पूज्य बापूजी के दिव्य दर्शन और भारतीय संस्कृति का सर्वहितकारी ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

Thursday, April 28, 2011



पार्वती मंगल भाग 5 - 8 - Parvati Mangal 5-8
(श्री तुलसीदास जी) - Tulsidasji


फिरेउ मातु पितु परिजन लखि गिरिज पन ।
जेहिं अनुरागु लागु चितु सोइ हितु आपन ॥३३॥
तजेउ भोग जिमि रोग लोग अहि गन जनु ।
मुनि मनसहु ते अगम तपहिं लायो मनु ॥३४॥


पार्वतीजी की (दृढ) प्रतिज्ञा को देखकर माता-पिता और परिजन लौट आये । जिसमें अनुरागपूर्वक चित्त लग जाता है, वही अपना प्रिय है ॥33॥ 
उन्होंने भोगों को रोग के समान और लोगों को सर्पों के झुंड के समान त्याग दिया तथा जो मुनियों को भी मन के द्वारा अगम्य था , ऐसे तप में मन लगा दिया ॥34॥


सकुचहिं बसन बिभूषन परसत जो बपु ।
तेहिं सरीर हर हेतु अरंभेउ बड़ तपु ॥३५॥
पूजइ सिवहि समय तिहुँ करइ निमज्जन ।
देखि प्रेमु ब्रतु नेमु सराहहिं सज्जन ॥३६॥


जिस शरीर को स्पर्श करने में वस्त्र- आभूषण भी सकुचाते थे, उसी शरीर से उन्होंने शिवजी के लिये बड़ी भारी तपस्या आरम्भ कर दी ॥35॥ 
वे तीनों काल स्त्रान करती हैं और शिवजी की पूजा करती हैं । उनके प्रेम, व्रत और नियम को सज्जन (साधु) लोग भी सराहते हैं ॥36॥ 


नीद न भूख पियस सरिस निसि बासरु ।
नय न नीरु मुख नाम पु लक तनु हियँ हरु ॥३७॥
कंद मूल फल असन, कबहुँ जल पवनहि ।
सूखे बेलके पात खात दिन गवनहि ॥३८॥


उनके लिये रात-दिन बराबर हो गये हैं ; न नींद है न भूख अथवा न प्यास ही है । नेत्रों में आँसू भरे रहते हैं, मुख से शिव- नाम उच्चारण होता रहता है, शरीर पुलकित रहता है और हृदय में शिवजी बसे रहते हैं ॥37॥ 
कभी कन्द, मूल, फल का भोजन होता है, कभी जल और वायु पर ही निर्वाह होता है और कभी बेल के सूखे पत्ते खाकर ही दिन बिता दिये जाते हैं ॥38॥


नाम अपरना भयउ परन जब परिहरे ।
नवल धवल कल कीरति सकल भुवन भरे ॥३९॥
देखि सरहहिं गिरिजहि मुनिबरु मुनि बहु ।
अस तप सुना न दीख कबहुँ काहुँ कहु ॥४०॥


जब पार्वतीजी ने (सूखे) पत्तों को भी त्याग दिया , तब उनका नाम ’अपर्णा’ पड़ा । उनकी नवीन, निर्मल एवं मनोरम कीर्ति से चौदहों भुवन भर गये ॥39॥ 
पार्वतीजी का तप देखकर बहुत-से मुनिवर और उनकी सराहना करते हैं कि ऐसा तप कभी कहीं किसी ने न देखा और न तो सुना ही था ॥40॥ 


काहुँ न देरव्यौ कहहिं यह तपु जोग फल चारि का ।
नहिं जानि जाइ न कहति चाहति काहि कुधर - कुमारिका ॥
बटु बेष पेखन पेम पनु ब्रत नेम ससि सेखर गएमनसहिं 
समरपेउ आपु गिरिजहि बचन मृदु बोलत भए ॥५॥


वे कहते हैं ऐसा तप किसी ने नहीं देखा । इस तप के योग्य फल क्या चार फल अर्थात् अर्थ, धर्म, काम एवं मोक्ष (कभी) हो सकते हैं ? पर्वतराजकुमारी उमा क्या चाहती है ; जाना नहीं और न वे कुछ कहती ही हैं । तब शशिशेखर श्रीमहादेवजी ब्रह्मचारी का वेष बना उनके प्रेम, (कठोर) नियम, प्रतिज्ञा और (दृढ़) संकल्प की परिक्षा करने के लिये गये । उन्होंने मन-ही-मन अपने को पार्वतीजी के हाथों सौंप दिया और पार्वतीजी से सुमधुर वचन कहने लगे ॥5॥


देखि दसा करुनाकर हर दुख पायउ । 
मोर कठोर सुभाय हदयँ अस आयउ ॥४१॥
बंस प्रसंसि मातु पितु कहि सब लायक ।
अमिय बचनु बटु बोलेउ अति सुख दायक ॥४२॥


उस समय पार्वतीजी की दशा देखकर दयानिधान शिवजी दुखी हो गये और उनके हृदय में यह आया कि मेरा स्वभाव (बड़ा ही ) कठोर है । यही कारण है कि मेरी प्रसन्नता के लिये साधकों को इतना तप करना पड़ता है ॥41॥ 
तब वह ब्रह्मचारी पार्वतीजी के वंश की प्रशंसा करके और उनके माता-पिता को सब प्रकार से योग्य कह अमृत के समान मीठे और सुखदायक वचन बोला ॥42॥


