पूज्य बापूजी के दिव्य दर्शन और भारतीय संस्कृति का सर्वहितकारी ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

Monday, August 1, 2011


विनय पत्रिका - Vinay Patrika  


विनयावली १७१ - Vinyavli 171
(तुलसीदास जी) - Tulsi Dasji


तुम सम दीनबंधु , न दीन कोउ मो सम , सुनहु नृपति रघुराई ।
मोसम कुटिल - मौलिमनि नहिं जग , तुमसम हरि ! न हरन कुटिलाई ॥१॥ 


महाराज रामचन्द्रजी ! आपके समान तो कोई दीनोंका कल्याण करनेवाला बन्धु नहीं है और मेरे समान कोई दीन नहीं है । मेरी बराबरी का संसार में कोई कुटिलों का शिरोमणि नहीं है और हे नाथ ! आपके बराबर कुटिलता का नाश करनेवाला कोई नहीं हैं ॥1॥ 


हौं मन - बचन - कर्म पातक - रत , तुम कृपालु पतितन - गतिदाई । 
हौं अनाथ , प्रभु ! तुम अनाथ - हित , चित यहि सुरति कबहुँ नहिं जाई ॥२॥  



मैं मन से , वचन से और कर्म से पापों में रत हूँ और हे कृपालो ! आप पापियों को परमगति देनेवाले हैं । मैं अनाथ हूँ और हे प्रभो ! आप अनाथों का हित करनेवाले हैं । यह बात मेरे मनसे कभी नहीं जाती  ॥2॥



हौं आरत , आरति - नासक तुम , कीरति निगम पुराननि गाई । 
हौं सभीत तुम हरन सकल भय , कारन कवन कृपा बिसराई ॥३॥ 


मैं दुःखी हूँ , आप दुःखों के दूर करनेवाले हैं । आपका यश यह वेद - पुराण गा रहे हैं । मैं ( जन्म - मृत्युरुप ) संसार से डरा हुआ हूँ और आप सब भय नाश करनेवाले हैं । ( आपके और मेरे इतने सम्बन्ध होने पर भी ) क्या कारण है , कि आप मुझपर कृपा नहीं करते ? ॥3॥ 


तुम सुखधाम राम श्रम - भंजन , हौं अति दुखित त्रिबिध श्रम पाई । 
यह जिय जानि दास तुलसी कहँ राखहु सरन समुझि प्रभुताई ॥४॥ 


हे श्रीरामजी ! आप आनन्द के धाम तथा श्रम के नाश करनेवाले हैं और मैं संसारके तीनों ( दैहिक , दैविक और भौतिक ) श्रमों से अत्यन्त ही दुःखी हो रहा हूँ । इन बातोंको अपने मन में विचारकर तथा अपनी प्रभुता को समझकर तुलसीदास को अपनी शरण में रख ही लीजिये ॥4॥