पूज्य बापूजी के दिव्य दर्शन और भारतीय संस्कृति का सर्वहितकारी ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

Wednesday, June 25, 2014

श्रीरामचरितमानस - SriRamCharitManas 

अरण्य काण्ड - Aranya Kand

श्री राम नारद संवाद - Shri Ram Narad Samvaad


बिरहवंत भगवंतहि देखी। 
नारद मन भा सोच बिसेषी॥
मोर साप करि अंगीकारा। 
सहत राम नाना दुख भारा॥3॥ 


भगवान्‌ को विरहयुक्त देखकर नारदजी के मन में विशेष रूप से सोच हुआ। (उन्होंने विचार किया कि) मेरे ही शाप को स्वीकार करके श्री रामजी नाना प्रकार के दुःखों का भार सह रहे हैं (दुःख उठा रहे हैं)॥3॥

ऐसे प्रभुहि बिलोकउँ जाई। 
पुनि न बनिहि अस अवसरु आई॥
यह बिचारि नारद कर बीना। 
गए जहाँ प्रभु सुख आसीना॥4॥

ऐसे (भक्त वत्सल) प्रभु को जाकर देखूँ। फिर ऐसा अवसर न बन आवेगा। यह विचार कर नारदजी हाथ में वीणा लिए हुए वहाँ गए, जहाँ प्रभु सुखपूर्वक बैठे हुए थे॥4॥

गावत राम चरित मृदु बानी। 
प्रेम सहित बहु भाँति बखानी॥
करत दंडवत लिए उठाई। 
राखे बहुत बार उर लाई॥5॥

वे कोमल वाणी से प्रेम के साथ बहुत प्रकार से बखान-बखान कर रामचरित का गान कर (ते हुए चले आ) रहे थे। दण्डवत्‌ करते देखकर श्री रामचंद्रजी ने नारदजी को उठा लिया और बहुत देर तक हृदय से लगाए रखा॥5॥

स्वागत पूँछि निकट बैठारे। 
लछिमन सादर चरन पखारे॥6॥

फिर स्वागत (कुशल) पूछकर पास बैठा लिया। लक्ष्मणजी ने आदर के साथ उनके चरण धोए॥6॥

नाना बिधि बिनती करि 
प्रभु प्रसन्न जियँ जानि।
नारद बोले बचन तब 
जोरि सरोरुह पानि॥41॥

बहुत प्रकार से विनती करके और प्रभु को मन में प्रसन्न जानकर तब नारदजी कमल के समान हाथों को जोड़कर वचन बोले-॥41॥

सुनहु उदार सहज रघुनायक। 
सुंदर अगम सुगम बर दायक॥
देहु एक बर मागउँ स्वामी। 
जद्यपि जानत अंतरजामी॥1॥

हे स्वभाव से ही उदार श्री रघुनाथजी! सुनिए। आप सुंदर अगम और सुगम वर के देने वाले हैं। हे स्वामी! मैं एक वर माँगता हूँ, वह मुझे दीजिए, यद्यपि आप अंतर्यामी होने के नाते सब जानते ही हैं॥1॥

जानहु मुनि तुम्ह मोर सुभाऊ। 
जन सन कबहुँ कि करऊँ दुराऊ॥
कवन बस्तु असि प्रिय मोहि लागी। 
जो मुनिबर न सकहुँ तुम्ह मागी॥2॥

(श्री रामजी ने कहा-) हे मुनि! तुम मेरा स्वभाव जानते ही हो। क्या मैं अपने भक्तों से कभी कुछ छिपाव करता हूँ? मुझे ऐसी कौन सी वस्तु प्रिय लगती है, जिसे हे मुनिश्रेष्ठ! तुम नहीं माँग सकते?॥2॥

जन कहुँ कछु अदेय नहिं मोरें। 
अस बिस्वास तजहु जनि भोरें॥
तब नारद बोले हरषाई। 
अस बर मागउँ करउँ ढिठाई॥3॥

मुझे भक्त के लिए कुछ भी अदेय नहीं है। ऐसा विश्वास भूलकर भी मत छोड़ो। तब नारदजी हर्षित होकर बोले- मैं ऐसा वर माँगता हूँ, यह धृष्टता करता हूँ-॥3॥

जद्यपि प्रभु के नाम अनेका। 
श्रुति कह अधिक एक तें एका॥
राम सकल नामन्ह ते अधिका। 
होउ नाथ अघ खग गन बधिका॥4॥

यद्यपि प्रभु के अनेक नाम हैं और वेद कहते हैं कि वे सब एक से एक बढ़कर हैं, तो भी हे नाथ! रामनाम सब नामों से बढ़कर हो और पाप रूपी पक्षियों के समूह के लिए यह वधिक के समान हो॥4॥

