शाण्डिल्य भक्ति सूत्र - Shandilya Bhaktisutr
तृतीय अध्याय प्रथम आह्निक - 3rd Adhyay 1st Aahnik
भजनीयेनाद्वितीयमिदं कृत्स्नस्य तत्स्वरूपत्वात्॥ ८५॥
यह सम्पूर्ण विश्व भजनीय - भगवान से अभिन्न है ; क्योंकि सब कुछ उनका ही स्वरूप है |
तच्चक्तिर्माया जडसामान्यात्॥ ८६॥
यह सम्पूर्ण विश्व भजनीय - भगवान से अभिन्न है ; क्योंकि सब कुछ उनका ही स्वरूप है |
तच्चक्तिर्माया जडसामान्यात्॥ ८६॥
भगवान की ऐश्वर्य शक्ति का नाम माया है | वह माया भी भगवान से भिन्न नहीं है ; क्योंकि जैसे अन्य जड़तत्त्व भगवत्स्वरूप हैं, वैसे यह माया भी है |
व्यापकत्वाद्वयाप्यानाम्॥ ८७॥
भगवान सच्चिदानन्द स्वरूप से सबमें व्यापक हैं ; व्याप्य वस्तुएँ व्यापक का स्वरूप होती हैं ; अतः कुछ भी भगवान से भिन्न नहीं है |
भगवान सच्चिदानन्द स्वरूप से सबमें व्यापक हैं ; व्याप्य वस्तुएँ व्यापक का स्वरूप होती हैं ; अतः कुछ भी भगवान से भिन्न नहीं है |
न प्राणिबुद्धिभ्योऽसम्भवात्॥ ८८॥
(इस संसार की सृष्टि बुद्धिपूर्वक हुई है - सोच-समझकर की गयी है; यह बात इसकी सूक्ष्मता, सृष्टिक्रम, उपयोगिता एवं व्यवस्था को देखते हुए प्रतीत होती है; तो क्या किसी जीव की बुद्धि से इस जगत का निर्माण हुआ है? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए सूत्रकार कहते हैं- ) नहीं, प्राणियों की बुद्धि से जगत की सृष्टि नहीं हुई है; क्योंकि जीव की स्वल्प बुद्धि के लिये यह असम्भव है (अतः ईश्वर ही इसके स्रष्टा हैं ) |
(इस संसार की सृष्टि बुद्धिपूर्वक हुई है - सोच-समझकर की गयी है; यह बात इसकी सूक्ष्मता, सृष्टिक्रम, उपयोगिता एवं व्यवस्था को देखते हुए प्रतीत होती है; तो क्या किसी जीव की बुद्धि से इस जगत का निर्माण हुआ है? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए सूत्रकार कहते हैं- ) नहीं, प्राणियों की बुद्धि से जगत की सृष्टि नहीं हुई है; क्योंकि जीव की स्वल्प बुद्धि के लिये यह असम्भव है (अतः ईश्वर ही इसके स्रष्टा हैं ) |
निर्मायोच्चावचं श्रुतीश्च निर्मिमीते पितृवत्॥ ८९॥
ऊँच-नीच अथवा स्थूल-सूक्ष्म भेद वाले समस्त दृश्य-प्रपंच एवं प्राणी वर्ग को उत्पन्न करके भगवान उन्हें हिताहित का परिज्ञान कराने के लिये वेदों का भी निर्माण (प्राकट्य) करते हैं | ठीक वैसे ही, जैसे पिता पुत्रों को उत्पन्न करके उन्हें कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान कराने के लिये शिक्षा की व्यवस्था करता है |
ऊँच-नीच अथवा स्थूल-सूक्ष्म भेद वाले समस्त दृश्य-प्रपंच एवं प्राणी वर्ग को उत्पन्न करके भगवान उन्हें हिताहित का परिज्ञान कराने के लिये वेदों का भी निर्माण (प्राकट्य) करते हैं | ठीक वैसे ही, जैसे पिता पुत्रों को उत्पन्न करके उन्हें कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान कराने के लिये शिक्षा की व्यवस्था करता है |
मिश्रोपदेशान्नेति चेन्न स्वल्पत्वात्॥ ९०॥