देबि करौं कछु बिनती बिलगु न मानब ।
कहउँ सनेहँ सुभाय साँच जियँ जानब ॥४३॥
जननि जगत जस प्रगटेहु मातु पिता कर ।
तीय रतन तुम उपजिहु भव रतनाकर ॥४४॥


शिवजी ने कहा - ’हे देवि ! मैं कुछ विनती करता हूँ, बुरा न मानना । मैं स्वाभाविक स्त्रेह से कहता हूँ, अपने जी में इसे सत्य जानना ॥43॥ 
तुमने संसार में प्रकट होकर अपने माता-पिता का यश प्रसिध्द कर दिया । तुम संसारसमुद्र में स्त्रियों के बीच रत्न - सदृश उत्पन्न हुई हो’ ॥44॥


अगम न कछु जग तुम कहँ मोहि अस सूझइ ।
बिनु कामना कलेस कलेस न बूझइ ॥४५॥
जौ बर लागि करहू तप तौ लरिकइअ ।
पारस जौ घर मिलौ तौ मेरु कि जाइअ ॥४६॥


’मुझे ऐसा जान पड़ता है कि संसार में तुम्हारे लिये कुछ भी अप्राप्य नहीं है यह भी सच है कि निष्काम तपस्या में क्लेश नहीं जान पड़ता ॥45॥ 
परंतु यदि तुम वर (दुलहा) के लिये तप करती हो तो यह तुम्हारा लड़कपन है; क्योंकि यदि घर में ही पारसमणि मिल जाय तो क्या कोई सुमेरुपर जायगा ? ॥46॥


मोरें जान कलेस करिअबिनु काजहि ।
सुधा कि रोगिहि चाहइ रतन की राजहि ॥४७॥
लखि न परेउ तप कारन बटु हियँ हारेउ ।
सुनि प्रिय बचन सखी मुख गौरि निहारेह ॥४८॥


’हमारी समझसे तो तुम बिना प्रयोजन ही क्लेश उठाती हो । अमृत क्या रोगी को चाहता है और रत्न क्या राजा की कामना करता है ? ’ ॥47॥ 
इस ब्रह्मचारी को आपके तप का कोई कारण समझ में नहीं आया, यह सोचते-सोचते अपने हृदय में हार गया है, इस प्रकार उसके प्रिय वचन सुनकर पार्वतीने सखी के मुख की ओर देखा ॥48॥


गौरीं निहारेउ सखी मुख रुख पाइ तेहिं कारन कहा ।
तपु करहिं हर हितु सुनि बिहँसि बटु कहत मुरुखाई महा ॥
जेहिं दीन्ह अस उपदेस बरेहु कलेस करि बरु बावरो ।
हित लागि कहौं सुभायँ सो बड़ बिषम बैरी रावरो॥६॥


पार्वतीजी ने सखी के मुख की ओर देखा ; तब सखी ने उनकी अनुमति जानकर उनके तप का कारण (यह) बतलाया कि वे शिवजी के लिये तपस्या करती हैं । यह सुनकर ब्रह्मचारी ने हँसकर कहा कि ’यह ( तो तुम्हारी ) महान् मूर्खता है।’ जिसने तुम्हें ऐसा उपदेश दिया है कि जिसके कारण तुमने इतना क्लेश उठाकर बावले वर का वरण किया है, मैं तुम्हारी भलाई के लिये सभ्दाववश कहता हूँ कि वह तुम्हारा घोर शत्रु है ॥6॥


कहहु काह सुनि रीझिहु बर अकुलीनहिं 
अगुन अमान अजाति मातु पितु हीनहिं ॥४९॥
भीख मागि भव खाहिं चिता नित सोचहिं 
नाचहिं नगन पिसाच पिसाचिनि जोवहिं ॥५०॥ 


(अच्छा) यह तो बताओ कि क्या सुनकर तुम ऐसे कुलहीन वरपर रीझ गयी, जो गुरहित, प्रतिष्ठारहित और माता-पितारहित है ॥49॥
वे शिवजी तो भीख माँगकर खाते हैं, नित्य (श्मशानमें) चिता (भस्म) पर सोते हैं, नग्न होकर नाचते हैं और पिशाच-पिशाचिनी इनके दर्शन किया करते हैं’ ॥50॥


भाँग धतूर अहार छार लपटावहिं ।
जोगी जटिल सरोष भोग नहिम भावहिं ॥५१॥
सुमुखि सुलोचनि हर मुख पंच तिलोचन ।
बामदेव फुर नाम काम मद मोचन ॥५२॥


’भाँग-धतूरा ही इनका भोजन है ; ये शरीरमें राख लपटाये रहते हैं । ये योगी, जटाधारी और क्रोधी हैं ; इन्हें भोग अच्छे नहीं लगते ’ ॥51॥ 
तुम सुन्दर मुख और सुन्दर नेत्रों वाली हो, किंतु शिवजी के तो पाँच मुख और तीन आँखें हैं । उनका वामदेव नाम यथार्थ ही है । वे कामदेव के मदको चूर करनेवाला अर्थात् काम -विजयी हैं ॥52॥