राका रजनी भगति तव 
राम नाम सोइ सोम।
अपर नाम उडगन बिमल 
बसहुँ भगत उर ब्योम॥42 क॥

आपकी भक्ति पूर्णिमा की रात्रि है, उसमें 'राम' नाम यही पूर्ण चंद्रमा होकर और अन्य सब नाम तारागण होकर भक्तों के हृदय रूपी निर्मल आकाश में निवास करें॥42 (क)॥

एवमस्तु मुनि सन कहेउ 
कृपासिंधु रघुनाथ।
तब नारद मन हरष अति 
प्रभु पद नायउ माथ॥42 ख॥

कृपा सागर श्री रघुनाथजी ने मुनि से 'एवमस्तु' (ऐसा ही हो) कहा। तब नारदजी ने मन में अत्यंत हर्षित होकर प्रभु के चरणों में मस्तक नवाया॥42 (ख)॥

अति प्रसन्न रघुनाथहि जानी। 
पुनि नारद बोले मृदु बानी॥
राम जबहिं प्रेरेउ निज माया 
मोहेहु मोहि सुनहु रघुराया॥1॥

श्री रघुनाथजी को अत्यंत प्रसन्न जानकर नारदजी फिर कोमल वाणी बोले- हे रामजी! हे रघुनाथजी! सुनिए, जब आपने अपनी माया को प्रेरित करके मुझे मोहित किया था,॥1॥

तब बिबाह मैं चाहउँ कीन्हा। 
प्रभु केहि कारन करै न दीन्हा॥
सुनु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा। 
भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा॥2॥

तब मैं विवाह करना चाहता था। हे प्रभु! आपने मुझे किस कारण विवाह नहीं करने दिया? (प्रभु बोले-) हे मुनि! सुनो, मैं तुम्हें हर्ष के साथ कहता हूँ कि जो समस्त आशा-भरोसा छोड़कर केवल मुझको ही भजते हैं,॥2॥


करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी। 
जिमि बालक राखइ महतारी॥
गह सिसु बच्छ अनल अहि धाई। 
तहँ राखइ जननी अरगाई॥3॥

मैं सदा उनकी वैसे ही रखवाली करता हूँ, जैसे माता बालक की रक्षा करती है। छोटा बच्चा जब दौड़कर आग और साँप को पकड़ने जाता है, तो वहाँ माता उसे (अपने हाथों) अलग करके बचा लेती है॥3॥

प्रौढ़ भएँ तेहि सुत पर माता। 
प्रीति करइ नहिं पाछिलि बाता॥
मोरें प्रौढ़ तनय सम ग्यानी। 
बालक सुत सम दास अमानी॥4॥

सयाना हो जाने पर उस पुत्र पर माता प्रेम तो करती है, परन्तु पिछली बात नहीं रहती (अर्थात्‌ मातृ परायण शिशु की तरह फिर उसको बचाने की चिंता नहीं करती, क्योंकि वह माता पर निर्भर न कर अपनी रक्षा आप करने लगता है)। ज्ञानी मेरे प्रौढ़ (सयाने) पुत्र के समान है और (तुम्हारे जैसा) अपने बल का मान न करने वाला सेवक मेरे शिशु पुत्र के समान है॥4॥

जनहि मोर बल निज बल ताही। 
दुहु कहँ काम क्रोध रिपु आही॥
यह बिचारि पंडित मोहि भजहीं। 
पाएहुँ ग्यान भगति नहिं तजहीं॥5॥

मेरे सेवक को केवल मेरा ही बल रहता है और उसे (ज्ञानी को) अपना बल होता है। पर काम-क्रोध रूपी शत्रु तो दोनों के लिए हैं।(भक्त के शत्रुओं को मारने की जिम्मेवारी मुझ पर रहती है, क्योंकि वह मेरे परायण होकर मेरा ही बल मानता है, परन्तु अपने बल को मानने वाले ज्ञानी के शत्रुओं का नाश करने की जिम्मेवारी मुझ पर नहीं है।) ऐसा विचार कर पंडितजन (बुद्धिमान लोग) मुझको ही भजते हैं। वे ज्ञान प्राप्त होने पर भी भक्ति को नहीं छोड़ते॥5॥

काम क्रोध लोभादि मद 
प्रबल मोह कै धारि।
तिन्ह महँ अति दारुन दुखद 
मायारूपी नारि॥43॥

काम, क्रोध, लोभ और मद आदि मोह (अज्ञान) की प्रबल सेना है। इनमें मायारूपिणी (माया की साक्षात्‌ मूर्ति) स्त्री तो अत्यंत दारुण दुःख देने वाली है॥43॥

सुनु मुनि कह पुरान श्रुति संता। 
मोह बिपिन कहुँ नारि बसंता॥
जप तप नेम जलाश्रय झारी। 
होइ ग्रीषम सोषइ सब नारी॥1

हे मुनि! सुनो, पुराण, वेद और संत कहते हैं कि मोह रूपी वन (को विकसित करने) के लिए स्त्री वसंत ऋतु के समान है। जप, तप, नियम रूपी संपूर्ण जल के स्थानों को स्त्री ग्रीष्म रूप होकर सर्वथा सोख लेती है॥1॥

