पूज्य बापूजी के दिव्य दर्शन और भारतीय संस्कृति का सर्वहितकारी ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

Wednesday, March 28, 2012

 गोपी गीत - Gopi Geet
श्रीमदभागवत महापुराण - Shreemad Bhagwat Mahapuran
दसवा स्कंध - Dasva Skand 
३१ वां अध्याय - 31st Adhyay

 जयति तेsधिकं जन्मना ब्रज:श्रयत इन्द्रिरा शश्व दत्र हि
द्यति द्दश्यतां दिक्षु तावका स्त्वयि धृतासवस्त्वां विचिन्वते ||१||

  हे प्रियतम प्यारे! तुम्हारे जन्म के कारण वैकुण्ठ आदि लोको से भी अधिक ब्रज की महिमा बढ़ गयी है तभी तो सौंदर्य और माधुर्य की देवी लक्ष्मी जी स्वर्ग छोडकर यहाँ की सेवा के लिए नित्य निरंतर निवास करने लगी है हे प्रियतम देखो तुम्हारी गोपियाँ जिन्होंने तुम्हारे चरणों में ही अपने प्राण समर्पित कर रखे है वन वन में भटक ढूँढ रही है ||1||

 शरदुदाशये साधु जातसत सरसिजोदरश्रीमुषा द्द्शा
सुरतनाथ तेsशुल्दासिका वरद निघ्न्तो नेह किं वधः ||२||

  हे हमारे प्रेम पूरित ह्रदय के स्वामी ! हम तो आपकी बिना मोल की दासी है तुम शरदऋतु के सुन्दर जलाशय में से चाँदनी की छटा के सौंदर्य को चुराने वाले नेत्रो से हमें घायल कर चुके हो. हे प्रिय !अस्त्रों से हत्या करना ही वध होता है, क्या इन नेत्रो से मरना हमारा वध करना नहीं है ||2||

 विषजलाप्ययाद व्यालराक्षसादवर्षमारुताद वैद्युतानलात
वृषमयात्मजाद विश्वतोभया द्दषभ ते वयं रक्षिता मुहु: ||३||

  हे पुरुष शिरोमणि ! यमुना जी के विषैले जल से होने वाली मृत्यु, अजगर के रूप में खाने वाला अधासुर, इंद्र की वर्षा आकाशीय बिजली, आँधी रूप त्रिणावर्त, दावानल अग्नि, वृषभासुर और व्योमासुर आदि से अलग-अलग समय पर सब प्रकार के भयो से तुमने बार-बार हमारी रक्षा की है ||3||

 न खलु गोपिकानन्दनो भवानखिलदेहिनामन्तरादृक
विखनसार्थितो, विश्वगुप्तये सख उदेयिवान सात्वतां कुले ||४||

  हे हमारे परम सखा ! आप केवल में यशोदा के ही पुत्र नहीं हो अपितु समस्त देहधारियों के हृदयों में अन्तस्थ साक्षी हैं.चूँकि भगवान ब्रह्मा ने आपसे अवतरित होने एवं ब्रह्माण्ड की रक्षा करने के लिए प्रार्धना की थी इसलिए अब आप यदुकुल में प्रकट हुए हैं ||4||

 विरचिताभयं वृष्णिधुर्य ते चरणमीयुषां संस्रृतेयात
करसरोरुहं कान्त कामदं शिरसि धेहि नः श्रीकरग्रहम ||५||

  हे वृषिणधूर्य ! तुम अपने प्रेमियों की अभिलाषा को पूर्ण करने में सबसे आगे हो जो लोग जन्म मृत्यु रूप संसार के चक्कर से डरकर तुम्हारे चरणों की शरण ग्रहण करते है उन्हें तुम्हारे कर कमल अपनी छत्र छाया में लेकर अभय कर देते हो सबकी लालसा अभिलाषा को पूर्ण करने वाला वही करकमल जिससे तुमने लक्ष्मी जी के हाथ को पकडा है प्रिये, उसी कामना को पूर्ण करने वाले कर कमल को हमारे सिरों के ऊपर रखें ||5||