एकउ हरहिं न बर गुन कोटिक दूषन । 
नर कपाल गज खाल ब्याल बिष भूषन ॥५३॥
कहँ राउर गुन सील सरुष सुहावान ।
कहाँ अमंगल बेषु बिसेषु भयावन


’शंकर में एक भी श्रेष्ठ गुण नहीं है वरं करोड़ों दूषण हैं । वे नरमुण्ड और हाथी के खाल को धारण करनेवाले तथा साँप और विष से विभूषित हैं’ ॥53॥ 
कहाँ तो तुम्हारा गुण, शील और शोभायमान स्वरुप और कहाँ शंकर का अमङगल वेष , जो अत्यन्त भयानक है ॥54॥


जो सोचइ ससि कलहि सो सोचइ रौरेहि ।
कह मोर मन धरि न बिरय बर बौरेहि ॥५५॥
हिए हेरि हठ तजहु हठै दुख पैहहु ।
ब्याह समय सिख मोरि समुझि पछितैहहु ॥५६॥


’जो शंकर शशिकला की चिन्तामें रहते हैं, वे क्य तुम्हारा ध्यान रखेंगे ? मेरे कहे हुए । वचनोंको हृदय में धारणा कर तुम बावले वर को न वरना’ ॥55॥ 
अपने हृदय में विचारकर हठ त्याग दो ; हठ करने से तुम दु:ख ही पाओगी और ब्याह के समय हमारी शिक्षा को याद कर-करके पछताओगी ॥56॥ 


पछिताब भूत पिताच प्रेत जनेत ऐहैं साजि कै ।
जम धार सरिस निहारि सब नर - नारि चलिहहिं भाजि कै ॥
गज अजिन दुकूल जोरत सखी हँसि मुख मोरि कै ।
कोउ प्रगट कोउ हियँ कहिहि मिलवत अमिय माहुर घोरि कै ॥७॥


’जिस समय वे भूत-पिशाच और प्रेतों की बरात सजाकर आयेंगे ’ तब तुम्हें पछताना पड़ेगा । उस बरात को यमदूतों की सेना के समान देखकर स्त्री- पुरुष सब भाग चलेंगे । (ग्रन्थिबन्धनके समय ) अत्यन्त
 सुन्दर रेशमी वस्त्र को हाथी के चर्मके साथ जोड़ते हुए सखियाँ मुँह फेरकर हँसेंगी और कोई प्रकट एवं कोई हृदय में ही कहेगी कि अमृत और विष को घोलकर मिलाया जा रहा है ॥7॥


तुमहिं सहित असवार बसहँ जब होइहहिं ।
निरखित नगर नर नारि बिहँसि मुख गोइहहिं ॥५७॥
बटु करि कोटि कुतरक जथा रुचि बोलइ ।
अचल सुता मनु अचल बयारि कि डोलइ ॥५८॥


’जब तुम्हारे साथ शिवजी बैल पर सवार होंगे, तब नगर के स्त्री-पुरुष देखकर हँसते हुए अपने मुख छिपा लेंगे’ ॥57॥ 
इसी प्रकार अनेकों कुतर्क करके ब्रह्मचारी इच्छानुसार बोल रहा था ; परंतु पर्वत की पुत्री का मन डिगा नहीं , भला कहीं हवा से पर्वत डोल सकता है ? ॥58॥


साँच सनेह साँच रुचि जो हठि फेरइ ।
सावन सरिस सिंधु रुख सूप सो घेरइ ॥५९॥
मनि बिनु फनि जल हीन मीन तनु त्यागइ ।
सो कि दोष गुन गनइ जो जेहि अनुरागइ ॥६०॥


जो सत्य स्नेह और सच्ची रुचि को फेरना चाहता है , वह (तो) मानो सावन के महीने (वर्षा ऋतु) में नदी के प्रवाह को समुद्र की ओर सूप से घुमाने की चेष्टा करता है ॥59॥
मणि के बिना सर्प और जल के बिन मछली शरीर त्याग देती है, ऐसे ही जो जिसके साथ प्रेम करता है, वह क्या उसके दोष- गुण का विचार करता है ? ॥60॥


करन कटुक चटु बचन बिसिष सम हिय हए । 
चढ़ि भृकुटि अधर फरकत भए ॥६१॥
बोली फिर लखि सखिहि काँपु तन थर थर ।
आलि बिदा करु बटुहि बेगि बड़ बरबर ॥६२॥


ब्रह्मचारी के कर्णकटु चाटु वचनों ने पार्वतीजी के हॄदय में तीरके समान आघात किया ? उनकी आँखें लाल हो गयीं, भृकुटियाँ तन गयीं और होठ फड़कने लगे ॥61॥ 
उनका शरीर थर -थर काँपने लगा । फिर उन्होंने सखी की ओर देखकर कहा-’अरी आली ! इस ब्रह्मचरी को शीघ्र बिदा करो, यह (तो) बड़ा ही अशिष्ट है’ ॥62॥ 


कहुँ तिय होहिं सयानि सुनहिं सिख राउरि ।
बौरेहि कैं अनुराग भइउँ बड़ि बाउरि ॥६३॥
दोष निधान इसानु सत्य सबु भाषेउ ।
मेटि को सकइ सो आँकु जो बिधि लिखि राखेउ ॥६४॥


