पूज्य बापूजी के दिव्य दर्शन और भारतीय संस्कृति का सर्वहितकारी ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

Friday, December 31, 2010


ब्रह्म सूत्र - Brhamsutr

प्रथम अध्याय - Pratham Adhyay
प्रथम पाद Pratham Paad

अथातो ब्रह्मजिज्ञासा ।१।

अब यहाँ से ब्रह्म विषयक विचार आरम्भ किया जाता है

जन्माद्यस्य यतः ।२।

इस जगत् के जन्म आदि जिससे होते हैं वह ब्रह्म है।

शास्त्रयोनित्वात् ।३।

शास्त्र में उस ब्रह्म को जगत् का कारण बताया गया है इसलिए इसे मानना उचित है

तत् तु समन्वयात् ।४।

तथा यह ब्रह्म समस्त जगत् में पूर्ण रूप से व्याप्त होने के कारण उपादान भी है।

ईक्षतेर् नाशब्दम् ।५।

श्रुति में ‘ईक्ष’ धातु का प्रयोग होने के कारण शब्द प्रमाण-शून्य प्रधान (जड़ प्रकृति) जगत् का कारण नहीं है।

गौणश् चेन् नात्मशब्दात् ।६।

यदि यह कहो कि ईक्षण का प्रयोग गौण वृति से प्रकृति के लिए हुआ है तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि वहाँ ‘आत्मा’ शब्द का प्रयोग है।

तन्निष्ठस्य मोक्षोपदेशात् ।७।

उसमें (परब्रहम् में) स्थित होने वाले व्यक्ति की मुक्ति बतलाई गई है, इसलिए प्रकृति को जगत् का कारण नही माना जा सकता।

हेयत्वावचनाच् च ।८।

त्यागने योग्य नहीं बताये जाने के कारण भी ‘आत्मा’ शब्द प्रकृति का वाचक नहीं हैं।

स्वाप्ययात् ।९।

अपने में विलीन होना बतलाया गया है इसलिए ‘सत्’ शब्द भी प्रकृति का वाचक नहीं हो सकता।

गतिसामान्यात् ।१०।

सभी उपनिषद् वाक्यों की गति सामान्य रूप से चेतन परब्रहम् को ही जगत् का कारण बताने में हैं। इसलिए प्रकृति को जगत् का कारण नहीं माना जा सकता।

श्रुतत्वाच् च ।११।

श्रुतियों द्वारा जगह-जगह यही बात कही गई है, इसलिए भी परब्रह्म ही जगत् का कारण सिध्द होता है ।

आनन्दमयोऽभ्यासात् ।१२।

श्रुति में बार-बार ‘आनन्द’ शब्द का प्रयोग ब्रह्म के लिए हुआ है इसलिए ‘आनन्दमय’ शब्द परब्रह्म का ही वाचक है।

विकारशब्दान् नेति चेन् न प्राचुर्यात् ।१३।

यदि कहो कि ‘आनन्दमय’ में ‘मय’ (मयट्) प्रत्यय विकार का बोधक होने से आनन्दमय शब्द ब्रह्म का वाचक नहीं हो सकता तो यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि मयट् (मय) प्रत्यय यहाँ प्रचुरता का बोधक है (विकार का नहीं)।

तद्धेतुव्यपदेशाच् च ।१४।

उपनिषदों में ब्रहम् को उस आनन्द का हेतु बताया गया है इसलिए भी यहाँ मयट् प्रत्यय विकार अर्थ का बोधक नहीं है।

मान्त्रवर्णिकमेव च गीयते ।१५।

मंत्राक्षरों में जिसका वर्णन किया गया है, उस ब्रह्म का ही यहाँ प्रतिपादन किया जाता है।

नेतरोऽनुपपत्तेः ।१६।

ब्रह्म से भिन्न जो जीवात्मा है वह आनन्दमय नहीं हो सकता। क्योंकि पूर्वापर के वर्णन से यह बात सिध्द नहीं होती।

