पूज्य बापूजी के दिव्य दर्शन और भारतीय संस्कृति का सर्वहितकारी ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

Wednesday, March 30, 2011




अत्रि स्तुति - Attri Stuti

(श्री तुलसीदास जी ) - Tulsidasji

नमामि भक्त वत्सलं, कृपालु शील कोमलं।
भजामि ते पदांबुजं, अकामिनां स्वधामदं॥१॥


हे भक्त वत्सल, हे कृपालु, हे कोमल स्वभाव वाले, आपको नमस्कार है। निष्काम पुरुषों को अपना परमधाम देने वाले आपके चरण कमलों का मैंभजन करता हूँ॥१॥

निकाम श्याम सुंदरं, भवांबुनाथ मंदरं।
प्रफुल्ल कंज लोचनं, मदादि दोष मोचनं॥२॥

आप निष्काम, साँवले-सलोने, संसार-समुद्र से मुक्ति के लिए मंदराचल रूपी मथानी के समान हैं (जिससे अमृत उत्पन्न होता है), विकसित कमल के समान नेत्रों वाले और अभिमान आदि दोषों को दूर करने वाले हैं॥२॥

प्रलंब बाहु विक्रमं, प्रभोऽप्रमेय वैभवं।
निषंग चाप सायकं, धरं त्रिलोक नायकं॥३॥

हे प्रभो, आपकी लंबी भुजाओं का पराक्रम और आपका ऐश्वर्य अप्रमेय (बुद्धि से सिद्ध न हो सकने वाला) है। आप धनुष-बाण और तरकस धारण करने वाले हैं, तीनों लोकों के स्वामी हैं॥३॥

दिनेश वंश मंडनं, महेश चाप खंडनं॥
मुनींद्र संत रंजनं, सुरारि वृंद भंजनं॥४॥

आप सूर्यवंश को गौरवान्वित करने वाले हैं, श्रीमहादेवजी के धनुष को तोड़ने वाले हैं, श्रेष्ठ मुनियों और संतों को आनंद देने वाले हैं और देवताओं के शत्रु असुरों के समूह का नाश करने वाले हैं॥४॥

मनोज वैरि वंदितं, अजादि देव सेवितं।
विशुद्ध बोध विग्रहं, समस्त दूषणापहं॥५॥


कामदेव के शत्रु श्रीमहादेवजी आपकी वंदना करते हैं, श्रीब्रह्मा आदि देव आपकी सेवा करते हैं, आप विशुद्ध ज्ञानमय शरीर वाले हैं और समस्त दोषों को नष्ट करने वाले हैं॥५॥

नमामि इंदिरा पतिं, सुखाकरं सतां गतिं।
भजे सशक्ति सानुजं, शची पति प्रियानुजं॥६॥

हे लक्ष्मीपते, हे आनंद के सागर और सत्पुरुषों की अंतिम गति, आपको नमस्कार है। हे इन्द्र के प्रिय अनुज (श्रीवामन)आपकी शक्ति श्रीसीता और छोटे भाई श्रीलक्ष्मण सहित आपका मैं  स्मरण करता हूँ॥६॥

त्वदंघ्रि मूल ये नराः, भजंति हीन मत्सराः।
पतंति नो भवार्णवे, वितर्क वीचि संकुले॥७॥


जो मनुष्य ईर्ष्या रहित होकर आपके चरण कमलों का सेवन करते हैं, वे विभिन्न संदेह रूपी लहरों वाले संसार रूपी समुद्र में (पुनः) नहीं गिरते हैं॥७॥

विविक्त वासिनः सदा, भजंति मुक्तये मुदा।
निरस्य इंद्रियादिकं, प्रयांति ते गतिं स्वकं॥८॥

एकान्त का सेवन करने वाले पुरुष, जो प्रसन्नता पूर्वक मुक्ति के लिए आपका सदैव भजन करते हैं, इन्द्रियों से उदासीन वे अपनी परम गति को प्राप्त होते हैं॥८॥