(फिर ब्रह्मचारी को सम्बोधित करके कहने लगीं -) कहीं कोई चतुर स्त्रियाँ होंगी, वे आपकी शिक्षा सुनेंगी, मैं तो बावले के प्रेम में ही अत्यन्त बावली हो गयी हूँ’ ॥63॥ 
आपने जो कह कि महादेवजी दोषनिधान हैं, सो सब सत्य ही कहा है ; परंतु विधाता ने जो अङक लिख रखे हैं, उन्हें कौन मिटा सकता है ?॥64॥


को करि बादु बिबादु बिषादु बढ़ावइ ।
मीठ काहि कबि कहहिं जाहि जोइ भावइ ॥६५॥ 
भइ बड़ि बार आलि कहुँ काज सिधारहिं ।
बकि जनि उठहिं बहोरि कुजुगुति सवाँरहिं ॥६६॥


’वाद-विवाद करके कौन दु:ख बढ़ाये ? कवि किसको मीठा कहते हैं ? जिसको जो अच्छा लगता है’ । (भाव यह कि जिसको जो अच्छा लगे , उसके लिये वही मीठा है ।) (फिर सखीसे बोली -) हे सखी ! इनसे कहो बहुत देर हो गयी है, अब अपने काम के लिये कहीं जायँ । देखो ,किसी कुयुक्ति को रचकर फिर कुछ न बक उठें ॥65-66॥


जनि कहहिं छु बिपरीत जानत प्रीति रीति न बात की ।
सिव साधु निंदकु मंद अति जोउ सुनै सोउ बड़ पातकी ॥
सुनि बचन सोधि सनेहु तुलसी साँच अबिचल पावनो ।
भए प्रगट करुनासिंधु संकरु भाल चंद सुहावनो ॥८॥


’ये प्रीति की तो क्या, बात करने की रीति भी नहीं जानते; अतएव कोई विपरीत बात (फिर) न कहें । शिवजी और साधुओ कीं निन्दा करनेवाले अत्यन्त मन्द अर्थात् नीच होते हैं ; उस निन्दा को जो कोई सुनता है, वह भी बड़ा पापी होता है ।’ गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि इस वचन को सुन उनका सत्य, दृढ़ और पवित्र प्रेम जानकर करुणासिन्धु श्रीमहादेव जी प्रकट हो गये ; उनके ललाट में चन्द्रमा शोभायमान हो रहा था ॥8

Thursday, April 14, 2011


तैत्तिरीयोपनिषद् - Tatriyopnishad


ब्रह्मानन्दवल्ली - Brhamanandvalli

ॐ ब्रह्मविदाप्नोति परम् | तदेषाऽभ्युक्ता | सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म | यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन् | सोऽश्नुते सर्वान् कामान् सह | ब्रह्मणा विपश्चितेति || तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः संभूतः | आकाशाद्वायुः | वायोरग्निः | अग्नेरापः | अद्भ्यः पृथिवी |पृथिव्या ओषधयः | ओषधीभ्योऽन्नम् | अन्नात्पुरुषः | स वा एष पुरुषोऽन्न्नरसमयः | तस्येदमेव शिरः |अयं दक्षिणः पक्षः | अयमुत्तरः पक्षः | अयमात्मा | इदं पुच्छं प्रतिष्ठा |तदप्येष श्लोको भवति ||इति प्रथमोऽनुवाकः |

ब्रह्मवेत्ता परमात्मा को प्राप्त कर लेता है । उसके विषय मे यह [ श्रुति ] कही गयी है- ‘ब्रह्म सत्य, ज्ञान और अनन्त है ।‘ जो पुरुष उसे बुद्धिरूप परम आकाश मे निहित जानता है, वह सर्वज्ञ  ब्रह्मरूप से एक साथ ही सम्पूर्ण भोगों को प्राप्त कर लेता है । उस इस आत्मा से ही आकाश उत्पन्न हुआ । आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी, पृथ्वी से औषधियाँ, औषधियों से अन्न और अन्न से पुरुष उत्पन्न हुआ । वह यह पुरुष अन्न एवं रसमय ही है । उसका यह [शिर] ही शिर है, यह [ दक्षिण बाहु ] ही दक्षिण पक्ष है, यह [ वाम बाहु ] वाम पक्ष है, यह [ शरीर का मध्य भाग ] आत्मा है और यह [ नीचे का भाग ] पुच्छ प्रतिष्ठा है । उसके विषय मे ही यह श्लोक है ॥


अन्नाद्वै प्रजाः प्रजायन्ते | याः काश्च पृथिवीँ श्रिताः | अथो अन्नेनैव जीवन्ति | अथैनदपि यन्त्यन्ततः | अन्नँ हि भूतानां ज्येष्ठम् | तस्मात् सर्वौषधमुच्यते | सर्वं वै तेऽन्नमाप्नुवन्ति | येऽन्नं ब्रह्मोपासते | अन्नँ हि भूतानां ज्येष्ठम् | तस्मात् सर्वौषधमुच्यते | अन्नाद् भूतानि जायन्ते | जातान्यन्नेन वर्धन्ते | अद्यतेऽत्ति च भूतानि | तस्मादन्नं तदुच्यत इति | तस्माद्वा एतस्मादन्नरसमयात् | अन्योऽन्तर आत्मा प्राणमयः | तेनैष पूर्णः | स वा एष पुरुषविध एव | तस्य पुरुषविधताम् | अन्वयं पुरुषविधः | तस्य प्राण एव शिरः | व्यानो दक्षिणः पक्षः | अपान उत्तरः पक्षः | आकाश आत्मा | पृथिवी पुच्छं प्रतिष्ठा | तदप्येष श्लोको भवति || इति द्वितीयोऽनुवाकः ||