काम क्रोध मद मत्सर भेका। 
इन्हहि हरषप्रद बरषा एका॥
दुर्बासना कुमुद समुदाई। 
तिन्ह कहँ सरद सदा सुखदाई॥2॥

काम, क्रोध, मद और मत्सर (डाह) आदि मेंढक हैं। इनको वर्षा ऋतु होकर हर्ष प्रदान करने वाली एकमात्र यही (स्त्री) है। बुरी वासनाएँ कुमुदों के समूह हैं। उनको सदैव सुख देने वाली यह शरद् ऋतु है॥2॥

धर्म सकल सरसीरुह बृंदा। 
होइ हिम तिन्हहि दहइ सुख मंदा॥
पुनि ममता जवास बहुताई। 
पलुहइ नारि सिसिर रितु पाई॥3॥

समस्त धर्म कमलों के झुंड हैं। यह नीच (विषयजन्य) सुख देने वाली स्त्री हिमऋतु होकर उन्हें जला डालती है। फिर ममतारूपी जवास का समूह (वन) स्त्री रूपी शिशिर ऋतु को पाकर हरा-भरा हो जाता है॥3॥

पाप उलूक निकर सुखकारी। 
नारि निबिड़ रजनी अँधियारी॥
बुधि बल सील सत्य सब मीना। 
बनसी सम त्रिय कहहिं प्रबीना॥4॥

पाप रूपी उल्लुओं के समूह के लिए यह स्त्री सुख देने वाली घोर अंधकारमयी रात्रि है। बुद्धि, बल, शील और सत्य- ये सब मछलियाँ हैं और उन (को फँसाकर नष्ट करने) के लिए स्त्री बंसी के समान है, चतुर पुरुष ऐसा कहते हैं॥4॥

अवगुन मूल सूलप्रद 
प्रमदा सब दुख खानि।
ताते कीन्ह निवारन मुनि 
मैं यह जियँ जानि॥44॥

युवती स्त्री अवगुणों की मूल, पीड़ा देने वाली और सब दुःखों की खान है, इसलिए हे मुनि! मैंने जी में ऐसा जानकर तुमको विवाह करने से रोका था॥44॥

सुनि रघुपति के बचन सुहाए। 
मुनि तन पुलक नयन भरि आए॥
कहहु कवन प्रभु कै असि रीती। 
सेवक पर ममता अरु प्रीती॥1॥

श्री रघुनाथजी के सुंदर वचन सुनकर मुनि का शरीर पुलकित हो गया और नेत्र (प्रेमाश्रुओं के जल से) भर आए। (वे मन ही मन कहने लगे-) कहो तो किस प्रभु की ऐसी रीती है, जिसका सेवक पर इतना ममत्व और प्रेम हो॥1॥

जे न भजहिं अस प्रभु भ्रम त्यागी। 
ग्यान रंक नर मंद अभागी॥
पुनि सादर बोले मुनि नारद। 
सुनहु राम बिग्यान बिसारद॥2॥

जो मनुष्य भ्रम को त्यागकर ऐसे प्रभु को नहीं भजते, वे ज्ञान के कंगाल, दुर्बुद्धि और अभागे हैं। फिर नारद मुनि आदर सहित बोले- हे विज्ञान-विशारद श्री रामजी! सुनिए-॥2॥


संतन्ह के लच्छन रघुबीरा। 
कहहु नाथ भव भंजन भीरा॥
सुनु मुनि संतन्ह के गुन कहऊँ। 
जिन्ह ते मैं उन्ह कें बस रहऊँ॥3॥

हे रघुवीर! हे भव-भय (जन्म-मरण के भय) का नाश करने वाले मेरे नाथ! अब कृपा कर संतों के लक्षण कहिए! (श्री रामजी ने कहा-) हे मुनि! सुनो, मैं संतों के गुणों को कहता हूँ, जिनके कारण मैं उनके वश में रहता हूँ॥3॥


षट बिकार जित अनघ अकामा। 
अचल अकिंचन सुचि सुखधामा॥
अमित बोध अनीह मितभोगी। 
सत्यसार कबि कोबिद जोगी॥4॥

वे संत (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर- इन) छह विकारों (दोषों) को जीते हुए, पापरहित, कामनारहित, निश्चल (स्थिरबुद्धि), अकिंचन (सर्वत्यागी), बाहर-भीतर से पवित्र, सुख के धाम, असीम ज्ञानवान्‌, इच्छारहित, मिताहारी, सत्यनिष्ठ, कवि, विद्वान, योगी,॥4॥

सावधान मानद मदहीना। 
धीर धर्म गति परम प्रबीना॥5॥

सावधान, दूसरों को मान देने वाले, अभिमानरहित, धैर्यवान, धर्म के ज्ञान और आचरण में अत्यंत निपुण,॥5॥