भेदव्यपदेशाच् च ।१७।

जीवात्मा और परमात्मा को एक दूसरे से भिन्न बतलाया गया है। इसलिए भी (आनन्दमय शब्द जीवात्मा का वाचक नहीं हो सकता)।

कामाच् च नानुमानापेक्षा ।१८।

तथा ‘आनन्दमय’ में कामना का कथन होने से यहां कल्पित जड़ प्रकृति को ‘आनन्दमय’ शब्द से ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं है।

अस्मिन्न् अस्य च तद्योगं शास्ति ।१९।

इसके सिवा इस प्रकरण में इस जीवात्मा का उस आनन्दमय से संयुक्त होना (मिल जाना) बतलाती है, इसलिए जड़ प्रकृति या जीवात्मा आनन्दमय नहीं है।

अन्तस् तद्धर्मोपदेशात् ।२०।

ह्रदय के भीतर शयन करने वाला विज्ञानमय तथा सूर्य मण्डल के भीतर स्थित हिरण्यमय पुरुष ब्रह्म है, क्योंकि उसमें ब्रह्म के धर्मों का ही उपदेश किया गया है।

भेदव्यपदेशाच् चान्यः ।२१।

तथा भेद का कथन होने से सूर्य मण्डलान्तवर्ती हिरण्यमय पुरुष सूर्य के अधिष्ठाता देवता से भिन्न है।

आकाशस् तल्लिङ्गात् ।२२।

‘वहाँ ‘आकाश’ शब्द परब्रह्म परमात्मा का ही वाचक है, क्योंकि जो लक्षण बताये गये हैं, वे उस ब्रह्म के ही हैं।

अत एव प्राणः ।२३।

इसलिए प्राण भी ब्रह्म ही है।

ज्योतिश् चरणाभिधानात् ।२४।

उक्त ज्योति के चार पादों का कथन होने से ‘ज्योति’ शब्द वहाँ ब्रह्म का वाचक है।

छन्दोऽभिधानान् नेति चेन् न तथा चेतोऽर्पणनिगदात् तथा हि दर्शनम् ।२५।

यदि कहो गायत्री छन्द का कथन होने के कारण उसी के चार पादों का वर्णन है, ब्रहम् के चार पादों का वर्णन नहीं है। तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि उस प्रकार के वर्णन द्वारा ब्रह्म में चित का समर्पण बताया गया है वैसा ही वर्णन दूसरी जगह भी देखा गया है।

भूतादिपादव्यपदेशोपपत्तेश् चैवम् ।२६।

भूत आदि को पाद बतलाना युक्तिसंगत हो सकता है, इसलिए भी ऐसा ही है।

उपदेशभेदान् नेति चेन् नोभयस्मिन्न् अप्य् अविरोधात् ।२७।

यदि कहो कि उपदेश में भिन्नता होने से गायत्री शब्द ‘ब्रह्म’ का वाचक नहीं है तो यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि दो प्रकार का वर्णन होने पर भी कोई विरोध नहीं है।

प्राणस् तथानुगमात् ।२८।

‘प्राण’ शब्द यहाँ भी ब्रहम् का ही वाचक है क्योंकि पूर्वापर के प्रसंग पर विचार करने से ऐसा ही ज्ञात होता है।

न वक्तुर् आत्मोपदेशाद् इति चेद् अध्यात्मसंबन्धभूमा ह्य् अस्मिन् ।२९।

यदि कहो वक्ता (इन्द्र) का उद्देश्य अपने को ‘प्राण’ नाम से बतलाना है, इसलिए ‘प्राण’ शब्द ब्रहम् का वाचक नहीं हो सकता, तो यह कथन ठीक नहीं है। क्योंकि इस प्रकरण में अध्यात्म सम्बन्धी उपदेश कि बहुलता है।