अन्न से ही प्रजा उत्पन्न होती है । जो कुछ प्रजा पृथ्वी को आश्रित करके स्तिथ है वह सब अन्न से ही उत्पन्न होती है; फिर वह अन्न से ही जीवित रहती है और अन्त मे उसी मे लीन हो जाती है, क्योंकि अन्न ही प्राणियों का ज्येष्ठ ( अग्रज- पहले उत्पन्न होनेवाला ) है । इसी से वह सर्वौषध कहा जाता है । जो लोग ‘अन्न ही ब्रह्म है’ इस प्रकार उपासना करते हैं वे निश्चय ही सम्पूर्ण अन्न प्राप्त करते हैं । अन्न ही प्राणियों मे बड़ा है ; इसलिए वह सर्वौषध कहलाता है । अन्न से ही प्राणी उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर अन्न से ही वृद्धि को प्राप्त होते हैं । अन्न प्राणियों द्वारा खाया जाता है और वह भी उन्हीं को खाता है । इसी से वह ‘अन्न’ कहा जाता है । उस इस अन्नरसमय पिण्ड से, उसके भीतर रहनेवाला दूसरा शरीर प्राणमय है । उसके द्वारा यह ( अन्नमय कोश ) परिपूर्ण है । वह यह ( प्राणमय कोश ) भी पुरुषाकार ही है । उस ( अन्नमय कोश )- की पुरुषाकारता के अनुसार ही यह भी पुरुषाकार ही है । उसका प्राण ही सिर है । व्यान दक्षिण पक्ष है । अपान उत्तर पक्ष है । आकाश आत्मा ( मध्यभाग ) है और पृथ्वी पुच्छ- प्रतिष्ठा है । उसके विषय मे ही यह श्लोक है ॥


प्राणं देवा अनु प्राणन्ति | मनुष्याः पशवश्च ये | प्राणो हि भूतानामायुः | तस्मात् सर्वायुषमुच्यते | सर्वमेव त आयुर्यन्ति | ये प्राणं ब्रह्मोपासते | प्राणो हि भूतानामायुः | तस्मात् सर्वायुषमुच्यत इति | तस्यैष एव शारीर आत्मा | यः पूर्वस्य | तस्माद्वा एतस्मात् प्राणमयात् | अन्योऽन्तर आत्मा मनोमयः | तेनैष पूर्णः | स वा एष पुरुषविध एव | तस्य पुरुषविधताम् | अन्वयं पुरुषविधः | तस्य यजुरेव शिरः | ऋग्दक्षिणः पक्षः | सामोत्तरः पक्षः | आदेश आत्मा | अथर्वाङ्गिरसः पुच्छं प्रतिष्ठा | तदप्येष श्लोको भवति ||इति तृतीयोऽनुवाकः ||

देवगण प्राण के अनुगामी होकर प्राणन- क्रिया करते हैं तथा जो मनुष्य और पशु आदि हैं [ वे भी प्राणन- क्रिया से ही चेष्टावान् होते हैं ] । प्राण ही प्राणियों की आयु ( जीवन ) है । इसीलिये वह ‘सर्वायुष’ कहलाता है । जो प्राण को ब्रह्मरूप से उपासना करते हैं वे पूर्ण आयु को प्राप्त होते हैं । प्राण ही प्राणियों की आयु है । इसलिये वह ‘सर्वायुष’ कहलाता है । उस पूर्वोक्त ( अन्नमय कोश )- का यही देहस्तिथ आत्मा है । उस इस प्राणमय कोश से दूसरा इसके भीतर रहने वाला आत्मा मनोमय है । उसके द्वारा यह पूर्ण है । वह यह [ मनोमय कोश ] भी पुरुषाकार ही है । उस ( प्राणमय कोश )- की पुरुषाकारता के अनुसार ही यह भी पुरुषाकार है । यजुः ही उसका सिर है, ऋक् दक्षिण पक्ष है, साम उत्तर पक्ष है, आदेश आत्मा है तथा अथर्वाङ्ग़िरस पुच्छ- प्रतिष्ठा है । उसके विषय मे ही यह श्लोक है ।।



यतो वाचो निवर्तन्ते | अप्राप्य मनसा सह | आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् | न बिभेति कदाचनेति | तस्यैष एव शारीर आत्मा | यः पूर्वस्य | तस्माद्वा एतस्मान्मनोमयात् | अन्योऽन्तर आत्मा विज्ञानमयः | तेनैष पूर्णः | स वा एष पुरुषविध एव | तस्य पुरुषविधताम् | अन्वयं पुरुषविधः | तस्य श्रद्धैव शिरः | ऋतं दक्षिणः पक्षः | सत्यमुत्तरः पक्षः | योग आत्मा | महः पुच्छं प्रतिष्ठा | तदप्येष श्लोको भवति ||इति चतुर्थोऽनुवाकः ||