गुनागार संसार दुख 
रहित बिगत संदेह।
तजि मम चरन सरोज 
प्रिय तिन्ह कहुँ देह न गेह॥45॥

गुणों के घर, संसार के दुःखों से रहित और संदेहों से सर्वथा छूटे हुए होते हैं। मेरे चरण कमलों को छोड़कर उनको न देह ही प्रिय होती है, न घर ही॥45॥


निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं। 
पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं॥
सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती। 
सरल सुभाउ सबहि सन प्रीति॥1॥

कानों से अपने गुण सुनने में सकुचाते हैं, दूसरों के गुण सुनने से विशेष हर्षित होते हैं। सम और शीतल हैं, न्याय का कभी त्याग नहीं करते। सरल स्वभाव होते हैं और सभी से प्रेम रखते हैं॥1॥


जप तप ब्रत दम संजम नेमा। 
गुरु गोबिंद बिप्र पद प्रेमा॥
श्रद्धा छमा मयत्री दाया। 
मुदिता मम पद प्रीति अमाया॥2॥

वे जप, तप, व्रत, दम, संयम और नियम में रत रहते हैं और गुरु, गोविंद तथा ब्राह्मणों के चरणों में प्रेम रखते हैं। उनमें श्रद्धा, क्षमा, मैत्री, दया, मुदिता (प्रसन्नता) और मेरे चरणों में निष्कपट प्रेम होता है॥2॥


बिरति बिबेक बिनय बिग्याना। 
बोध जथारथ बेद पुराना॥
दंभ मान मद करहिं न काऊ। 
भूलि न देहिं कुमारग पाऊ॥3॥

तथा वैराग्य, विवेक, विनय, विज्ञान (परमात्मा के तत्व का ज्ञान) और वेद-पुराण का यथार्थ ज्ञान रहता है। वे दम्भ, अभिमान और मद कभी नहीं करते और भूलकर भी कुमार्ग पर पैर नहीं रखते॥3॥


गावहिं सुनहिं सदा मम लीला। 
हेतु रहित परहित रत सीला॥
मुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते। 
कहि न सकहिं सादर श्रुति तेते॥4॥

सदा मेरी लीलाओं को गाते-सुनते हैं और बिना ही कारण दूसरों के हित में लगे रहने वाले होते हैं। हे मुनि! सुनो, संतों के जितने गुण हैं, उनको सरस्वती और वेद भी नहीं कह सकते॥4॥


कहि सक न सारद सेष 
नारद सुनत पद पंकज गहे।
अस दीनबंधु कृपाल अपने 
भगत गुन निज मुख कहे॥
सिरु नाइ बारहिं बार 
चरनन्हि ब्रह्मपुर नारद गए।
ते धन्य तुलसीदास 
आस बिहाइ जे हरि रँग रँए॥ '

शेष और शारदा भी नहीं कह सकते' यह सुनते ही नारदजी ने श्री रामजी के चरणकमल पकड़ लिए। दीनबंधु कृपालु प्रभु ने इस प्रकार अपने श्रीमुख से अपने भक्तों के गुण कहे। भगवान्‌ के चरणों में बार-बार सिर नवाकर नारदजी ब्रह्मलोक को चले गए। तुलसीदासजी कहते हैं कि वे पुरुष धन्य हैं, जो सब आशा छोड़कर केवल श्री हरि के रंग में रँग गए हैं।

रावनारि जसु पावन
गावहिं सुनहिं जे लोग।
राम भगति दृढ़ पावहिं
बिनु बिराग जप जोग॥46 क॥

जो लोग रावण के शत्रु श्री रामजी का पवित्र यश गावेंगे और सुनेंगे, वे वैराग्य, जप और योग के बिना ही श्री रामजी की दृढ़ भक्ति पावेंगे॥46 (क)॥


दीप सिखा सम जुबति तन 
मन जनि होसि पतंग।
भजहि राम तजि काम मद 
करहि सदा सतसंग॥46 ख॥

युवती स्त्रियों का शरीर दीपक की लौ के समान है, हे मन! तू उसका पतिंगा न बन। काम और मद को छोड़कर श्री रामचंद्रजी का भजन कर और सदा सत्संग कर॥46 (ख)॥

इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने तृतीयः सोपानः समाप्तः।

कलियुग के संपूर्ण पापों को विध्वंस करने वाले श्री रामचरितमानस का यह तीसरा सोपान समाप्त हुआ।
(अरण्यकाण्ड समाप्त)

Friday, June 6, 2014

श्रीराम ह्रदयम् 

श्रीमहादेव उवाच -
ततो रामः स्वयं प्राह हनूमंतमुपस्थितम्।
श्रृणु तत्त्वं प्रवक्ष्यामि ह्यात्मानात्मपरात्मनाम्॥१॥
श्री महादेव कहते हैं - तब श्री राम ने अपने पास खड़े हुए श्री हनुमान से स्वयं कहा, मैं तुम्हें आत्मा, अनात्मा और  परमात्मा का तत्व बताता हूँ, तुम ध्यान से सुनो॥१॥