 ब्रजजनार्तिहन्वीर योषितां निजजनस्मयध्वंसनस्मितः
भज सखे भवत्किंकरी: स्मनो जलरुहाननं चारू दर्शय ||६||

  हे वीर शिरोमणि श्यामसुन्दर! तुम सभी व्रजवासियो के दुखो को दूर करने वाले हो तुम्हारी मंद-मंद मुस्कान की एक झलक ही तुम्हारे भक्तो के सारे मान मद को चूर चूर करती है. हे मित्र ! हम से रूठो मत, प्रेम करो, हम तो तुम्हारी दासी है तुम्हारे चरणों में निछावर है, हम अबलाओ को अपना वह परम सुन्दर सांवला मुखकमल दिखलाओ ||6||

 प्रणतदेहिनां पापकर्षनं तृणचरानुगं श्रीनिकेतनम
फणिफणार्पितं तेपदाम्बुजं कृणु ‌कुचेषु नः, कृन्धि हृच्छयम् ||७||

  आपके चरणकमल आपके शरणागत समस्त देहधारियों के विगत पापों को नष्ट करने वाले है. लक्ष्मी जी सौंदर्य और माधुर्य की खान है वह जिन चरणों को अपनी गोद में रखकर निहारा करती है वह कोमल चरण बछडो के पीछे-पीछे चल रहे है उन्ही चरणों को तुमने कालियानाग के शीश पर धारण किया था तुम्हारी विरह की वेदना से ह्रदय संतृप्त हो रहा है तुमसे मिलन की कामना हमें सता रही है, हे प्रियतम ! तुम उन शीतलता प्रदान करने वाले चरणों को हमारे जलते हुए वक्ष स्थल पर रखकर हमारे ह्रदय की अग्नि को शान्त कर दो ||7||

 मधुरया गिरा वळ्गुवाक्यया बुधमनोज्ञया पुष्करेक्षण
विधिकरीरिमा वीर मुह्यतीरधरसीधुनाssप्यायस्व न : ||८||

  हे कमल नयन ! तुम्हारी वाणी कितनी मधुर है तुम्हारा एक-एक शब्द हमारे लिए अमृत से बढकर मधुर है बड़े-बड़े विद्वान तुम्हारी वाणी से मोहित होकर अपना सर्वस्व निछावर कर देते है उसी वाणी का रसास्वादन करके तुम्हारी आज्ञाकारिणी हम दासी मोहित हो रही है, हे दानवीर ! अब तुम अपना दिव्य अमृत से भी मधुर अधररस पिलाकर हमें जीवन दान दो ||8||

 तव कथामृतं तप्तजीवनं कविभिरीडीतं कल्मषापहम्
श्रवणमंडगलं श्रीमदाततं भुवि गृणन्ति ये, भूरिदा जनाः ||९||

  आपके शब्दों का अमृत तथा आपकी लीलाओं का वर्णन इस भौतिक जगत में कष्ट भोगने वालों के जीवन और प्राण हैं. ज्ञानियों महात्माओ भक्तो कवियों ने तुम्हारी लीलाओ का गुणगान किया है जो सारे पाप ताप को मिटाने वाली है जिसके सुनने मात्र से परम मंगल एवम परम कल्याण का दान देने वाली है तुम्हारी लीला कथा परम सुन्दर मधुर और कभी न समाप्त होने वाली है जो तुम्हारी लीला का गान करते है वह लोग वास्तव में मृत्यु लोक में सबसे बड़े दानी है ||9||

 प्रहसितम् प्रिय प्रेमवीक्षणं विहरणं च ते ध्यानमंङगलम्
रहसि संविदो या हदिस्पृशः कुहक नो मनः क्षोभयन्ति ‍‌हि ||१०||