जहाँ मन के सहित वाणी उसे न पाकर लौट आती है उस ब्रहमानन्द को जानने वाला पुरुष कभी भय को प्राप्त नहीं होता । यह जो [ मनोमय शरीर ] है वही उस अपने पूर्ववर्ती [ प्राणमय कोश ]- का शारीरिक आत्मा है । उस इस मनोमय से दूसरा इसका अन्तर- आत्मा विज्ञानमय है । उसके द्वारा यह पूर्ण है । वह यह विज्ञानमय भी पुरुषाकार ही है । उस [ मनोमय ]- की पुरुषाकारता के अनुसार ही यह भी पुरुषाकार ही है । उसका श्रद्धा ही सिर है । ऋत दक्षिण पक्ष है । सत्य उत्तर पक्ष है । योग आत्मा ( मध्यभाग ) है और महत्तत्व पुच्छ- प्रतिष्ठा है । उसके विषय मे ही यह श्लोक है ।।


विज्ञानं यज्ञं तनुते | कर्माणि तनुतेऽपि च | विज्ञानं देवाः सर्वे | ब्रह्म ज्येष्ठमुपासते | विज्ञानं ब्रह्म चेद्वेद | तस्माच्चेन्न प्रमाद्यति | शरीरे पाप्मनो हित्वा | सर्वान्कामान्समश्नुत इति | तस्यैष एव शारीर आत्मा | यः पूर्वस्य | तस्माद्वा एतस्माद्विज्ञानमयात् | अन्योऽन्तर आत्माऽऽनन्दमयः | तेनैष पूर्णः | स वा एष पुरुषविध एव | तस्य पुरुषविधताम् | अन्वयं पुरुषविधः | तस्य प्रियमेव शिरः | मोदो दक्षिणः पक्षः | प्रमोद उत्तरः पक्षः | आनन्द आत्मा | ब्रह्म पुच्छं प्रतिष्ठा | तदप्येष श्लोको भवति ||इति पञ्चमोऽनुवाकः ||

विज्ञान ( विज्ञानवान् पुरुष ) यज्ञ का विस्तार करता है और वही कर्मों का भी विस्तार करता है । सम्पूर्ण देव ज्येष्ठ विज्ञान- ब्रह्म की उपासना करते हैं । यदि साधक ‘विज्ञान ब्रह्म है’ ऐसा जान जाए और फिर उससे प्रमाद न करे तो अपने शरीर के सारे पापों को त्यागकर वह समस्त कामनाओं ( भोगों )- को पूर्णतया प्राप्त कर लेता है । यह जो विज्ञानमय है वही उस अपने पूर्ववर्ती मनोमय शरीर का आत्मा है । उस इस विज्ञानमय से दूसरा इसका अन्तर्वर्ती आत्मा आनन्दमय है । उस आनन्दमय के द्वारा यह पूर्ण है । वह यह आनन्दमय भी पुरुषाकार ही है । उस ( विज्ञानमय )- की पुरुषाकारता के समान ही यह पुरुषाकार है । उसका प्रिय ही सिर है, मोद दक्षिण पक्ष है, प्रमोद उत्तर पक्ष है, आनन्द आत्मा है और ब्रह्म पुच्छ- प्रतिष्ठा है । उसके विषय मे ही यह श्लोक है ।।



असन्नेव स भवति | असद्ब्रह्मेति वेद चेत् | अस्ति ब्रह्मेति चेद्वेद | सन्तमेनं ततो विदुरिति | तस्यैष एव शारीर आत्मा | यः पूर्वस्य | अथातोऽनुप्रश्नाः | उताविद्वानमुं लोकं प्रेत्य | कश्चन गच्छती३ उ |आहो विद्वानमुं लोकं प्रेत्य कश्चित्समश्नुता ३ उ | सोऽकामयत | बहु स्यां प्रजायेयेति | स तपोऽतप्यत | स तपस्तप्त्वा | इदँ सर्वमसृजत | यदिदं किञ्च | तत्सृष्ट्वा | तदेवानुप्राविशत् | तदनुप्रविश्य | सच्च त्यच्चाभवत् | निरुक्तं चानिरुक्तं च | निलयनं चानिलयनं च | विज्ञानं चाविज्ञानं च | सत्यं चानृतं च सत्यमभवत् | यदिदं किञ्च | तत्सत्यमित्याचक्षते | तदप्येष श्लोको भवति ||इति षष्ठोऽनुवाकः ||

यदि पुरुष ‘ब्रह्म असत् है’ ऐसा जानता है तो वह स्वयम् भी असत् ही हो जाता है । और यदि ऐसा जानता है कि ‘ब्रह्म है’ तो [ ब्रह्मवेत्ता जन ] उसे सत् समझते हैं । उस पूर्वकथित ( विज्ञानमय )- का यह जो [ आनंदमय ] है शरीर- स्तिथ आत्मा है । अब ( आचार्य का ऐसा उपदेश सुनने के अनन्तर शिष्य के ) ये अनुप्रश्न हैं- क्या कोई अविद्वान् पुरुष भी इस शरीर को छोड़ने के अनन्तर परमात्मा को प्राप्त हो सकता है ? अथवा कोई विद्वान् पुरुष भी इस शरीर को छोड़ने के अनन्तर परमात्मा को प्राप्त होता है या नहीं? [ इन प्रश्नों का उत्तर देने के लिए आचार्य भूमिका बाँधते हैं- ] उस परमात्मा ने कामना की ‘मैं बहुत हो जाऊँ अर्थात् मैं उत्पन्न हो जाऊँ ।‘ अतः उसने ताप किया । उसने ताप करके ही यह जो कुछ है इस सबकी रचना की । इसे रचकर वह इसीमे अनुप्रविष्ट हो गया । इसमे अनुप्रवेश कर वह सत्यस्वरूप परमात्मा मूर्त्त- अमूर्त्त, [ देशकालादि परिच्छिन्नरूप से ] कहे जाने योग्य , और न कहे जाने योग्य, आश्रय- अनाश्रय, चेतन- अचेतन एवं व्यावहारिक सत्य- असत्यरूप हो गया । यह जो कुछ है उसे ब्रह्मवेत्ता लोग‘सत्य’ इस नाम से पुकारते हैं । उसके विषय मे ही यह श्लोक है ॥