आकाशस्य यथा भेद-स्त्रिविधो दृश्यते महान्।
जलाशये महाकाशस्-तदवच्छिन्न एव हि॥२॥
विस्तृत आकाश के तीन भेद दिखाई देते हैं - एक महाकाश, दूसरा जलाशय में जलावच्छिन्न (जल से घिरा हुआ सा) आकाश॥२॥

प्रतिबिंबाख्यमपरं दृश्यते त्रिविधं नभः।
बुद्ध्यवचिन्न चैतन्यमे-कं पूर्णमथापरम्॥३॥
और तीसरा (महाकाश का जल में) प्रतिबिम्बाकाश। उसी प्रकार चेतन भी तीन प्रकार का होता है - एक बुद्ध्यवच्छिन्न चेतन (बुद्धि से परिमित हुआ सा), दूसरा जो सर्वत्र परिपूर्ण है॥३॥

आभासस्त्वपरं बिंबभूत-मेवं त्रिधा चितिः।
साभासबुद्धेः कर्तृत्वम-विच्छिन्नेविकारिणि॥४॥
और तीसरा आभास चेतन जो बुद्धि में प्रतिबिंबित होता है। कर्तृत्व आभास चेतन के सहित बुद्धि में होता है अर्थात् आभास चेतन की प्रेरणा से ही बुद्धि सब कार्य करती है॥४॥

साक्षिण्यारोप्यते भ्रांत्या जीवत्वं च तथाऽबुधैः।
आभासस्तु मृषाबुद्धिःअविद्याकार्यमुच्यते॥५॥
किन्तु भ्रान्ति के कारण अज्ञानी लोग साक्षी आत्मा में कर्तृत्व और जीवत्व का आरोप करते हैं अर्थात् उसे ही कर्ता और भोक्ता मान लेते हैं। आभास तो मिथ्या है और बुद्धि अविद्या का कार्य है॥५॥

अविच्छिन्नं तु तद् ब्रह्म विच्छेदस्तु विकल्पितः।
विच्छिन्नस्य पूर्णेन एकत्वं प्रतिपाद्यते॥६॥
वह ब्रह्म विच्छेद रहित है और विकल्प (भ्रम) से ही उसके विभाजन (विच्छेद) माने जाते हैं। इस प्रकार विच्छिन्न (आत्मा) और पूर्ण चेतन (परमात्मा) के एकत्व का प्रतिपादन किया गया॥६॥

तत्त्वमस्यादिवाक्यैश्‍च साभासस्याहमस्तथा।
ऐक्यज्ञानं यदोत्पन्नं महावाक्येन चात्मनोः॥७॥
तत्त्वमसि (तुम वह आत्मा हो) आदि वाक्यों द्वारा  अहम् रूपी आभास चेतन की आत्मा (बुद्ध्यवच्छिन्न चेतन) के साथ एकता बताई जाती है। जब महावाक्य द्वारा एकत्व का ज्ञान उत्पन्न हो जाता है॥७॥

तदाऽविद्या स्वकार्येश्च नश्यत्येव न संशयः।
एतद्विज्ञाय मद्भावा-योपपद्यते॥८॥
तो अविद्या अपने कार्यों सहित नष्ट हो जाती है, इसमें संशय नहीं है। इसको जान कर मेरा भक्त, मेरे भाव (स्वरुप) को प्राप्त हो जाता है॥८॥

मद्भक्‍तिविमुखानां हि शास्त्रगर्तेषु मुह्यताम्।
न ज्ञानं न च मोक्षःस्यात्तेषां जन्मशतैरपि॥९॥
मेरी भक्ति से विमुख जो लोग शास्त्र रूपी गड्ढे में मोहित हुए पड़े रहते हैं, उन्हें सौ जन्मों में भी न ज्ञान प्राप्त होता है और न मुक्ति ही॥९॥

इदं रहस्यं ह्रदयं ममात्मनो मयैव साक्षात्-
कथितं तवानघ। मद्भक्तिहीनाय शठाय च त्वया
दातव्यमैन्द्रादपि राज्यतोऽधिकम्॥१०॥
हे निष्पाप हनुमान! यह रहस्य मेरी आत्मा का भी हृदय है और यह साक्षात् मेरे द्वारा ही तुम्हें सुनाया गया है। यदि तुम्हें इंद्र के राज्य से भी अधिक संपत्ति मिले तो भी मेरी भक्ति से रहित किसी दुष्ट को इसे मत सुनाना॥१०॥

इति श्रीमदध्यात्मरामायण-
बालकांडोक्तं श्रीरामह्रदयं संपूर्णम्।
इस प्रकार श्री अध्यात्म रामायण के बाल कांड में कहा गया श्रीराम हृदय संपूर्ण हुआ॥