  आपकी हँसी, आपकी मधुर प्रेम-भरी चितवन, आपके साथ हमारे द्वारा भोगी गई घनिष्ट लीलाएं तथा गुप्त वार्तालाप , इन सबका ध्यान करना मंगलकारी है.और ये हमारे ह्दयों को स्पर्श करती है उसके साथ ही, हे छलिया ! वे हमारे मनों को अतीव क्षुब्ध भी करती है ||10||

 चलसि यदब्रजाच्चारयन्पशून नलिनसुन्दरं नाथ ते पदम्
शिलतृणाडकुरैः सीदतीति नः कलिलतां मनः, कान्त गच्छति ||११||

  हे स्वामी, हे प्रियतम ! तुम्हारे चरण कमल से भी कोमल और सुन्दर है जब आप गौवें चराने के लिए गाँव छोडकर जाते है तो हमारे मन इस विचार से विचलित हो उठते है कि कमल से भी अधिक सुन्दर आपके पाँवों में अनाज के नोकदार तिनके तथा घास-फूस एंव पौधे चुभ जाऐंगे. ये सोचकर ही हमारा मन बहुत वेचैन हो जाता है ||11||

 दिनपरिक्षये नीलकुन्तलैवनरूहाननं विभ्रतवृतम्
धनरजवलं , दर्शयन्मुहुमनसि नः स्मरं वीर यच्छसि ||१२||

  हे हमारे वीर प्रियतम ! दिन ढलने पर जब तुम वन से घर लौटते हो तो हम देखती है कि तुम्हारे मुखकमल पर नीली-नीली अलके लटक रही है, और गौओ के खुर से उड़ उड़कर घनी धूल पड़ी हुई है तुम अपना वह मनोहारी सौंदर्य हमें दिखाकर हमारे ह्रदय को प्रेम पूरित करके मिलन की कामना उत्पन्न करते हो ||12||

 प्रणतकामदं पद्मजार्चितं धरणिमण्ड़नं ध्येयमापदि
चरणपडकजं , शंतमं च ते रमण नः स्तनेष्वर्पयाधिहन ||१३||

  हे प्रियतम ! तुम ही हमारे दुखो को मिटाने वाले हो, तुम्हारे चरण कमल शरणागत भक्तो की समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाली है, इन चरणों के ध्यान करने मात्र से सभी व्याधि शांत हो जाती है. हे प्यारे ! तुम अपने उन परम कल्याण स्वरुप चरण कमल हमारे वक्ष स्थल पर रखकर हमारे ह्रदय की व्यथा को शांत कर दो ||13||

 सुरतवर्धनं शोकनाशनं,स्वरितवेणुना सुष्ठुः चुम्वितम्
इतररागविस्मारणं नृणां वितर वीर नस्तेsधराम्रृतम ||१४||

  हे वीर ! आप अपने होंठों के उस अमृत को हममें वितरित कीजिये जो माधुर्य हर्ष को बढाने वाला और शोक को मिटाने वाला है उसी अमृत का आस्वादन, आपकी ध्वनि करती हुई वंशी लेती है और लोगों को अन्य सारी आसक्तियां भुलवा देती है ||14||

 अटति यद्भवानहिनि काननं त्रुटियुगायते त्वामपश्यताम्
कुटिलकुन्तलं श्रीमुखं च ते जड उदीक्षतां पक्ष्मकृतद्दशाम् ||१५||

  हे हमारे प्यारे ! दिन के समय तुम वन में विहार करने चले जाते हो तब तुम्हारे बिना हमारे लिए एक क्षण भी एक युग के समान हो जाता है और तुम संध्या के समय लौटते हो तथा घुँघराली अलकावली से युक्त तुम्हारे सुन्दर मुखारविन्द को हम देखती है उस समय हमारी पलको का गिरना हमारे लिए अत्यंत कष्टकारी होता है तब ऐसा महसूस होता है कि इन पलको को बनाने वाला विधाता मूर्ख है ||15||

 पतिसुतान्वयभातृबान्धवानतिविलडघ्य तेsन्त्यच्युतागताः
गतिविदस्तवोदगीत्मोहिताः कितब योषितः कस्त्यजेन्निशि ||१६||

