पूज्य बापूजी के दिव्य दर्शन और भारतीय संस्कृति का सर्वहितकारी ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

Saturday, June 18, 2011



अवधूत गीता - Avdhoot Gita
 दूसरा  अध्याय - Dusra Adhyay


अथ द्वितीयोऽध्यायः 


बालस्य वा विषयभोगरतस्य वापि मूर्खस्य सेवकजनस्य गृहस्थितस्य . एतद्गुरोः किमपि नैव न चिन्तनीयं रत्नं कथं त्यजति कोऽप्यशुचौ प्रविष्टम् .. १..
अवधूत उवाच - बालक हो अथवा विषय भोग में फंसा हुआ हो,मूर्ख हो, सेवकजन हो, गृहस्थ हो इस बात का सदुपदेष्टा गुरु के विषय में कुछ विचार न करे जैसे कि गंदी जगह में पड़े हुये रत्न को कोई नहीं छोड़ता है ॥1॥ 

 नैवात्र काव्यगुण एव तु चिन्तनीयो ग्राह्यः परं गुणवता खलु सार एव . सिन्दूरचित्ररहिता भुवि रूपशून्या पारं न किं नयति नौरिह गन्तुकामान् .. २.. 
गुरु के सम्बन्ध में काव्य और गुणों का विहार नहीं करना चाहिए, गुणवान को सार ही ग्रहण करना चाहिए, जो सिंदूरादि अनेक प्रकार के रंगों से चित्रित नहीं है ऐसी कुरूप नाव क्या पार जाने वालों को पार नहीं ले जाती है ॥2॥

प्रयत्नेन विना येन निश्चलेन चलाचलम् . ग्रस्तं स्वभावतः शान्तं चैतन्यं गगनोपमम् .. ३..
जो कि चलायमान नहीं है ऐसे परमात्मा ने यत्न के बिना ही सब जगत को ग्रस लिया वह स्वभाव शांत है और चैतन्य है आकाश के समान है ॥3॥

अयत्नाछालयेद्यस्तु एकमेव चराचरम् . सर्वगं तत्कथं भिन्नमद्वैतं वर्तते मम .. ४.. 
जो कि अकेला ही बिना यत्न के इस चराचर जगत् को चलायमान करता है, सर्व व्यापी है वह पृथक कैसे हो सकता है वह अद्वैत है मेरे हृदय को ऐसा ही प्रतीत होता है ॥4॥

अहमेव परं यस्मात्सारात्सारतरं शिवम् . गमागमविनिर्मुक्तं निर्विकल्पं निराकुलम् .. ५.. 
मैं सार से भी सार, शिवरूप, गमन और आगमन से रहित, निर्विकल्प और निराकुल हूँ ॥5॥

सर्वावयवनिर्मुक्तं तथाहं त्रिदशार्चितम् . संपूर्णत्वान्न गृह्णामि विभागं त्रिदशादिकम् .. ६.. 
मैं सब अंग, प्रत्यंग से हीन हूं देवता मेरा पूजन करते हैं, मैं देवादि का विभाग ग्रहण नहीं करता हूं क्योंकि मैं पूर्ण रूप हूं ॥6॥

प्रमादेन न सन्देहः किं करिष्यामि वृत्तिमान् . उत्पद्यन्ते विलीयन्ते बुद्बुदाश्च यथा जले .. ७..
प्रमादयुक्त होने पर मुझे कुछ संदेह नहीं है वृत्तिवान होकर भी मैं क्या करूंगा जिस तरह जल से उत्पन्न हो होकर बुलबुले जल ही में लीन हो जाते हैं वैसे ही ये भी सब आत्मा से उत्पन्न होकर आत्मा ही में लीन हो जाते हैं ॥7॥

 महदादीनि भूतानि समाप्यैवं सदैव हि . मृदुद्रव्येषु तीक्ष्णेषु गुडेषु कटुकेषु च .. ८.. 
जैसे जल में बबूला पैदा होते हैं और जल ही में मिल जाते हैं इसी तरह महत् तत्व से आदि लेकर प्राणी पैदा होकर परमेश्वर में लीन हो जाते हैं ॥8॥

कटुत्वं चैव शैत्यत्वं मृदुत्वं च यथा जले . प्रकृतिः पुरुषस्तद्वदभिन्नं प्रतिभाति मे .. ९.. 
कोमल पदार्थ, तीखे पदार्थ, गुड़ और कड़वी वस्तु इनमें कड़ुआपन, चंचलता और कोमलता, जल में पतलापन जैसे वर्तमान है उससे अलग नहीं है इसी तरह प्रकृति और पुरुष अलग नहीं है, यह मुझको मालूम होता है ॥9॥