शास्त्रदृष्ट्या तूपदेशो वामदेववत् ।३०।

यहां इन्द्र का अपने को प्राण बतलाना तो वाम-देव की भाँति केवल शास्त्र दृष्टि से है।

जीवमुख्यप्राणलिङ्गान् नेति चेन् नोपासात्रैविध्यादाश्रितत्वाद् इह तद्योगात् ।३१।

यदि कहो, इस प्रसंग के वर्णन में जीवात्मा तथा प्रसिद्ध प्राण के लक्षण पाये जाते हैं, इसलिए प्राण शब्द ब्रह्म का वाचक नहीं है तो यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर त्रिविध उपासना का प्रसंग उपस्थित होगा। इसके सिवा सब लक्षण ब्रह्म के आश्रित हैं तथा इस प्रसंग में ब्रहम् के लक्षणों का ही कथन है इसलिए यहाँ ‘प्राण’ शब्द ब्रह्म का ही वाचक है।

Thursday, December 23, 2010



इशावास्योपनिषद् - Ishavasyopnishad


ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः॥

ॐ वह (परब्रह्म) पूर्ण है और यह (कार्यब्रह्म) भी पूर्ण है; क्योंकि पूर्ण से पूर्ण की ही उत्पत्ति होती है। तथा [प्रलयकाल मे] पूर्ण [कार्यब्रह्म]- का पूर्णत्व लेकर (अपने मे लीन करके) पूर्ण [परब्रह्म] ही बच रहता है। त्रिविध ताप की शांति हो।

॥अथ इशावास्योपनिषद्॥

ॐ ईशा वास्यमिदँ सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्॥१॥

जगत् मे जो कुछ स्थावर-जङ्गम संसार है, वह सब ईश्वर के द्वारा आच्छादनीय है। [अर्थात् उसे भगवत्स्वरूप अनुभव करना चाहिए] । उसके त्याग-भाव से तू अपना पालन कर; किसीके धन की इच्छा न कर ।।1।।

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतँ समाः।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे॥२॥

इस लोक मे कर्म करते हुए ही सौ वर्ष जीनेकी इच्छा करे । इस प्रकार मनुष्यत्व का अभिमान रखनेवाले तेरे लिए इसके सिवा और कोई मार्ग नहीं है, जिससे तुझे [अशुभ] कर्मका लेप न हो ॥2॥

असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसाऽऽवृताः।
ताँस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः॥३॥

वे असुरसम्बन्धी लोक आत्मा के अदर्शनरूप अज्ञान से आच्छादित हैं । जो कोई भी आत्मा का हनन करनेवाले लोग हैं, वे मरनेके अनन्तर उन्हे प्राप्त होते हैं ॥3॥

अनेजदेकं मनसो जवीयो नैनद्देवा आप्नुवन्पूर्वमर्षत्।
तद्धावतोऽन्यानत्येति तिष्ठत्तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति॥४॥

वह आत्मतत्त्व अपने स्वरूप से विचलित न होनेवाला, एक तथा मन से भी तीव्र गतिवाला है । इसे इंद्रियाँ प्राप्त नहीं कर सकीं; क्योंकि यह उन सबसे पहले (आगे) गया हुआ (विद्यमान) है । वह स्थिर होनेपर भी अन्य सब गतिशीलों को अतिक्रमण कर जाता है । उसके रहते हुए ही [अर्थात् उसकी सत्ता मे ही] वायु समस्त प्राणियों के प्रवृत्ति रूप कर्मों का विभाग करता है ॥4॥

तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः॥५॥

वह आत्मतत्त्व चलता है और नहीं भी चलता । वह दूर है और समीप भी है । वह सबके अंतर्गत है और वही इस सबके बाहर भी है ॥5॥

यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्येवानुपश्यति।
सर्वभूतेषु चात्मानं ततो न विजुगुप्सते॥६॥