  हे हमारे प्यारे श्यामसुन्दर ! हम अपने पति, पुत्र, सभी भाई, बंधू, और कुल परिवार को त्यागकर उनकी इच्छा और आज्ञा का उल्लघन करके तुम्हारे पास आई है. हम तुम्हारी हर चाल को जानती, हर संकेत को समझती है. और तुम्हारे मधुर गान से मोहित होकर यहाँ आई है हे कपटी! इस प्रकार रात्रि को आई हुई युवतियों को तुम्हारे अलावा और कौन छोड सकता है ||16||

 रहसि संविदं हच्छयोदयं प्रहसिताननं प्रेमवीक्षणम्
बृहदुर श्रियो, वीक्ष्य धाम ते मुहरतिस्पृहा, मुहयते मनः ||१७||

  हे प्यारे ! एकांत में तुम मिलन की इच्छा और प्रेमभाव जगाने वाली बाते किया करते थे हँसी मजाक करके हम छेड़ते थे तुम प्रेम भरी चितवन से हमारी ओर देख्रकर मुस्करा देते थे तुम्हारा वक्षस्थल, जिस पर लक्ष्मी जी नित्य निवास करती है, हे प्रिये! तब से अब तक निरंतर हमारी लालसा बढती ही जा रही है ओर हमारा मन तुम्हारे प्रति अत्यंत आसक्त होता जा रहा है ||17||

 ब्रजवनौकसां ,व्यक्तिरडग ते वृजिनहन्त्र्यलं विश्वमंडगलम्
त्यज मनाक् च नस्त्वत्स्पृहात्मनां स्वजनहद्रुजां यन्निषूदनम ||१८||

  हे प्यारे ! तुम्हारी यह अभिव्यक्ति ब्रज वनवासियों के सम्पूर्ण दुख ताप को नष्ट करने वाली ओर विश्व का पूर्ण मंगल करने के लिए है हमारा ह्रदय तुम्हारे प्रति लालसा से भर रहा है कुछ ऐसी औषधि प्रदान करो जो तुम्हारे भक्त्जनो के ह्रदय-रोग को सदा-सदा के लिए मिटा दे ||18||

  यत्ते सुजातचरणाम्बुरूहं स्तनेषु भीताः शनैः प्रिये दधीमहि ककशेषु
तेनाटवीमटसि तद्व्यथते न किंस्वित कूपापदिभिभ्रमति धीर्भवदायुषां नः ||१९||
  
हे कृष्णा ! तुम्हारे चरण कमल से भी कोमल है उन्हें हम अपने कठोर स्तनों पर भी डरते-डरते बहुत धीरे से रखती है जिससे आपके कोमल चरणों में कही चोट न लग जाये उन्ही चरणों से तुम रात्रि के समय घोर जंगल में छिपे हुए भटक रहे हो, क्या कंकण, पत्थर, काँटे, आदि की चोट लगने से आपके चरणों में पीड़ा नहीं होती? हमें तो इसकी कल्पना मात्र से ही अचेत होती जा रही है. हे प्यारे श्यामसुन्दर ! हे हमारे प्राणनाथ ! हमारा जीवन तुम्हारे लिए है हम तुम्हारे लिए ही जी रही है हम सिर्फ तुम्हारी ही है ||19||

Friday, March 16, 2012

मुण्डक उपनिषद - Mundak Upnishad

प्रथममुण्डके प्रथमः खण्डः - Pratham Mundake Pratham Khand

ॐ ब्रह्मा देवानां प्रथमः संबभूव विश्वस्य कर्ता
भुवनस्य गोप्ता ।
स ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठामथर्वाय
ज्येष्ठपुत्राय प्राह ॥१॥

सम्पूर्ण देवताओं में पहले ब्रह्मा उत्पन्न हुआ। वह विश्व का रचयिता और
त्रिभुवन का रक्षक था। उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को समस्त विद्याओं की आश्रयभूत ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया ॥1॥