सर्वाख्यारहितं यद्यत्सूक्ष्मात्सूक्ष्मतरं परम् . मनोबुद्धीन्द्रियातीतमकलङ्कं जगत्पतिम् .. १०..
परमात्मा सर्व नाम से रहित है सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है, परे है, मन, बुद्धि-इंद्रिय जहाँ नहीं पहुँच सकते हैं, कलङ्क रहित है, जगत का पति है ॥10॥

ईदृशं सहजं यत्र अहं तत्र कथं भवेत् . त्वमेव हि कथं तत्र कथं तत्र चराचरम् .. ११.. 
जिसमें ऐसे गुण स्वाभाविक ही हैं, वहाँ मैं किस तरह से हूं, वहाँ तू कैसे है, और उसमें चराचर जगत् कैसे है ? ॥11॥

गगनोपमं तु यत्प्रोक्तं तदेव गगनोपमम् . चैतन्यं दोषहीनं च सर्वज्ञं पूर्णमेव च .. १२.. 
जो आकाश के समान कहा गया है वह तो आकाश के समान ही है चैतन्य स्वरूप है, निर्दोष है, सर्वज्ञ है, पूर्ण है ॥12॥

पृथिव्यां चरितं नैव मारुतेन च वाहितम् . वरिणा पिहितं नैव तेजोमध्ये व्यवस्थितम् .. १३.. 
वह पृथ्वी पर चलता नहीं है,हवा में उड़ा नहीं है,जल से ढका नहीं है, तेज में स्थित है ॥13॥

आकाशं तेन संव्याप्तं न तद्व्याप्तं च केनचित् . स बाह्याभ्यन्तरं तिष्ठत्यवच्छिन्नं निरन्तरम् .. १४.. 
उससे आकाश व्याप्त है, वह किसी से व्याप्त नहीं है । वह बाहर और भीतर ठहरता है, अखण्ड है और नित्य है ॥14॥

सूक्ष्मत्वात्तददृश्यत्वान्निर्गुणत्वाच्च योगिभिः . आलम्बनादि यत्प्रोक्तं क्रमादालम्बनं भवेत् .. १५.. 
सूक्ष्म होने से, अदृश्य होने से, और निर्गुण होने से,योगियों ने आलम्बन आदि जो कहे हैं इस प्रकार ध्यान करे, ऐसे प्राणायाम करे, ये आलम्बन क्रम से होता है ॥15॥

सतताऽभ्यासयुक्तस्तु निरालम्बो यदा भवेत् . तल्लयाल्लीयते नान्तर्गुणदोषविवर्जितः .. १६.. 
निरंतर अभ्यास करते करते जब योगी ध्यानादिक आलम्बनों से रहित हो जाता है तब उस आलम्बन का लय हो जाता है तब वह गुण दोषादि से विवर्जित हो, उस परमात्मा में लीन होकर तद् रूप हो जाता है ॥16॥

विषविश्वस्य रौद्रस्य मोहमूर्च्छाप्रदस्य च . एकमेव विनाशाय ह्यमोघं सहजामृतम् .. १७.. 
मोह और मूर्छा को देने वाला जो भयंकर विष रूपी विश्व है उसको नाश करने के लिए एक ही अनमोल सहज अमृत है ॥17॥

भावगम्यं निराकारं साकारं दृष्टिगोचरम् . भावाभावविनिर्मुक्तमन्तरालं तदुच्यते .. १८..
निराकार जो पदार्थ है वह भावगम्य है, अर्थात् हृदय में भावना द्वारा ही जाना जाता है और साकार आंखों से दिखाई देता है, परन्तु भाव और अभाव इनसे जो अलग है उसको अंतराल कहते हैं ॥18॥

बाह्यभावं भवेद्विश्वमन्तः प्रकृतिरुच्यते . अन्तरादन्तरं ज्ञेयं नारिकेलफलाम्बुवत् .. १९.. 
बाहर की तरफ संसार है, भीतर माया है, और उस से भी भीतर परमात्मा जानने योग्य है जैसे नारियल तो विश्व है, उसके भीतर गोला है वह माया है, गोला के भीतर जो पानी है वह परमात्मा का रूप है ॥19॥