Monday, March 10, 2014

अष्टावक्र गीता - AshtaVakar Geeta
प्रथम अध्याय - 1st Adhyay


जनक उवाच -
कथं ज्ञानमवाप्नोति,
कथं मुक्तिर्भविष्यति।
वैराग्य च कथं प्राप्तमेतद
ब्रूहि मम प्रभो॥१॥

वयोवृद्ध राजा जनक, बालक अष्टावक्र से पूछते हैं - हे प्रभु, ज्ञान की प्राप्ति कैसे होती है, मुक्ति कैसे प्राप्त होती है, वैराग्य कैसे प्राप्त किया जाता है, ये सब मुझे बताए ||1||

अष्टावक्र उवाच -
मुक्तिमिच्छसि चेत्तात्,
विषयान विषवत्त्यज।
क्षमार्जवदयातोष, सत्यं
पीयूषवद्भज॥२॥


श्री अष्टावक्र उत्तर देते हैं - यदि आपमुक्ति चाहते हैं तो अपने मन से विषयों (वस्तुओं के उपभोग की इच्छा) को विष की तरह त्याग दीजिये। क्षमा, सरलता, दया, संतोष तथा सत्य का अमृत की तरह सेवन कीजिये ||2||

न पृथ्वी न जलं नाग्निर्न
वायुर्द्यौर्न वा भवान्।
एषां साक्षिणमात्मानं
चिद्रूपं विद्धि मुक्तये॥३॥

आप न पृथ्वी हैं, न जल, न अग्नि, न वायु अथवा आकाश ही हैं। मुक्ति के लिए इन तत्त्वों के साक्षी, चैतन्यरूप आत्मा को जानिए ||3||

यदि देहं पृथक् कृत्य
चिति विश्राम्य तिष्ठसि।
अधुनैव सुखी शान्तो
बन्धमुक्तो भविष्यसि॥४॥

यदि आप स्वयं को इस शरीर से अलग करके, चेतना में विश्राम करें तो तत्काल ही सुख, शांति और बंधन मुक्त अवस्था को प्राप्त होंगे ||4||

न त्वं विप्रादिको वर्ण:
नाश्रमी नाक्षगोचर:।
असङगोऽसि निराकारो
विश्वसाक्षी सुखी भव॥५॥

आप ब्राह्मण आदि सभी जातियोंअथवा ब्रह्मचर्य आदि सभी आश्रमों से परे हैं तथा आँखों से दिखाई न पड़ने वाले हैं। आप निर्लिप्त, निराकार और इस विश्व के साक्षी हैं, ऐसा जान कर सुखी हो जाएँ ||5||

धर्माधर्मौ सुखं दुखं
मानसानि न ते विभो।
न कर्तासि न भोक्तासि
मुक्त एवासि सर्वदा॥६॥

धर्म, अधर्म, सुख, दुःख मस्तिष्क सेजुड़ें हैं, सर्वव्यापक आप से नहीं। न आप करने वाले हैं और न भोगने वाले हैं, आप सदा मुक्त ही हैं ||6||

एको द्रष्टासि सर्वस्य
मुक्तप्रायोऽसि सर्वदा।
अयमेव हि ते बन्धो
द्रष्टारं पश्यसीतरम्॥७॥

आप समस्त विश्व के एकमात्र दृष्टा हैं, सदा मुक्त ही हैं, आप का बंधन केवल इतना है कि आप दृष्टा किसी और को समझते हैं ||7||

अहं कर्तेत्यहंमान
महाकृष्णाहिदंशितः।
नाहं कर्तेति विश्वासामृतं
पीत्वा सुखं भव॥८॥

अहंकार रूपी महासर्प के प्रभाववश आप 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा मान लेते हैं। 'मैं कर्ता नहीं हूँ', इस विश्वास रूपी अमृत को पीकर सुखी हो जाइये ||8||

एको विशुद्धबोधोऽहं
इति निश्चयवह्निना।
प्रज्वाल्याज्ञानगहनं
वीतशोकः सुखी भव॥९॥

मैं एक, विशुद्ध ज्ञान हूँ, इस निश्चय रूपी अग्नि से गहन अज्ञान वन को जला दें, इस प्रकार शोकरहित होकर सुखी हो जाएँ ||9||
यत्र विश्वमिदं भाति
कल्पितं रज्जुसर्पवत्।
आनंदपरमानन्दः स
बोधस्त्वं सुखं चर॥१०॥

जहाँ ये विश्व रस्सी में सर्प की तरह अवास्तविक लगे, उस आनंद, परम आनंद की अनुभूति करके सुख से रहें  ||10||

मुक्ताभिमानी मुक्तो हि
बद्धो बद्धाभिमान्यपि।
किवदन्तीह सत्येयं
या मतिः सा गतिर्भवेत्॥११॥