जो [साधक] सम्पूर्ण भूतों को आत्मा मे ही देखता है और समस्त भूतों मे भी आत्मा को ही देखता है, वह इस [सार्वात्म्यदर्शन]- के कारण ही किसीसे घृणा नहीं करता ॥6॥

यस्मिन्सर्वाणि भूतान्यात्मैवाभूद्विजानतः।
तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्यतः॥७॥

जिस समय ज्ञानी पुरुष के लिए सब भूत आत्मा ही हो गए, उस समय एकत्व देखने वाले उस विद्वान को क्या शोक और क्या मोह हो सकता है ॥7॥

स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रण-मस्नाविरँ शुद्धमपापविद्धम्।
कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भू-र्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः॥८॥

वह आत्मा सर्वगत, शुद्ध, अशरीरी, अक्षत, स्नायु से रहित, निर्मल, अपापहत, सर्वद्रष्टा, सर्वज्ञ, सर्वोत्कृष्ट और स्वयंभू (स्वयं ही होनेवाला) है । उसीने नित्यसिद्ध सवंत्सर नामक प्रजापतियों के लिए यथायोग्य रीति से अर्थों (कर्तत्व्यों अथवा पदार्थों)- का विभाग किया है ॥8॥

अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायाँ रताः॥९॥

जो अविद्या (कर्म)- की उपासना करते हैं वे [अविद्यारूप] घोर अन्धकार मे प्रवेश करते हैं और जो विद्या (उपासना)-मे ही रत हैं वे मानों उससे भी अधिक अन्धकार मे प्रवेश करते हैं ॥9॥
कर्म और उपासना के समुच्चय का फल

अन्यदेवाहुर्विद्ययाऽन्यदाहुरविद्यया।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे॥१०॥

विद्या (देवताज्ञान)-से और ही फल बतलाया गया है तथा अविद्या (कर्म)-से और ही फल बतलाया गया है। ऐसा हमने बुद्धिमान् पुरुषों से सुना है, जिन्होने हमारे प्रति उसकी व्यवस्था की थी ॥10।।

विद्यां चाविद्यां च यस्तद्वेदोभयँ सह।
अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्ययाऽमृतमश्नुते॥११॥

जो विद्या और अविद्या-इन दोनों को ही एक साथ जानता है, वह अविद्या से मृत्यु को पार करके विद्या से अमरत्व प्राप्त कर लेता है ॥11।।

अन्धं तमः प्रविशन्ति येऽसम्भूतिमुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ सम्भूत्याँ रताः॥१२॥

जो असम्भूति (अव्यक्त प्रकृति)- की उपासना करते हैं, वे घोर अन्धकार मे प्रवेश करते हैं और जो सम्भूति (कार्यब्रह्म)- मे रत हैं, वे मानो उनसे भी अधिक अन्धकार मे प्रवेश करते हैं ॥12॥

अन्यदेवाहुः सम्भवादन्यदाहुरसम्भवात्।
इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे॥१३॥

कार्यब्रह्म की उपासना से और ही फल बतलाया गया है; तथा अव्यक्तोपासना से और ही फल बतलाया है। ऐसा हमने बुद्धिमानों से सुना है, जिन्होने हमारे प्रति उसकी व्याख्या की थी ॥13॥

सम्भूतिं च विनाशं च यस्तद्वेदोभयँ सह।
विनाशेन मृत्युं तीर्त्वा सम्भूत्याऽमृतमश्नुते॥१४॥

जो असम्भूति और कार्यब्रह्म इन दोनों को साथ-साथ जानता है; वह कार्यब्रह्म की उपासना से मृत्यु को पार करके असम्भूति के द्वारा [प्रकृतिलयरूप] अमरत्व प्राप्त कर लेता है ॥14॥

हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम्।
तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये॥१५॥