भ्रान्तिज्ञानं स्थितं बाह्यं सम्यग्ज्ञानं च मध्यगम् . मध्यान्मध्यतरं ज्ञेयं नारिकेलफलाम्बुवत् .. २०.. 
भ्रांति ज्ञान बाहर स्थित है, अच्छा ज्ञान बीच में है,उसके भी मध्य में नारियल के जल की तरह वह चैतन्य है ॥20॥

पौर्णमास्यां यथा चन्द्र एक एवातिनिर्मलः . तेन तत्सदृशं पश्येद्द्विधादृष्टिर्विपर्ययः .. २१.. 
पूर्णमासी में जैसे एक चंद्रमा ही अति निर्मल है वैसे ही ईश्वर को देखें । कौर भेद बुद्धि से देखना है वह आदमी की दृष्टि का फेर है ॥21॥

अनेनैव प्रकारेण बुद्धिभेदो न सर्वगः . दाता च धीरतामेति गीयते नामकोटिभिः .. २२.. 
इसी प्रकार से बुद्धि का भेद सबमें नहीं है जैसे दाता धीरज को प्राप्त होता है और उसका यश फैल जाता है इसी तरह परमात्मा का यश फैला हुआ है ॥22॥

गुरुप्रज्ञाप्रसादेन मूर्खो वा यदि पण्डितः . यस्तु संबुध्यते तत्त्वं विरक्तो भवसागरात् .. २३.. 
गुरु और बुद्धि इनकी कृपा से मूर्ख हो अथवा पंडित जो तत्व को जान लेता है वह भवसागर से छूट जाता है ॥23॥

रागद्वेषविनिर्मुक्तः सर्वभूतहिते रतः . दृढबोधश्च धीरश्च स गच्छेत्परमं पदम् .. २४.. 
राग और द्वेष से जो अलग हो, सब प्राणियों का हित करे, दृढ़ बोध हो, धीर हो वह परम पद को प्राप्त होता है ॥24॥

घटे भिन्ने घटाकाश आकाशे लीयते यथा . देहाभावे तथा योगी स्वरूपे परमात्मनि .. २५.. 
घड़े के फूटने पर घड़े का आकाश जैसे बड़े आकाश में लीन हो जाता है इसी तरह योगी देह के त्यागने पर अपने रूप परमात्मा में लीन हो जाता है ॥25॥

उक्तेयं कर्मयुक्तानां मतिर्यान्तेऽपि सा गतिः . न चोक्ता योगयुक्तानां मतिर्यान्तेऽपि सा गतिः .. २६.. 
जिसने कर्म छोड़ दिये हैं उसकी यह गति कही है जो अंत समय बुद्धि हो जाती है वही गति होती है ॥26॥

या गतिः कर्मयुक्तानां सा च वागिन्द्रियाद्वदेत् . योगिनां या गतिः क्वापि ह्यकथ्या भवतोर्जिता .. २७.. 
कर्म युक्तों की जो गति है वह वाणी और इन्द्रियों से होती है, योगियों की जो गति है वह कभी कहने में नहीं आ सकती और वह आपसे बढ़ी हुई है ॥27॥

एवं ज्ञात्वा त्वमुं मार्गं योगिनां नैव कल्पितम् . विकल्पवर्जनं तेषां स्वयं सिद्धिः प्रवर्तते .. २८.. 
जो कल्पना नहीं किया गया है और विकल्प से वर्जित है ऐसे योगियों के इस मार्ग को जान कर उनकी सिद्धि आप ही हो जाती है ॥28॥

तीर्थे वान्त्यजगेहे वा यत्र कुत्र मृतोऽपि वा . न योगी पश्यते गर्भं परे ब्रह्मणि लीयते .. २९.. 
तीर्थ में अथवा शूद्र के घर में जहाँ कहीं योगी मर जाए वह माता के गर्भ में नहीं आता है परब्रह्म में लीन हो जाता है ॥29॥

सहजमजमचिन्त्यं यस्तु पश्येत्स्वरूपं घटति यदि यथेष्टं लिप्यते नैव दोषैः . सकृदपि तदभावात्कर्म किंचिन्नकुर्यात् तदपि न च विबद्धः संयमी वा तपस्वी .. ३०.. 
स्वाभाविक, अजन्मा और जो विचार करने में न आवे ऐसे स्वरूप को जो देखे और अच्छी तरह चेष्टा करे वह दोषों से लिप्त नहीं होता है योगी हो अथवा तपस्वी उसके बिना कुछ काम न करे वह फिर बंधन को प्राप्त नहीं होता है ॥30॥