तमेकमद्भुतं प्रभुं, निरीहमीश्वरं विभुं।
जगद्गुरुं च शाश्वतं, तुरीयमेव केवलं॥९॥

आप एक (अद्वय), मायिक जगत से विलक्षण, प्रभुइच्छारहित, ईश्वर, व्यापकसदा समस्त विश्व को ज्ञान देने वालेतुरीय (तीनों अवस्थाओं से परे) और केवल अपने स्वरूप में स्थित हैं॥९॥

भजामि भाव वल्लभं, कुयोगिनां सुदुर्लभं।
स्वभक्त कल्प पादपं, समं सुसेव्यमन्वहं॥१०॥

जो प्रेम से प्रसन्न होने वाले हैं, विषयी पुरुषों के लिए जिनकी प्राप्ति कठिन है, जो अपने भक्तों की समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं, जो पक्षपातरहित और सदा सुखपूर्वक सेवा करने योग्य हैं, उनका मैं निरंतर भजन करता हूँ॥१०॥

अनूप रूप भूपतिं, नतोऽहमुर्विजा पतिं।
प्रसीद मे नमामि ते, पदाब्ज भक्ति देहि मे॥११॥

हे अनुपम रूप वाले प्रभु, हे जानकीनाथ, आपको प्रणाम है। आप मुझ पर प्रसन्न होइए, आपको नमस्कार है, आप मुझे अपने चरण कमलों की भक्ति दीजिए॥११॥

पठंति ये स्तवं इदं, नरादरेण ते पदं।
व्रजंति नात्र संशयं, त्वदीय भक्ति संयुताः॥ १२॥

जो मनुष्य इस स्तुति को आदरपूर्वक पढ़ते हैं, वे आपकी भक्ति से युक्त होकर निस्संदेह आपके परम पद को प्राप्त होते हैं॥१२॥

Sunday, March 20, 2011


दक्षिणामूर्ति स्तोत्रं - Dakshinamurti Strotrm

(श्रीमद् आद्य शंकराचार्य जी) -Shankracharyaji

विश्वं दर्पणदृश्यमाननगरीतुल्यं निजान्तर्गतम्,
पश्यन्नात्मनि मायया बहिरिवोद्भूतं यदा निद्रया।
यः साक्षात्कुरुते प्रबोधसमये स्वात्मानमेवाद्वयम्,
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥१॥

यह विश्व दर्पण में दिखाई देने वाली नगरी के समान है (अर्थात् अवास्तविक है),  स्वयं के भीतर है, मायावश आत्मा ही  बाहर प्रकट हुआ सा दिखता है  जैसे नींद में अपने अन्दर देखा गया स्वप्न बाहर उत्पन्न हुआ सा दिखाई देता है। जो आत्म-साक्षात्कार के समय यह ज्ञान देते हैं कि आत्मा एक (बिना दूसरे के) है उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ॥१॥

बीजस्यान्तरिवान्कुरो जगदिदं प्राङनिर्विकल्पं पुन-
र्मायाकल्पितदेशकालकलनावैचित्र्यचित्रीकृतम्।
मायावीव विजॄम्भयत्यपि महायोगोव यः स्वेच्छया
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥२॥

बीज के अन्दर स्थित अंकुर की तरह पूर्व में निर्विकल्प इस जगत, जो बाद में  पुनः माया से भांति - भांति के स्थान, समय , विकारों से चित्रित किया हुआ है,  को जो किसी मायावी जैसे,  महायोग से, स्वेच्छा से उद्घाटित करते हैं , उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ॥२॥

यस्यैव स्फुरणं सदात्मकमसत्कल्पार्थकं भासते
साक्षात्तत्त्वमसीति वेदवचसा यो बोधयत्याश्रितान्।
यत्साक्षात्करणाद्भवेन्न पुनरावृत्तिर्भवाम्भोनिधौ
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥३॥