आदित्यमण्डलस्थ ब्रह्म का मुख ज्योतिर्मय पात्र से ढका हुआ है। हे पूषन्! मुझ सत्यधर्मा को आत्मा की उपलब्धि कराने क लिए तू उसे उघाड़ दे ॥15॥

पूषन्नेकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य व्यूह रश्मीन् समूह तेजः।
यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि योऽसावसौ पुरुषः सोऽहमस्मि॥ १६॥

हे जगत्पोषक सूर्य! हे एकाकी गमन करने वाले! हे यम (संसार का नियमन करनेवाले) ! हे सूर्य (प्राण और रस का शोषण करने वाले) ! हे प्रजापतिनन्दन ! तू अपनी किरणों को हटा ले (अपने तेज को समेत ले)। तेरा जो अतिशय कल्याणमय रूप है, उसे मैं देखता हूँ। यह जो आदित्यमण्डलस्थ पुरुष है वह मैं हूँ ॥16॥

वायुरनिलममृतमथेदं भस्मांतँ शरीरम्।
ॐ क्रतो स्मर कृतँ स्मर क्रतो स्मर कृतँ स्मर॥१७॥

अब मेरा प्राण सर्वात्मक वायुरूप सूत्रात्मा को प्राप्त हो और यह शरीर भस्मशेष हो जाय। हे मेरे संकल्पात्मक मन! अब तू स्मरण कर, अपने किए हुए को स्मरण कर, अब तू स्मरण कर, अपने किए हुए को स्मरण कर ॥17॥

अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठां ते नमउक्तिं विधेम॥१८॥

हे अग्ने! हमें कर्मफलभोग के लिए सन्मार्ग से ले चल। हे देव! तू समस्त ज्ञान और कर्मों को जाननेवाला है। हमारे पाषण्डपूर्ण पापों को नष्ट कर। हम तेरे लिए अनेकों नमस्कार करते हैं। ॥18॥

॥इति इशावास्योपनिषद्॥

ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः॥


Tuesday, December 14, 2010


अवधूत गीता - Avdhoot Geeta

अथ चतुर्थोऽध्यायः - 4th Adhyay

नावाहनं नैव विसर्जनं वा
पुष्पाणि पत्राणि कथं भवन्ति
ध्यानानि मन्त्राणि कथं भवन्ति
समासमं चैव शिवार्चनं च ||१||

श्री दत्त बोले- न आवाहन है, न विसर्जन है | पुष्प और पत्र कैसे हैं, ध्यान और विषम कैसे हैं, सम और विषम कैसे हैं, शिव का पूजन कैसे है ||१||

न केवलं बन्धविबन्धमुक्तो
न केवलं शुद्धविशुद्धमुक्तः
न केवलं योगवियोगमुक्तः
स वै विमुक्तो गगनोपमोऽहम् ||२||

वह केवल बंधन और मोक्ष से ही अलग नहीं है, न केवल शुद्ध-अशुद्ध से ही मुक्त है, न केवल संयोग-वियोग से ही मुक्त है | वह निश्चय सबसे छूटा हुआ है | मै आकाश के समान हूँ ||२||

सञ्जायते सर्वमिदं हि तथ्यं
सञ्जायते सर्वमिदं वितथ्यम्
एवं विकल्पो मम नैव जातः
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||३||

जन्म लेता है, वह सब सत्य है | जन्म लेता है, वह सब झूठ है | इस प्रकार भेद मेरे नहीं है, मैं मोक्ष स्वरुप हूँ और निरोग हूँ||३||

न साञ्जनं चैव निरञ्जनं वा
न चान्तरं वापि निरन्तरं वा
अन्तर्विभन्नं न हि मे विभाति
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||४||
न तो वह माया से युक्त है, न माया से अलग है, न उसमे भेद है, न अभेद है | भीतर अलग मुझको नहीं दीखता है | मैं मोक्ष स्वरुप हूँ और निरोग हूँ ||४||

अबोधबोधो मम नैव जातो
बोधस्वरूपं मम नैव जातम्
निर्बोधबोधं च कथं वदामि
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||५||