निरामयं निष्प्रतिमं निराकृतिं निराश्रयं निर्वपुषं निराशिषम् . निर्द्वन्द्वनिर्मोहमलुप्तशक्तिकं तमीशमात्मानमुपैति शाश्वतम् .. ३१.. 
जिस में कोई रोग नहीं है जिसकी प्रतिमा नहीं है स्वरूप नहीं है कोई आश्रय नहीं है जिसके कोई अंग नहीं है जिसके कोई सुख नहीं है और सुख दुख नहीं है मोह रहित, सर्व शक्तिमान, नित्य, ऐसे आत्मा को प्राप्त होता है ॥31॥

वेदो न दीक्षा न च मुण्डनक्रिया गुरुर्न शिष्यो न च यन्त्रसम्पदः . मुद्रादिकं चापि न यत्र भासते तमीशमात्मानमुपैति शाश्वतम् .. ३२.. 
जिसके बीच में न वेद, न दीक्षा, न मंडलक्रिया, न गुरु न शिष्य न यंत्र न मुद्रादिक प्रकाश करते हैं ऐसे नित्य ईश्वर आत्मा को योगी प्राप्त होता है ॥32॥

न शाम्भवं शाक्तिकमानवं न वा पिण्डं च रूपं च पदादिकं न वा . आरम्भनिष्पत्तिघटादिकं च नो तमीशमात्मानमुपैति शाश्वतम् .. ३३.. 
न तो वह शिव का स्वरूप है न वह शाक्त है न मनुष्य है न पिंड है न रूप है न चरण से आदि लेकर उसके शरीर है न तो उसका आदि है न अंत है न घड़े से आदि लेकर कोई वस्तु है ऐसे निरंतर ईश्वर आत्मा को योगी प्राप्त होता है ॥33॥

यस्य स्वरूपात्सचराचरं जग- दुत्पद्यते तिष्ठति लीयतेऽपि वा . पयोविकारादिव फेनबुद्बुदा- स्तमीशमात्मानमुपैति शाश्वतम् .. ३४..
जिसके स्वरूप से चराचर जगत् पैदा होता है,स्थित होता है, और लीन हो जाता है जैसे कि जल से झाग और बबूला पैदा होते हैं और उसी में लीन हो जाते हैं उस नित्य ईश्वर आत्मा को योगी प्राप्त होता है ॥34॥

 नासानिरोधो न च दृष्टिरासनं बोधोऽप्यबोधोऽपि न यत्र भासते . नाडीप्रचारोऽपि न यत्र किञ्चि- त्तमीशमात्मानमुपैति शाश्वतम् .. ३५.. 
न तो उसमें नाक का रोकना है न दृष्टि है न वह बैठता है, केष और अकेष भी जिसमें प्रकाश नहीं करता है जिसमें नाड़ियाँ नहीं चलती हैं उस नित्य ईश्वर आत्मा को प्राप्त होता है ॥35॥

नानात्वमेकत्वमुभत्वमन्यता अणुत्वदीर्घत्वमहत्त्वशून्यता . मानत्वमेयत्वसमत्ववर्जितं तमीशमात्मानमुपैति शाश्वतम् .. ३६.. 
उसमें अनेकपना नहीं है, एकत्व नहीं है, भेद भी नहीं है, छोटापन, लम्बपन बड़ापन ये भी उसमें नहीं हैं, प्रमाण, अप्रमाण, समता, इनसे वर्जित है,उस नित्य ईश्वर आत्मा को योगी प्राप्त होता है ॥36॥

सुसंयमी वा यदि वा न संयमी सुसंग्रही वा यदि वा न संग्रही . निष्कर्मको वा यदि वा सकर्मक- स्तमीशमात्मानमुपैति शाश्वतम् .. ३७.. 
अच्छी तरह जितेंद्री हो अथवा न हो, अच्छी तरह संग्रह करने वाला हो अथवा न हो, कर्म करता हो अथवा न करता हो सर्वव्यापी जो ईश्वर आत्मा है उसको प्राप्त होता है ॥37॥

मनो न बुद्धिर्न शरीरमिन्द्रियं तन्मात्रभूतानि न भूतपञ्चकम् . अहंकृतिश्चापि वियत्स्वरूपकं तमीशमात्मानमुपैति शाश्वतम् .. ३८.. 
न उसमें मन है, न बुद्धि है, न शरीर है, न इंद्रिय है,न पंचभूत है, न इन्द्रियों कि मात्रा है, अहंकार भी नहीं है, शून्य रूप है, वह ईश्वर नित्य आत्मा है,उसको जीव प्राप्त होता है ॥38॥