स्वयं को मुक्त मानने वाला मुक्त ही है और बद्ध मानने वाला बंधा हुआ ही है, यह कहावत सत्य ही है कि जैसी बुद्धि होती है वैसी ही गति होती है ||11||

आत्मा साक्षी विभुः
पूर्ण एको मुक्तश्चिदक्रियः।
असंगो निःस्पृहः शान्तो
भ्रमात्संसारवानिव॥१२॥

आत्मा साक्षी, सर्वव्यापी, पूर्ण, एक,मुक्त, चेतन, अक्रिय, असंग, इच्छारहित एवं शांत है। भ्रमवश ही ये सांसारिक प्रतीत होती है ||12||

कूटस्थं बोधमद्वैत-
मात्मानं परिभावय।
आभासोऽहं भ्रमं मुक्त्वा
भावं बाह्यमथान्तरम्॥१३॥

अपरिवर्तनीय, चेतन व अद्वैत आत्मा का चिंतन करें और 'मैं' के भ्रम रूपी आभास से मुक्त होकर, बाह्य विश्व की अपने अन्दर ही भावना करें ||13||

देहाभिमानपाशेन चिरं
बद्धोऽसि पुत्रक।
बोधोऽहं ज्ञानखंगेन
तन्निष्कृत्य सुखी भव॥१४॥

हे पुत्र! बहुत समय से आप 'मैं शरीर हूँ' इस भाव बंधन से बंधे हैं, स्वयं को अनुभव कर, ज्ञान रूपी तलवार से इस बंधन को काटकर सुखी हो जाएँ ||14||

निःसंगो निष्क्रियोऽसि
त्वं स्वप्रकाशो निरंजनः।
अयमेव हि ते बन्धः
समाधिमनुतिष्ठति॥१५॥

आप असंग, अक्रिय, स्वयं-प्रकाशवान तथा सर्वथा-दोषमुक्त हैं। आपका ध्यान द्वारा मस्तिस्क को शांत रखने का प्रयत्न ही बंधन है ||15||

त्वया व्याप्तमिदं विश्वं
त्वयि प्रोतं यथार्थतः।
शुद्धबुद्धस्वरुपस्त्वं मा
गमः क्षुद्रचित्तताम्॥१६॥

यह विश्व तुम्हारे द्वारा व्याप्त किया हुआ है, वास्तव में तुमने इसे व्याप्त किया हुआ है। तुम शुद्ध और ज्ञानस्वरुप हो, छोटेपन की भावना से ग्रस्त मत हो ||16||

निरपेक्षो निर्विकारो
निर्भरः शीतलाशयः।
अगाधबुद्धिरक्षुब्धो भव
चिन्मात्रवासन:॥१७॥

आप इच्छारहित, विकाररहित, घन (ठोस), शीतलता के धाम, अगाध बुद्धिमान हैं, शांत होकर केवल चैतन्य की इच्छा वाले हो जाइये ||17||

साकारमनृतं विद्धि
निराकारं तु निश्चलं।
एतत्तत्त्वोपदेशेन
न पुनर्भवसंभव:॥१८॥

आकार को असत्य जानकर निराकार को ही चिर स्थायी मानिये, इस तत्त्व को समझ लेने के बाद पुनः जन्म लेना संभव नहीं है ||18||

यथैवादर्शमध्यस्थे
रूपेऽन्तः परितस्तु सः।
तथैवाऽस्मिन् शरीरेऽन्तः
परितः परमेश्वरः॥१९॥

जिस प्रकार दर्पण में प्रतिबिंबित रूप उसके अन्दर भी है और बाहर भी, उसी प्रकार परमात्मा इस शरीर के भीतर भी निवास करता है और उसके बाहर भी ||19||

एकं सर्वगतं व्योम
बहिरन्तर्यथा घटे।
नित्यं निरन्तरं ब्रह्म
सर्वभूतगणे तथा॥२०॥

जिस प्रकार एक ही आकाश पात्र के भीतर और बाहर व्याप्त है, उसी प्रकार शाश्वत और सतत परमात्मा समस्त प्राणियों में विद्यमान है ||20||

Monday, February 17, 2014

श्री गुरु स्तोत्रम् - Shri Guru Stotrm

श्री महादेव्युवाच
गुरुर्मन्त्रस्य देवस्य धर्मस्य तस्य एव वा
विशेषस्तु महादेव ! तद् वदस्व दयानिधे

श्री महादेवी (पार्वती) ने कहा : हे दयानिधि शंभु ! गुरुमंत्र के देवता अर्थात् श्री गुरुदेव एवं उनका आचारादि धर्म क्या है - इस बारे में वर्णन करें ।
 
श्री महादेव उवाच
जीवात्मनं परमात्मनं दानं ध्यानं योगो ज्ञानम्
उत्कल काशीगंगामरणं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं ॥१॥

श्री महादेव बोले : जीवात्मा-परमात्मा का ज्ञान, दान, ध्यान, योग पुरी, काशी या गंगा तट पर मृत्यु - इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ।
 