अज्ञान और ज्ञान मेरे बीच में पैदा नहीं हुआ | जिसमे ज्ञान नहीं है, ऐसे ज्ञान को कैसे कहूँ | मैं मोक्ष स्वरुप और निरोग हूँ ||५||

न धर्मयुक्तो न च पापयुक्तो
न बन्धयुक्तो न च मोक्षयुक्तः
युक्तं त्वयुक्तं न च मे विभाति
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||६||
न तो मेरे धर्म है, न अधर्म है, न बंधन है, न मोक्ष है, योग्य और अयोग्य मेरे बीच में प्रकाश नहीं करते हैं | मैं मोक्ष स्वरुप और निरोग हूँ ||६||

परापरं वा न च मे कदाचित्
मध्यस्थभावो हि न चारिमित्रम्
हिताहितं चापि कथं वदामि
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||७||

पहला और पिछला मेरे कभी नहीं है, न बीच का भाव है, न शत्रु और मित्र है | हित और अहित कैसे कहूँ | मैं मोक्ष रूप हूँ और निरोग हूँ ||७||

नोपासको नैवमुपास्यरूपं
न चोपदेशो न च मे क्रिया च
संवित्स्वरूपं च कथं वदामि
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||८||
न तो उपासना करने वाला है, न उपासना के योग्य रूप है, न उपदेश है, न क्रिया है | ज्ञानस्वरूप का कैसे वर्णन करूँ | मैं मोक्ष रूप हूँ और निरोग हूँ||८||

नो व्यापकं व्याप्यमिहास्ति किञ्चित्
न चालयं वापि निरालयं वा
अशून्यशून्यं च कथं वदामि
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||९||
न तो यहाँ कुछ व्यापक है, न व्यापक होने क योग्य कुछ है, न उपदेश है, न क्रिया है, फिर उस ज्ञान स्वरुप को कैसे कहूँ | मैं मोक्ष स्वरुप हूँ और निरोग हूँ ||९||

न ग्राहको ग्राह्यकमेव किञ्चित्
न कारणं वा मम नैव कार्यम्
अचिन्त्यचिन्त्यं च कथं वदामि
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||१०||

न तो कोई उसको पकड़नेवाला है, न वह पकड़ने योग्य है, न मेरे कुछ कारण है, न कार्य है | वह इश्वर विचार करने में नहीं आ सकता है, उसका रूप कैसे कहूँ | मैं मोक्ष रूप हूँ और निरोग हूँ ||१०||

न भेदकं वापि न चैव भेद्यं
न वेदकं वा मम नैव वेद्यम्
गतागतं तात कथं वदामि
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||११||
न भेद करने वाला है, न भेद के योग्य है, न जानने वाला है, न जानने में आ सकता है, न जाता है, न आता है | हे तात! उसका कैसे वर्णन करूँ | मैं मोक्ष स्वरुप हूँ और निरोग हूँ ||११|

न चास्ति देहो न च मे विदेहो
बुद्दिर्मनो मे न हि चेन्द्रियाणि
रागो विरागश्च कथं वदामि
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||१२||
न मेरे देह है, न विदेह है, न बुद्धि और मन है, न इन्द्रियां है |
राग और विराग का कैसे वर्णन करूँ | मैं मोक्ष स्वरुप हूँ और निरोग हूँ ||१२||

उल्लेखमात्रं न हि भिन्नमुच्चै-
रुल्लेखमात्रं न तिरोहितं वै
समासमं मित्र कथं वदामि
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||१३||
लिखने मात्र को भी वह किसी से अलग नहीं है, लिखने मात्र को भी वह छिपा नहीं है | हे मित्र! सम-विषम कैसे कहूँ | मैं मोक्ष स्वरुप हूँ और निरोग हूँ ||१३||