विधौ निरोधे परमात्मतां गते न योगिनश्चेतसि भेदवर्जिते . शौचं न वाशौचमलिङ्गभावना सर्वं विधेयं यदि वा निषिध्यते .. ३९.. 
विधि, आज्ञा, निरोष, रोकना ये जब परमात्मा को प्राप्त हो जाय तब भेद रहित योगी के चित्त में न शौच है न अशुद्ध है और चिन्ह रहित जो पदार्थ है उसकी भावना और न विधि निषेध रहता है ॥39॥

मनो वचो यत्र न शक्तमीरितुं नूनं कथं तत्र गुरूपदेशता . इमां कथामुक्तवतो गुरोस्त- द्युक्तस्य तत्त्वं हि समं प्रकाशते .. ४०.. 
जिसमें मन और वचन नहीं पहुँच सकते हैं उसमें निश्चय गुरु को उपदेश कैसे बन सकता है, इस कथा को कहने वाला जो योग्य गुरु है उसको यहतत्व समान प्रकाशित होता है ॥40॥

|| इति द्वितीयोऽध्यायः ||

Wednesday, June 1, 2011


मुण्डक उपनिषद - Mundak Upnishad
द्वितीय मुण्डक द्वितीय खण्ड - 2nd Mundak 2nd Khand

आविः संनिहितं गुहाचरं नाम महत्पदमत्रैतत्समर्पितम्। एजत्प्राण-न्निमिषच्च 
यदेतज्जानथ सदसद्वेण्यं परं विज्ञानाद्यद्वरिष्ठं प्रजानाम् ॥१॥
परमेश्वर  प्रकाशस्वरूप हैअत्यन्त समीपस्थ हैगुहाचर नाम से प्रसिद्ध हैमहान् पद (परम प्राप्यपरम साध्य) है। जो चेष्टा करनेवाले (गातिवाले)श्वास लेनेवाले और नेत्रों को खोलनेमूँदनेवाले हैंवे सब इसीमें प्रतिष्ठित हैं। इसे (परमेश्वर को) आप लोग जानेंजो सत् और असत् तथा वरेण्य है (अथवा जो सत् और असत् से भी परे है), वरिष्ठ (सबसे श्रेष्ठ) हैमनुष्यों की बुद्धि से परे है।

यदर्चिमद्यदणभ्योऽणुच यस्मिँल्लोका निहिता लोकिनश्च। तदेतदक्षंर ब्रह्म स 
प्राणस्तदु वाड्मनः। तदेतत्सत्यं तदमृतं तद्वेद्धव्यं सोम्य विद्धि ॥२॥
जो कान्तिमान है और जो सूक्ष्मातिसूक्ष्म हैजिसमें लोक और लोकों के प्राणी स्थित हैंवही यह अविनाशी ब्रह्म हैवही प्राण हैवह ही वाक् मन हैवन ही  यह सत्य हैवही अमृत है। हे प्रिय शौनकउस वेधन के योग्य लक्ष्य को तू वेध दे (जान ले)।

     धनुर्गृहीत्वौषदं महास्त्रं शरं ह्युपासानिशितं सन्धयीत।
    आयम्य तद् भावगतेन चेतसा लक्ष्यं तदेवाक्षरं सोम्य विद्धि ॥३॥
उपनिषदों में कहे हुए महना अस्त्र को ग्रहण करनिश्चय ही उपासना द्वारा उस बाण को खींचकरहे प्रिय शौनकउस अविनाशी ब्रह्म को ही लक्ष्य मानकर वेध दे।

     प्रणवो धनुः शरो ह्यात्म ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते।
    अप्रमत्तेन   वेद्धव्यं    शरवत्तन्मयो   भवेत्॥४॥
ओम धनुष हैजीवात्मा (अन्तःकरण अथवा मन) ही बाण है ब्रह्म उसका लक्ष्य कहा जाता है। सावधान मनुष्य के द्वारा लक्ष्य वेध करने के योग्य है। बाण की भाँति जीवात्मा को उस लक्ष्य में तन्मय हो जाना चाहिए।

