पूज्य बापूजी के दिव्य दर्शन और भारतीय संस्कृति का सर्वहितकारी ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

Monday, June 3, 2013

नारद भक्ति सूत्र - Narad Bhagti Sutr

प्रथमोऽध्याय - First Adhyay

अथातो भक्तिं व्याख्यास्यामः ।॥१॥
अब भक्ति कि व्याख्या करते हैं ॥1॥

सा त्वस्मिन परप्रेमरूपा ।॥२॥
वह तो ईश्वर के लिये परम् प्रेम रूप है ॥2॥

अमृतस्वरूपा च ।॥३॥
अमृत स्वरूप है ॥3॥

यल्लब्धवा पुमान सिध्दो भवति अमृतो भवति तृप्तो भवति । ॥४॥
जिसे पा कर मनुष्य सिद्ध हो जाता है, अमर हो जाता है, तृप्त हो जाता है॥4॥

यत्प्राप्य न किन्चित वाञ्छति न शोचति न द्वेष्टि न रमते नोत्साही भवति ।॥५॥
जिसे प्राप्त कर, वह न कभी और कुछ चाहता है, न ही शोक करता है, न घृणा करता है, न ही किसी चिज में रमता है, वह अन्य विषयों कि तरफ उत्साह रहित हो जाता है ॥5॥

यज्ज्ञात्वा मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति । ॥६॥
जिसे जान कर वो उन्मत्त हो जाता है, स्तब्ध हो जाता है, और अपने आप में ही सन्तुष्ट रहता है॥6॥

सा न कामयमाना निरोधरूपत्वात । ॥७॥
भक्तिमान मनुष्य के मन में कामनायें नहीं रहतीं क्योकि भक्ति निरोधरूप है॥7॥

निरोधस्तु लोकवेदव्यापारन्यासः । ॥८॥
निरोधरूप मतलब सांसारिक और वैदिक कर्मों की तरफ ज्यादा ध्यान न होना॥8॥

तस्मिन्ननन्यता तद्विरोधिषूदासीनता च ।॥९॥
उस (न्यास, त्याग) में (भगवान के प्रति) अनन्यता तथा उस के विरोधी विषय में उदासीनता को निरोध कहते हैं ॥9॥

अन्याश्रयाणा त्यागोनन्यता । ॥१०॥
(एक प्रभु को छोड़कर) अन्य आश्रयों का त्याग अनन्यता है॥10॥

लोकवेदेषु तदनुकूलाचरणं तदविरोधिषूदासीनता ।॥११॥
संसारिक और वेदिक कर्म जो भक्ति के अनुकूल हों उनका आचरण करना और उसके विरुद्ध विषयों में उदासीनता ॥11॥

भवतु निश्चयदाढर्यादूर्ध्वं शास्त्ररक्षणम् ।॥१२॥
परम-प्रम-रूपा भक्ति की प्राप्ति दृढ़निश्चय हो जाने के पश्चात भी शास्त्र
रक्षा करनी चाहिये ॥12॥

अन्यथा पातित्यशङ्कया । ॥१३॥
(नहीं तो संस्कारों, वासनाओं के कारण) गिरने की आशंका बनी रहती है॥13॥

लोकोऽपि तावदेव भोजनादि व्यापारस्त्वाशरी रधारणावधि । ॥१४॥
लोक बंधन भी तब तक ही रहता है, किन्तु भोजनादि व्यापार शरीर धारण पर्यन्त चलता है॥14॥

तल्लक्षणानि वाच्यन्ते नानामतभेदात् । ॥१५॥
अब नाना मतभेद से (भक्ति) के लक्षण कहते हैं॥15॥

पूजादिष्वनुराग इति पराशर्यः । ॥१६॥
पूजा आदि में अनुराग भक्ति है, ऐसा पाराशर (वेद व्यास जी) कहते हैं॥16॥

कथादिष्विति गर्गः । ॥१७॥
गर्ग जी के अनुसार भक्ति, कथा आदि में ( अनुराग है )॥17॥

आत्मरत्यविरोधेनेति शाण्डिल्यः । ॥१८॥
शाण्डिल्य के मतानुसार, आत्मरति का अवरोध भक्ति है ।(आत्मतत्व की ओर ले जाने वाले विषयों में अनुराग भक्ति है )॥18॥

नारदस्तु तदर्पिताखिलाचारता तद्विस्मरणे परमव्याकुलतेति ।॥१९॥
नारद जी के मतानुसार अपने सकल आचरण से उसी के समर्पित रहना तथा उसके विस्मरण हो जाने पर व्याकुल हो जाना भक्ति है ॥19॥

अस्त्येवमेवम् ।॥२०॥
यह ही भक्ति है ॥20॥

यथा व्रजगोपिकानाम ।॥२१॥
जैसे व्रज की गोपिकाएं ॥21॥

तत्रापि न माहात्म्यज्ञानविस्मृत्यपवादः । ॥२२॥
उसमें (गोपी प्रेम में) भी माहात्म्य ज्ञान (परमार्थ ज्ञान) का अपवाद नहीं था॥22॥

तद्विहीनं जाराणामिव ।॥२३॥
उससे विहीन (भक्ति), जार भक्ति (हो जाती है) ॥23॥

नास्त्येव तस्मिन तत्सुखसुखित्वम् ।॥२४॥
उसमें (जार प्रेम में) वह (परमार्थ) सुख नहीं है॥24॥