जिनकी प्रेरणा से सत्य आत्म तत्त्व और उसके असत्य कल्पित अर्थ का ज्ञान हो जाता है, जो अपने आश्रितों को वेदों में कहे हुए 'तत्त्वमसि' का प्रत्यक्ष ज्ञान कराते हैं, जिनके साक्षात्कार के बिना इस भव-सागर से पार पाना संभव नहीं होता है, उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ॥३॥

नानाच्छिद्रघटोदरस्तिथमहादीपप्रभाभास्वरं
ज्ञानं यस्य तु चक्षुरादिकरणद्वारा बहिः स्पन्दते।
जानामीति तमेव भांतमनुभात्येतत्समस्तं जगत्
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥४॥

अनेक छिद्रों वाले घड़े में रक्खे हुए बड़े दीपक के प्रकाश के समान जो ज्ञान आँख आदि इन्द्रियों द्वारा बाहर स्पंदित होता है, जिनकी कृपा से मैं यह जानता हूँ कि उस प्रकाश से ही यह सारा संसार प्रकाशित होता है, उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ॥४॥

देहं प्राणमपीन्द्रियाण्यपि चलां बुद्धिं च शून्यं विदुः
स्त्रीबालांधजड़ोपमास्त्वहमिति भ्रान्ता भृशं वादिनः।
मायाशक्तिविलासकल्पितमहाव्यामोहसंहारिण॓
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥५॥

स्त्रियों, बच्चों, अंधों और मूढ के समान, देह, प्राण, इन्द्रियों, चलायमान बुद्धि और शून्य को 'मैं यह ही हूँ'  बोलने वाले मोहित हैं। जो माया की शक्ति के खेल  से निर्मित इस महान व्याकुलता का अंत करने वाले हैं, उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ॥५॥

राहुग्रस्तदिवाकरेंदुसदृशो मायासमाच्छादनात्
संमात्रः करणोपसंहरणतो योऽभूत्सुषुप्तः पुमान्।
प्रागस्वाप्समिति प्रबोधसमये यः प्रत्यभिज्ञायते
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥६॥ 

राहु से ग्रसित सूर्य और चन्द्र के समान, माया से सब प्रकार से ढँका होने के कारण, करणों के हट जाने पर अजन्मा सोया हुआ पुरुष  प्रकट हो जाता है। ज्ञान देते समय जो यह पहचान करा देते हैं कि पूर्व में सोये हुए यह तुम ही थे, उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ॥६॥

बाल्यादिष्वपि जाग्रदादिषु तथा सर्वास्ववस्थास्वपि
व्यावृत्तास्वनुवर्तमानमहमित्यन्तः स्फुरन्तं सदा।
स्वात्मानं प्रकटीकरोति भजतां यो मुद्रया भद्रया
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥७॥

बचपन आदि शारीरिक अवस्थाओं, जागृत आदि मानसिक अवस्थाओं और अन्य सभी अवस्थाओं में विद्यमान  और उनसे वियुक्त (अलग), सदा मैं यह हूँ की स्फुरणा करने वाले अपने आत्मा को स्मरण करने पर जो प्रसन्नता एवं सुन्दरता से प्रकट कर देते हैं, उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ॥७॥

विश्वं पश्यति कार्यकारणतया स्वस्वामिसम्बन्धतः
शिष्याचार्यतया तथैव पितृपुत्राद्यात्मना भेदतः।
स्वप्ने जाग्रति वा य एष पुरुषो मायापरिभ्रामितः
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥८॥

स्वयं के विभिन्न रूपों में जो विश्व को कार्य और कारण सम्बन्ध से, अपने और स्वामी के सम्बन्ध से,  गुरु और शिष्य सम्बन्ध से और पिता एवं पुत्र आदि के सम्बन्ध से देखता है, स्वप्न और जागृति में जो यह पुरुष जिनकी माया द्वारा घुमाया जाता सा लगता है, उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ॥८॥