यदि कहें, 'वेद में धर्ममय यज्ञ-यागादी के साथ कहीं-कहीं हिंसात्मक यागों का भी उपदेश देखा जाता है; अतः अधर्म मिश्रित धर्म का उपदेश देने के कारण ईश्वर पिता के सामान हितकारी नहीं हैं' तो यह धारणा ठीक नहीं है; क्योंकि ऐसी बातें बहुत थोड़ी हैं और वह भी हिंसकों की बढ़ी हुई हिंसा वृत्ति को उन-उन यज्ञों में ही सीमित कर के धीरे-धीरे कम करने के लिये ही वैसी बातें कही गयी हैं | (वास्तव में तो हिंसा का निषेध ही वेद का अभीष्ट मत है |)
यदि कहें, 'वेद में धर्ममय यज्ञ-यागादी के साथ कहीं-कहीं हिंसात्मक यागों का भी उपदेश देखा जाता है; अतः अधर्म मिश्रित धर्म का उपदेश देने के कारण ईश्वर पिता के सामान हितकारी नहीं हैं' तो यह धारणा ठीक नहीं है; क्योंकि ऐसी बातें बहुत थोड़ी हैं और वह भी हिंसकों की बढ़ी हुई हिंसा वृत्ति को उन-उन यज्ञों में ही सीमित कर के धीरे-धीरे कम करने के लिये ही वैसी बातें कही गयी हैं | (वास्तव में तो हिंसा का निषेध ही वेद का अभीष्ट मत है |)
फलमस्माद्बादरायणो दृष्टत्वात्॥ ९१॥
कर्मों का फल ईश्वर से ही प्राप्त होता है, स्वतः नहीं ; क्योंकि लोक में ऐसा ही देखा गया है | (जैसे कोई अपने कार्य द्वारा राजा आदिको संतुष्ट करता है तो पुरस्कार पाता है और दुर्व्यवहार से उसे रुष्ट करता है तो दण्ड का भागी होता है; इसी प्रकार ईश्वर ही शुभाशुभ कर्मों का सुख-दुःख रूप फल देते हैं | यह बात भगवान वेदव्यास ने (उत्तरमीमांसा -ब्रह्मसूत्र १|१|२ में) कही है |
कर्मों का फल ईश्वर से ही प्राप्त होता है, स्वतः नहीं ; क्योंकि लोक में ऐसा ही देखा गया है | (जैसे कोई अपने कार्य द्वारा राजा आदिको संतुष्ट करता है तो पुरस्कार पाता है और दुर्व्यवहार से उसे रुष्ट करता है तो दण्ड का भागी होता है; इसी प्रकार ईश्वर ही शुभाशुभ कर्मों का सुख-दुःख रूप फल देते हैं | यह बात भगवान वेदव्यास ने (उत्तरमीमांसा -ब्रह्मसूत्र १|१|२ में) कही है |
व्युत्क्रमादप्ययस्तथा दृष्टम्॥ ९२॥
विपरीत क्रम से भूतों का अपने कारण में लय होता है, ऐसा ही देखा गया है | ( घट फूटने पर मिट्टी में लीन होता है; इसी प्रकार प्रत्येक व्याप्य वस्तु अपने में व्यापक कारण-तत्त्व में विलीन होती है; यथा पृथ्वी का जल में, जल का अग्नि में, अग्नि का वायु में और वायु का आकाश में लय होता है | )
विपरीत क्रम से भूतों का अपने कारण में लय होता है, ऐसा ही देखा गया है | ( घट फूटने पर मिट्टी में लीन होता है; इसी प्रकार प्रत्येक व्याप्य वस्तु अपने में व्यापक कारण-तत्त्व में विलीन होती है; यथा पृथ्वी का जल में, जल का अग्नि में, अग्नि का वायु में और वायु का आकाश में लय होता है | )
aapke jiwan ko or samast kul ko sadhovad hai ye atyant mahan sewa hai.ye atyant important shastr hai jo durlab hai or is sansaarikta me se samay nikal kar inko lene jana kuch kathin hai aise me sadhako ki itni badi sewa karna suchmuch sarahinye hai . bhagvan aapke hirdey me prakat ho aise sunder sewa ki or aap agrsar hai.ek or request hai aap se vivek chudamani ke kuch ansh load kar sake to sadhuvad .
ReplyDeleteaapka gurubhai
devender sharma
GIIT.DELHI