प्राणं देहं गेहं राज्यं स्वर्गं भोगं योगं मुक्तिम्
भार्यामिष्टं पुत्रं मित्रं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं  ॥२॥

प्राण, शरीर, गृह, राज्य, स्वर्ग, भोग, योग, मुक्ति, पत्नी, इष्ट, पुत्र, मित्र - इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ।
 
वानप्रस्थं यतिविधधर्मं पारमहंस्यं भिक्षुकचरितम्
साधोः सेवां बहुसुखभुक्तिं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं  ॥३॥

वानप्रस्थ धर्म, यति विषयक धर्म, परमहंस के धर्म, भिक्षुक अर्थात् याचक के धर्म - इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ।
 
 
विष्णो भक्तिं पूजनरक्तिं वैष्णवसेवां मातरि भक्तिम्
विष्णोरिव पितृसेवनयोगं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं  ॥४॥

भगवान विष्णु की भक्ति, उनके पूजन में अनुरक्ति, विष्णु भक्तों की सेवा, माता की भक्ति, श्रीविष्णु ही पिता रूप में हैं, इस प्रकार की पिता सेवा - इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ।
 
प्रत्याहारं चेन्द्रिययजनं प्राणायां न्यासविधानम्
इष्टे पूजा जप तपभक्तिर्न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं  ॥५॥

प्रत्याहार और इन्द्रियों का दमन, प्राणायाम, न्यास-विन्यास का विधान, इष्टदेव की पूजा, मंत्र जप, तपस्या व भक्ति - इन सबमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ।
 
काली दुर्गा कमला भुवना त्रिपुरा भीमा बगला पूर्णा
श्रीमातंगी धूमा तारा न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं  ॥६॥

काली, दुर्गा, लक्ष्मी, भुवनेश्वरि, त्रिपुरासुन्दरी, भीमा, बगलामुखी (पूर्णा), मातंगी, धूमावती व तारा ये सभीमातृशक्तियाँ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ।
 
मात्स्यं कौर्मं श्रीवाराहं नरहरिरूपं वामनचरितम्
नरनारायण चरितं योगं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं  ॥७॥

भगवान के मत्स्य, कूर्म, वाराह, नरसिंह, वामन, नर-नारायण आदि अवतार, उनकी लीलाएँ, चरित्र एवं तप आदि भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ।
 
श्रीभृगुदेवं श्रीरघुनाथं श्रीयदुनाथं बौद्धं कल्क्यम्
अवतारा दश वेदविधानं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं  ॥८॥

भगवान के श्री भृगु, राम, कृष्ण, बुद्ध तथा कल्कि आदि वेदों में वर्णित दस अवतार श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ।
 
गंगा काशी कान्ची द्वारा मायाऽयोध्याऽवन्ती मथुरा
यमुना रेवा पुष्करतीर्थ न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं  ॥९॥

गंगा, यमुना, रेवा आदि पवित्र नदियाँ, काशी, कांची, पुरी, हरिद्वार, द्वारिका, उज्जयिनी, मथुरा, अयोध्या आदि पवित्र पुरियाँ व पुष्करादि तीर्थ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ।
 
गोकुलगमनं गोपुररमणं श्रीवृन्दावन-मधुपुर-रटनम्
एतत् सर्वं सुन्दरि ! मातर्न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं  ॥१०॥

हे सुन्दरी ! हे मातेश्वरी ! गोकुल यात्रा, गौशालाओं में भ्रमण एवं श्री वृन्दावन व मधुपुर आदि शुभ नामों का रटन - ये सब भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है
 
तुलसीसेवा हरिहरभक्तिः गंगासागर-संगममुक्तिः
किमपरमधिकं कृष्णेभक्तिर्न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं  ॥११॥

तुलसी की सेवा, विष्णु व शिव की भक्ति, गंगा सागर के संगम पर देह त्याग और अधिक क्या कहूँ परात्पर भगवान श्री कृष्ण की भक्ति भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ।
 
एतत् स्तोत्रम् पठति च नित्यं मोक्षज्ञानी सोऽपि च धन्यम्
ब्रह्माण्डान्तर्यद्-यद् ध्येयं न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं  ॥१२॥

इस स्तोत्र का जो नित्य पाठ करता है वह आत्मज्ञान एवं मोक्ष दोनों को पाकर धन्य हो जाता है
निश्चित ही समस्त ब्रह्माण्ड मे जिस-जिसका भी ध्यान किया जाता है, उनमें से कुछ भी श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है, श्री गुरुदेव से बढ़कर नहीं है ।

 
वृहदविज्ञान परमेश्वरतंत्रे त्रिपुराशिवसंवादे श्रीगुरोःस्तोत्रम्

यह गुरुस्तोत्र वृहद विज्ञान परमेश्वरतंत्र के अंतर्गत त्रिपुरा-शिव संवाद में आता है ।