भूरम्भांस्यनलोऽनिलोऽम्बरमहर्नाथो हिमांशुः पुमान्
इत्याभाति चराचरात्मकमिदं यस्यैव मूर्त्यष्टकम्।
नान्यत्किञ्चन विद्यते विमृशतां यस्मात्परस्माद्विभो -स्तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥९॥

जो भी इस स्थिर और गतिशील जगत में  दिखाई देता है, वह जिसके भूमि, जल, अग्नि, वायु , आकाश, सूर्य, चन्द्र और पुरुष आदि आठ रूपों में से है, विचार करने पर जिससे परे कुछ और विद्यमान नहीं है, सर्वव्यापक, उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ॥९॥

सर्वात्मत्वमिति स्फुटिकृतमिदं यस्मादमुष्मिन् स्तवे
तेनास्य श्रवणात्तदर्थमननाद्धयानाच्च संकीर्तनात्।
सर्वात्मत्वमहाविभूतिसहितं स्यादीश्वरत्वं  स्वतः
सिद्ध्येत्तत्पुनरष्टधा परिणतम् चैश्वर्यमव्याहतम्॥१०॥

सबके आत्मा आप ही हैं, जिनकी स्तुति से यह ज्ञान हो जाता है, जिनके बारे में सुनने से, उनके अर्थ पर विचार करने से, ध्यान और भजन करने से सबके आत्मारूप  आप समस्त विभूतियों सहित  ईश्वर स्वयं  प्रकट हो जाते हैं और अपने अप्रतिहत (जिसको रोका न जा सके) ऐश्वर्य से जो पुनः आठ रूपों में प्रकट हो जाते हैं, उन श्रीगुरु रूपी, श्री दक्षिणामूर्ति को नमस्कार है ॥१०॥

Sunday, March 6, 2011


प्रश्नोपनिषद्‍ - Prashnopnishad

षष्ठम प्रश्न - 6th Prashan

अथ हैनं सुकेशा भारद्वाजः पप्रच्छ ।
भगवन् हिरण्यनाभः कौसल्यो राजपुत्रो मामुपेत्यैतं प्रश्नमपृच्छत ।
षोडशकलं भारद्वाज पुरुषं वेत्थ । तमहं कुमारम्ब्रुवं नाहमिमं वेद ।
यध्यहमिममवेदिषं कथं ते नावक्ष्यमिति ।
समूलो वा एष परिशुष्यति योऽनृतमभिवदति तस्मान्नार्हम्यनृतं वक्तुम् ।
स तूष्णीं रथमारुह्य प्रवव्राज । तं त्वा पृच्छामि क्वासौ पुरुष इति ॥ १ ॥

तदनन्तर उन पिप्पलादाचार्य से भरद्वाज के पुत्र सुकेशा ने पूछा- “भगवन् ! कोसल देश के राजकुमार हिरण्यनाभ ने मेरे पास आकर यह प्रश्न पूछा था-‘भारद्वाज ! क्या तू सोलह कलाओं वाले पुरुष को जानता है ?’तब मैंने उस कुमार से कहा-‘मैं इसे नहीं जानता; यदि मैं इसे जानता होता तो तुझे क्यों न बतलाता ? जो पुरुष मिथ्या भाषण करता है वह सब ओर से मूलसहित सूख जाता है; अतः मैं मिथ्या भाषण नहीं कर सकता।‘ तब वह चुपचाप रथपर चढ़कर चला गया । सो अब मैं आपसे उसके विषय मे पूछता हूँ कि वह पुरुष कहाँ है ?” ।।1।।

तस्मै स होवाच । इहैइवान्तःशरीरे सोभ्य स पुरुषो यस्मिन्नताः षोडशकलाः प्रभवन्तीति ॥ २ ॥

उससे आचार्य पिप्पलाद ने कहा- ‘हे सोम्य ! जिसमे इन सोलह कलाओं का प्रादुर्भाव होता है वह पुरुष इस शरीर के भीतर ही वर्तमान है ॥2॥