अथर्वणे यां प्रवदेत ब्रह्माऽथर्वा तं
पुरोवाचाङ्गिरे ब्रह्मविद्याम् ।
स भारद्वाजाय सत्यवाहाय प्राह
भारद्वाजोऽङ्गिरसे परावराम् ॥२॥

अथर्वा को ब्रह्मा ने जिसका उपदेश किया था वह ब्रह्मविद्या पूर्वकाल में
अथर्वा ने अङ्गी को सिखाई। अङ्गी ने उसे भरद्वाज के पुत्र सत्यवह से कहा तथा भरद्वाज पुत्र (सत्यवह)-ने इस प्रकार श्रेष्ठ से कनिष्ठ को प्राप्त
होती हुई वह विद्या अङ्गिरा से कही ॥2॥

शौनको ह वै महाशालोऽङ्गिरसं विधिवदुपसन्नः पप्रच्छ ।
कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति ॥३॥

शौनक नामक प्रसिद्ध महागृहस्थ ने अङ्गिरा के पास विधिपूर्वक जाकर पूछा- भगवन्! किसके जान लिए जाने पर यह सब कुछ जान लिया जाता है ?’ ॥3॥

तस्मै स होवाच ।
द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म
यद्ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च ॥४॥

उससे उसने कहा-‘ब्रह्मवेत्ताओं ने कहा है कि दो विद्याएँ जानने योग्य हैं-एक परा और दूसरी अपरा’ ॥4॥

तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः
शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति ।
अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते ॥५॥

उनमें ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण,
निरुक्त, छंद और ज्योतिष- यह अपरा है तथा जिससे उस अक्षर परमात्मा का ज्ञान होता है वह परा है ॥5॥

यत्तदद्रेश्यमग्राह्यमगोत्रमवर्ण-
मचक्षुःश्रोत्रं तदपाणिपादम् ।
नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्मं
तदव्ययं यद्भूतयोनिं परिपश्यन्ति धीराः ॥६॥

वह जो अदृश्य, अग्राह्य, अगोत्र, अवर्ण और चक्षुःश्रोत्रादिहीन है, इसी
प्रकार अपाणिपाद, नित्य, विभु, सर्वगत, अत्यंत सूक्ष्म और अव्यय है तथा जो सम्पूर्ण भूतों का कारण है उसे विवेकी लोग सब ओर देखते हैं ॥6॥

यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते च
यथा पृथिव्यामोषधयः संभवन्ति ।
यथा सतः पुरुषात् केशलोमानि
तथाऽक्षरात् संभवतीह विश्वम् ॥७॥

जिस प्रकार मकड़ी जाले को बनाती और निगल जाती है, जैसे पृथिवी में औषधियाँ उत्पन्न होती हैं और जैसे सजीव पुरुष से केश एवं लोम उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार उस अक्षर से यह विश्व प्रकट होता है ॥7॥

तपसा चीयते ब्रह्म ततोऽन्नमभिजायते ।
अन्नात् प्राणो मनः सत्यं लोकाः कर्मसु चामृतम् ॥८॥

[ज्ञानरूप] तप के द्वारा ब्रह्म कुछ उपचय (स्थूलता)-को प्राप्त हो जाता
है, उसीसे अन्न उत्पन्न होता है । फिर अन्न से क्रमशः प्राण, मन, सत्य,
लोक, कर्म और कर्म से अमृतसंज्ञक कर्मफल उत्पन्न होता है ॥8॥

यः सर्वज्ञः सर्वविद्यस्य ज्ञानमयं तापः ।
तस्मादेतद्ब्रह्म नाम रूपमन्नं च जायाते ॥९॥

जो सबको [समान्यरूप से] जानने वाला और सबका विशेषज्ञ है तथा जिसका ज्ञानमय ताप है उस [अक्षरब्रह्म]-से ही यह ब्रह्म (हिरण्यगर्भ), नाम, रूप और अन्न उत्पन्न होता है ॥9॥

॥ इति मुण्डकोपनिषदि प्रथममुण्डके प्रथमः खण्डः ॥