असद्वा इदमग्र आसीत् | ततो वै सदजायत | तदात्मानँ स्वयमकुरुत | तस्मात्तत्सुकृतमुच्यत इति | यद्वै तत् सुकृतम् | रसो वै सः | रसँ ह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति | को ह्येवान्यात्कः प्राण्यात् | यदेष आकाश आनन्दो न स्यात् | एष ह्येवाऽऽनन्दयाति | यदा ह्येवैष एतस्मिन्नदृश्येऽनात्म्येऽनिरुक्तेऽनिलयनेऽभयं प्रतिष्ठां विन्दते | अथ सोऽभयं गतो भवति | यदा ह्येवैष एतस्मिन्नुदरमन्तरं कुरुते | अथ तस्य भयं भवति | तत्वेव भयं विदुषोऽमन्वानस्य | तदप्येष श्लोको भवति ||इति सप्तमोऽनुवाकः ||

पहले यह [ जगत् ] असत् ( अव्याकृत ब्रह्मरूप ) ही था । उसीसे सत् ( नाम- रूपात्मक व्यक्त )- की उत्पत्ति हुई । उस असत् ने स्वयं अपने को ही [ नाम- रूपात्मक जगद् रूप से ] रचा । इसलिये वह सुकृत ( स्वयं रचा हुआ ) कहा जाता है । वह जो प्रसिद्ध सुकृत है सो निश्चय रस ही है । इस रस को पाकर पुरुष आनन्दी हो जाता है । यदि हृदयाकाश मे स्तिथ यह आनन्द ( आनन्दस्वरूप आत्मा ) न होता तो कौन व्यक्ति अपान- क्रिया करता और कौन प्राणन- क्रिया करता ? यही तो उन्हें आनंदित करता है । जिस समय यह साधक इस अदृश्य, अशरीर, अनिर्वाच्य और निराधार ब्रह्म मे अभय- स्थिति प्राप्त करता है उस समय यह अभय को प्राप्त हो जाता है ; और जब यह इसमे थोड़ा- सा भी भेद करता है तो इसे भय प्राप्त होता है । वह ब्रह्म ही भेददर्शी विदवान् के लिए भय रूप है । इसी अर्थ मे यह श्लोक है ॥


भीषाऽस्माद्वातः पवते | भीषोदेति सूर्यः | भीषाऽस्मादग्निश्चेन्द्रश्च | मृत्युर्धावति पञ्चम इति | सैषाऽऽनन्दस्य मीमाँसा भवति | युवा स्यात्साधुयुवाऽध्यायकः | आशिष्ठो दृढिष्ठो बलिष्ठः | तस्येयं पृथिवी सर्वा वित्तस्य पूर्णा स्यात् | स एको मानुष आनन्दः | ते ये शतं मानुषा आनन्दाः ||

इसके भय से वायु चलता है, इसीके भय से सूर्य उदय होता है तथा इसीके भय से अग्नि, इन्द्र और पाँचवाँ मृत्यु दौड़ता है । अब यह [ इस ब्रह्म के ] आनन्द की मीमांसा है- साधु स्वभाव वाला नवयुवक, वेद पढ़ा हुआ, अत्यन्त आशावान् [ कभी निराश न होने वाला ] तथा अत्यन्त दृढ़ और बलिष्ठ हो एवं उसीकि यह धन- धान्य से पूर्ण सम्पूर्ण पृथ्वी भी हो । [ उसका जो आनन्द है ] वह एक मानुष आनन्द है; ऐसे जो सौ मानुष आनन्द हैं ॥


स एको मनुष्यगन्धर्वाणामानन्दः | श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य | ते ये शतं मनुष्यगन्धर्वाणामानन्दाः | स एको देवगन्धर्वाणामानन्दः | श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य | ते ये शतं देवगन्धर्वाणामानन्दाः | स एकः पितृणां चिरलोकलोकानामानन्दः | श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य | ते ये शतं पितृणां चिरलोकलोकानामानन्दाः | स एक आजानजानां देवानामानन्दः ||

वही मनुष्य- गन्धर्वों का एक आनन्द है तथा वह अकामहत ( जो कामना से पीड़ित नहीं है उस ) श्रोत्रिय को भी प्राप्त है । मनुष्य- गन्धर्वों के जो सौ आनन्द हैं वाहोई देवगन्धर्व का एक आनन्द है और वह अकामहत श्रोत्रिय को भी प्राप्त है । देवगन्धर्वों के जो सौ आनन्द हैं वही नित्य लोक मे रहने वाले पितृगण का एक आनन्द है और वह अकामहत श्रोत्रिय को भी प्राप्त है । चिरलोक निवासी पितृगण के जो सौ आनन्द हैं वही आजानज देवताओं का एक आनन्द है ॥