स ईक्षाचक्रे । कस्मिन्नहमुत्क्रान्त उत्क्रान्तो भविष्यामि कस्मिन्वा प्रतिष्टिते प्रतिष्टस्यामीति ॥ ३ ॥

उसने विचार किया कि किसके उत्क्रमण करने पर मैं भी उत्क्रमण कर जाऊँगा और किसके स्थित रहने पर मैं स्थित रहूँगा ? ॥3॥

स प्राणमसृजत प्राणाच्छ्रद्धां खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवीन्द्रियं मनः ।
अन्नमन्नाद्वीर्यं तपो मन्त्राः कर्म लोका लोकेषु च नाम च ॥ ४ ॥

उस पुरुष ने प्राण को रचा; फिर प्राण से श्रद्धा, आकाश, वायु, तेज, जल, पृथ्वी, इन्द्रिय, मन और अन्न को तथा अन्न से वीर्य, तप, मन्त्र, कर्म और लोकों को एवं लोकों मे नाम को उत्पन्न किया ॥4॥

स यथेमा नध्यः स्यन्दमानाः समुद्रायणाः समुद्रं प्राप्यास्तं गच्छन्ति भिध्येते तासां नामरुपे समुद्र इत्येवं प्रोच्यते ।
एवमेवास्य परिद्रष्टुरिमाः षोडशकलाः पुरुषायणाः पुरुषं प्राप्यास्तं गच्छन्ति भिध्येते चासां नामरुपे पुरुष इत्येवं प्रोच्यते स एषोऽकलोऽमृतो भवति तदेष श्लोकः ॥ ५ ॥

वह [दृष्टान्त] इस प्रकार है-जिस प्रकार समुद्र की ओर बहती हुई ये नदियाँ समुद्र मे पहुँच कर अस्त हो जाती हैं, उनके नाम-रूप नष्ट हो जाते हैं, और वे ‘समुद्र’ ऐसा कहकर ही पुकारी जाती हैं । इसी प्रकार इस सर्वद्रष्टा की ये सोलह कलाएँ, जिनका अधिष्ठान पुरुष ही है, उस पुरुष को प्राप्त होकर लीन हो जाती हैं । उनके नाम-रूप नष्ट हो जाते हैं और वे ‘पुरुष’ ऐसा कहकर ही पुकारी जाती हैं । वह विद्वान् कलाहीन और अमर हो जाता है । इस सम्बन्ध मे यह श्लोक प्रसिद्ध है ॥5॥

अरा इव रथनाभौ कला यस्मिन्प्रतिष्टिताः । तं वेध्यं पुरुषं वेद यथ मा वो मृत्युः परिव्यथा इति ॥ ६ ॥

जिसमे रथ की नाभि मे अरों के समान सब कलाएँ आश्रित हैं, उस ज्ञातव्य पुरुष को तुम जानो; जिससे कि मृत्यु तुम्हें कष्ट न पहुँचा सके ॥6॥

तान् होवाचैतावदेवाहमेतत् परं ब्रह्म वेद । नातः परमस्तीति ॥ ७ ॥

तब उनसे उस (पिप्पलाद मुनि)- ने कहा- इस परब्रह्म को मैं इतना ही जानता हूँ । इससे अन्य और कुछ [ज्ञातव्य] नहीं है ॥7॥

ते तमर्चयन्तस्त्वं हि नः पिता योऽस्माकमविध्यायाः परं परं तारयसीति ।
नमः परमऋषिभ्यो नमः परमऋषिभ्यः ॥ ८ ॥

तब उन्होने उनकी पूजा करते हुए कहा- आप तो हमारे पिता हैं जिन्होने कि हमे अविद्या के दूसरे पार पर पहुँचा दिया है; आप परमर्षि को हमारा नमस्कार हो, नमस्कार हो ॥8॥

इति प्रश्नोपनिषदि षष्ठः प्रश्नः ॥