     यस्मिन् द्यौः पृथिवी चान्तरिक्षमोतं मनः सह प्राणैश्च सर्वेः ।
    तमैवैकं जानथ आत्मानमन्या वाचो विमुञ्चथामृतस्यैष सेतुः ॥५॥
जिसमेंपृथ्वी और अन्तरिक्ष तथा सब प्राणों के सहित मन गुँथा हुआ हैउस ही एक परमात्मा को जानो; अन्य बातों को छोड़ दो। यह अमृत का सेतु है।

          अरा इव रथनाभौ संहता यत्र नाड्यः.
         स एषोऽन्तश्चरते बहुधा जायमानः ॥
         ओमित्यवं   ध्यायथ   आत्मानं।
         स्वस्ति वः पाराय तमसः परस्तात् ॥६॥
रथ के पहिये की नाभि में जुडे हुए अरों की भाँति जहाँ नाडियाँ संहत हो जाती हैवहाँ (हृदय में) वह अनेक प्रकार से उत्पन्न (प्रकट) होनेवाला यह मध्य में विचरता है (अथवा रहता है)। परमात्मा का ओम् इस नाम से ही ध्यान करो। तम से परेभवसागर के पार दूसरे तट पर जाने के लिएआप सबका कल्याण हो।

     यः   सर्वज्ञः  सर्वविद्    यस्यैष    महिमा    भुवि।
    दिव्ये   ब्रह्मपुरे  ह्येष    व्योम्न्यात्मा    प्रतिष्ठितः ॥
    मनोमयः प्राणशरीरनेता प्रतिष्ठितोऽन्ने हृदयं  संनिधाय।
    तद्विज्ञानने परिपश्यन्ति धीरा आनन्दरूपमृंत यद् विभाति॥७॥
जो सब कुछ जाननेवाला तथा सब कुछ को विस्तार से जानता रहता है (अथवा सब कुछ समझता है)जिसकी जगत् में यह महिमा हैयह ही आत्मा (परमात्मा) दिव्य आकाशरूप ब्रह्मलेक में (अथवा हृदयक्षेत्र में) स्थित है।
सबके प्राण औऱ शरीर का नेतासबका मनोमय (सबके मन में वयाप्त)हृदय में आश्रय लेकरअन्नमय स्थूल देह में प्रतिष्ठित हैजा आनन्दस्वरूप एवं अमृतस्वरूप सर्वत्र प्रकाशित हैविद्वान् (ज्ञानी) विज्ञान (विशेष ज्ञान) के द्वारा उसका साक्षात्कार कर लेते हैं।

     भिद्यते     हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते         सर्वसंशयाः।
      क्षीयन्ते  चास्य कर्माणि  तस्मिन्   दृष्टे    परावरे ॥८॥
परात्पर परब्रह्म का साक्षात्कार कर लेने पर इस (जीवात्मा अथवा धीर पुरूष) की हृदयग्रन्थि खुल जाती हैसब संशय छिन्न हो जाते हैं और कर्मो का क्षय हो जाता है।

     हिरणमये  परे   कोसे   विरजं   ब्रह्म   निष्कलम्।
    तच्छुभ्रं   ज्योतिषां   ज्योतिस्तद्यदात्मविदो   विदुः॥९॥
वह निर्मल अवयवरहित परब्रह्म ज्योतिर्मय श्रेष्ठ कोस में स्थित है। वह शुभ्र हैज्योतियों की भी परम ज्योति हैजिसे आत्मज्ञानी जानते हैं।

न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारंक नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेव   भान्तमनुभाति   सर्वं   तस्य   भासा  सर्वमिदं  विभाति॥१०॥
वहाँ (ब्रह्म में) न सूर्य प्रकाशित होता हैन चन्द्रमा और तारागम हीन ये बिजलियाँ चमकती हैं। इस अग्नि की तो बात ही क्या है? उसके प्रकाशित होने पर ही सब कुछ प्रकाशित होता है। उसके प्रकाश से यह सब कुछ प्रकाशित होता है।

     ब्रह्मैवेदममृतं पुरस्ताद् ब्रह्म पश्चाद् ब्रह्म दक्षिणतश्र्चोत्तेरण।
    अधश्चोर्ध्व   च   प्रसृतं   ब्रह्मैवेदं   विश्वमिदं  वरिष्ठम्॥११॥
यह अमृतस्वरूप ब्रह्म ही सामने है, ब्रह्म पीछे हैब्रह्म दायीं ओर और बायीं ओरनीचे और ऊपर फैला हुआ है; (ब्रह्म ही) यह विश्व (सब कुछ) हैयह सर्वश्रेष्ठ ब्रह्म ही है।