श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य | ते ये शतं आजानजानां देवानामानन्दाः | स एकः कर्मदेवानां देवानामानन्दः | ये कर्मणा देवानपियन्ति | श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य | ते ये शतं कर्मदेवानां देवानामानन्दाः | स एको देवानामानन्दः | श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य | ते ये शतं देवानामानन्दाः | स एक इन्द्रस्याऽऽनन्दः ||

और वह अकामहत श्रोत्रियों को भी प्राप्त है । आजानज देवताओं के जो सौ आनन्द हैं वही कर्म देव देवताओं का, जो कि [ अग्निहोत्रादि ] कर्म करके देवत्व को प्राप्त होते हैं, एक आनन्द है और वह अकामहत श्रोत्रियों को भी प्राप्त है । कर्म देव देवताओं के जो सौ आनन्द हैं वही देवताओं का एक आनन्द है और वह अकामहत श्रोत्रियों को भी प्राप्त है । देवताओं के जो सौ आनन्द हैं वही इन्द्र का एक आनन्द है ॥



श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य | ते ये शतमिन्द्रस्याऽऽनन्दाः | स एको बृहस्पतेरानन्दः | श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य | ते ये शतं बृहस्पतेरानन्दाः | स एकः प्रजापतेरानन्दः | श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य | ते ये शतं प्रजापतेरानन्दाः | स एको ब्रह्मण आनन्दः | श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य ||

तथा वह अकामहत श्रोत्रियों को भी प्राप्त है । इन्द्र के जो सौ आनन्द हैं वही बृहस्पति का एक आनंद है और वह वह अकामहत श्रोत्रियों को भी प्राप्त है । बृहस्पति के जो सौ आनन्द हैं वही प्रजापति का एक आनन्द है और वह अकामहत श्रोत्रियों को भी प्राप्त है । प्रजापति के जो सौ आनन्द हैं वही ब्रह्मा का एक आनन्द है और वह अकामहत श्रोत्रियों को भी प्राप्त है ।।



स यश्चायं पुरुषे | यश्चासावादित्ये | स एकः | स य एवंवित् | अस्माल्लोकात्प्रेत्य | एतमन्नमयमात्मानमुपसङ्क्रामति | एतं प्राणमयमात्मानमुपसङ्क्रामति | एतं मनोमयमात्मानमुपसङ्क्रामति | एतं विज्ञानमयमात्मानमुपसङ्क्रामति | एतमानन्दमयमात्मानमुपसङ्क्रामति | तदप्येष श्लोको भवति ||इत्यष्टमोऽनुवाकः ||

वह, जो कि इस पुरुष ( पञ्चकोशात्मक देह )- में है और जो यह आदित्य के अन्तर्गत है, एक है । वह, जो इस प्रकार जानने वाला है, इस लोक ( दृष्ट और अदृष्ट विषयसमूह )- से निवृत्त होकर इस अन्नमय आत्मा को प्राप्त होता है [ अर्थात् विषयसमूह को अन्नमयकोश से पृथक़् नहीं देखता ] । इसी प्रकार वह इस प्राणमय आत्मा को प्राप्त होता है,इस मनोमय आत्मा को प्राप्त होता है, इस विज्ञानमय आत्मा को प्राप्त होता है एवं इस आनन्दमय आत्मा को प्राप्त होता है । उसीके विषय में यह श्लोक है ॥



यतो वाचो निवर्तन्ते | अप्राप्य मनसा सह | आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् | न बिभेति कुतश्चनेति | एतँ ह वाव न तपति | किमहँ साधु नाकरवम् | किमहं पापमकरवमिति | स य एवं विद्वानेते आत्मानँ स्पृणुते | उभे ह्येवैष एते आत्मानँ स्पृणुते | य एवं वेद | इत्युपनिषत् ||इति नवमोऽनुवाकः ||

जहाँ से मन के सहित वाणी उसे प्राप्त न करके लौट आती है उस ब्रह्म के आनन्द को जानने वाला किसी से भी भयभीत नहीं होता । उस विद्वान को, मैंने शुभ क्यों नहीं किया, पापकर्म क्यों कर डाला- इस प्रकार की चिन्ता सन्तप्त नहीं करती । उन्हें [ ये पाप और पुण्य ही ताप के कारण हैं- ] इस प्रकार जानने वाला जो विद्वान अपने आत्मा को प्रसन्न अथवा सबल करता है उसे ये दोनों आत्मस्वरूप ही दिखायी देते हैं । [ वह कौन है ? ] जो इस प्रकार [ पूर्वोक्त अद्वैत आनन्दस्वरूप ब्रह्म को ] जानता है । ऐसी यह उपनिषद् ( रहस्यविद्या ) है ॥


||इति ब्रह्मानन्दवल्ली समाप्ता || ॐ सह नाववतु | सह नौ भुनक्तु | सह वीर्यं करवावहै | तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै | ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||
[वह परमात्मा] हम [आचार्य और शिष्य] दोनों की साथ-साथ रक्षा करे, हम दोनों का साथ-साथ पालन करे, हम साथ-साथ वीर्यलाभ करें, हमारा अध्ययन किया हुआ तेजस्वी हो और हम परस्पर द्वेष न करें । तीनों प्रकार के प्रतिबन्धों की शांति हो ।