालं
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना
गतागतं कामकामा लभन्ते।।21।।

वे उस विशाल स्वर्गलोक को भोगकर पुण्य क्षीण होने पर मृत्युलोक को प्राप्त होते है। इस प्रकार स्वर्ग के साधनरूप तीनों वेदों में कहे हुए सकाम कर्म का आश्रय लेने वाले और भोगों की कामना वाले पुरुष बार-बार आवागमन को प्राप्त होते हैं, अर्थात् पुण्य के प्रभाव से स्वर्ग में जाते हैं और पुण्य क्षीण होने पर मृत्युलोक में आते हैं।(21)


अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।22।।

जो अनन्य प्रेम भक्तजन मुझ परमेश्वर को निरन्तर चिन्तन करते हुए निष्काम भाव से भजते हैं, उन नित्य-निरन्तर मेरा चिन्तन करने वाले पुरुषों को योगक्षेम मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ।(22)


येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्।।23।।
 

हे अर्जुन यद्यपि श्रद्धा से युक्त जो सकाम भक्त दूसरे देवताओं को पूजते हैं, वे भी मुझको ही पूजते हैं, किन्तु उनका पूजन अविधिपूर्वक अर्थात् अज्ञानपूर्वक है।(23)


अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्चयवन्ति ते।।24।।

क्योंकि सम्पूर्ण यज्ञों का भोक्ता और स्वामी मैं ही हूँ, परन्तु वे मुझ परमेश्वर को तत्त्व से नहीं जानते, इसी से गिरते हैं अर्थात् पुनर्जन्म को प्राप्त होते हैं।(25)


यान्ति देवव्रता देवान्पितृन्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।।25।।

देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं, पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं, भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं और मेरा पूजन करने वाले भक्त मुझको प्राप्त होते हैं। इसलिए मेरे भक्तों का पुनर्जन्म नहीं होता।(25) 


पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्तया प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।26।।

जो कोई भक्त मेरे लिए प्रेम से पत्र, पुष्प, फल, जल आदि अर्पण करता है, उस शुद्धबुद्धि निष्काम प्रेमी भक्त का प्रेमपूर्वक अर्पण किया हुआ वह पत्र-पुष्पादि मैं सगुणरूप से प्रकट होकर प्रीतिसहित खाता हूँ।(26)


यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।।27।।

हे अर्जुन ! तू जो कर्म करता है, जो खाता है, जो हवन करता है, जो दान देता है और जो तप करता है वह सब मुझे अर्पण कर।(27)


शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः।
संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामपैष्यसि।।28।।

इस प्रकार जिसमें समस्त कर्म मुझ भगवान के अर्पण होते हैं – ऐसे सन्यासयोग से युक्त चित्तवाला तू शुभाशुभ फलरूप कर्मबन्धन से मुक्त हो जाएगा और उनसे मुक्त होकर मुझको ही प्राप्त होगा(28)


समोऽहं सर्वभूतेष न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्।।29।।

मैं सब भूतों में समभाव से व्यापक हूँ। न कोई मेरा अप्रिय है ओर न प्रिय है परन्तु जो भक्त मुझको प्रेम से भजते हैं, वे मुझमें हैं और मैं भी उनमें प्रत्यक्ष प्रकट हूँ।(29)


अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः।।30।।

यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भक्त होकर मुझे भजता है तो वह साधु ही मानने योग्य है, क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है अर्थात् उसने भली भाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वर के भजन के समान अन्य कुछ भी नहीं है।(30)


क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति।।31।।

वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहने वाली परम शान्ति को प्राप्त होता है। हे अर्जुन ! तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता।(31)


मां हि पार्थ व्यापाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।।32।।

हे अर्जुन ! स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि-चाण्डालादि जो कोई भी हों, वे भी मेरे शरण होकर परम गति को प्राप्त होते हैं।(32)


किं पुनर्ब्राह्मणाः पुण्या भक्ता राजर्षयस्तथा।
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्।।33।।

फिर इसमें तो कहना ही क्या है, जो पुण्यशील ब्राह्मण तथा राजर्षि भगवान मेरी शरण होकर परम गति को प्राप्त होते हैं। इसलिए तू सुखरहित और क्षणभंगुर इस मनुष्य शरीर को प्राप्त होकर निरन्तर मेरा ही भजन कर।(33)


मन्मना भव मद् भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः।।34।।

मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजनकरने वाला हो, मुझको प्रणाम कर। इस प्रकार आत्मा को मुझमें नियुक्त करके मेरे परायण होकर तू मुझको ही प्राप्त होगा।(34)



ॐ तत्सदिति श्रीमद् भगवद् गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादे राजविद्याराजगुह्य योगो नाम नवमोऽध्यायः।।9।।
इस प्रकार उपनिषद, ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र रूप श्रीमद् भगवद् गीता के
श्रीकृष्ण-अर्जुन संवाद में 'राजविद्याराजगुह्ययोग' नामक नौवाँ अध्याय संपूर्ण हुआ।।9।।