जितेन्द्रियोऽहं त्वजितेन्द्रियो वा
न संयमो मे नियमो न जातः
जयाजयौ मित्र कथं वदामि
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||१४||
मैं जितेन्द्रिय हूँ और अजितेन्द्रिय हूँ, न मेरे संयम है, न नियम है |
हे मित्र! जीतना और हारना मेरे नहीं है | उसका वर्णन कैसे करूँ, मैं मोक्ष स्वरुप हूँ और निरोग हूँ ||१४||

अमूर्तमूर्तिर्न च मे कदाचि-
दाद्यन्तमध्यं न च मे कदाचित्
बलाबलं मित्र कथं वदामि
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||१५||

झूठी मूर्ति मेरे कभी नहीं है, आदि-अंत-मध्य ये मेरे कभी नहीं है |
हे मित्र! बल और अबल को कैसे कहूँ | मैं मोक्ष स्वरुप हूँ और निरोग हूँ||१५||

मृतामृतं वापि विषाविषं च
सञ्जायते तात न मे कदाचित्
अशुद्धशुद्धं च कथं वदामि
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||१६||
हे तात! मरना और न मरना, विष और अविष, ये मेरे कभी पैदा नहीं होते है, अशुद्ध और शुद्ध नहीं है, इसका वर्णन कैसे करूँ | मैं मोक्ष स्वरुप हूँ और निरोग हूँ ||१६||

स्वप्नः प्रबोधो न च योगमुद्रा
नक्तं दिवा वापि न मे कदाचित्
अतुर्यतुर्यं च कथं वदामि
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||१७||
सोना और जागना, ये मेरे नहीं है, न योग मुद्रा है, रात और दिन मेरे कभी नहीं है, सुषुप्ति और समाधि का वर्णन कैसे कहूँ | मैं मोक्ष रुप हूँ और निरोग हूँ ||१७||

संविद्धि मां सर्वविसर्वमुक्तं
माया विमाया न च मे कदाचित्
सन्ध्यादिकं कर्म कथं वदामि
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||१८||
सब और अधूरा ये मुझमें नहीं है, माया और अमाया मुझमें कभी नहीं है | संध्या से लेकर काल नहीं है, कर्म नहीं है, फिर कैसे कहूँ | मैं मोक्ष स्वरुप हूँ और निरोग हूँ ||१८||

संविद्धि मां सर्वसमाधियुक्तं
संविद्धि मां लक्ष्यविलक्ष्यमुक्तम्
योगं वियोगं च कथं वदामि
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||१९||
सब समाधियों से युक्त मुझको जान, जो देख लिया जाये और जो देखने में न आवे, इनसे अलग मुझको जान | योग और वियोग कैसे कहूँ | मैं मोक्ष स्वरुप हूँ और निरोग हूँ ||१९||

मूर्खोऽपि नाहं न च पण्डितोऽहं
मौनं विमौनं न च मे कदाचित्
तर्कं वितर्कं च कथं वदामि
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||२०||
न मैं मूर्ख हूँ, न पंडित हूँ | मौन और विशेष मौन, ये मेरे कभी नहीं है |
तर्क और कुतर्क भी नहीं है, फिर उसका कैसे वर्णन करूँ | मैं मोक्ष स्वरुप हूँ और निरोग हूँ ||२०||

पिता च माता च कुलं न जाति-
र्जन्मादि मृत्युर्न च मे कदाचित्
स्नेहं विमोहं च कथं वदामि
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||२१||
न मेरे माता है, न पिता है, कुल है, न जाति है | मेरे कभी जन्म-मृत्यु नहीं है, स्नेह और मोह नहीं है, फिर कैसे वर्णन करूँ | मैं मोक्ष स्वरुप हूँ और निरोग हूँ ||२१||

अस्तं गतो नैव सदोदितोऽहं
तेजोवितेजो न च मे कदाचित्
सन्ध्यादिकं कर्म कथं वदामि
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||२२||
मेरा अस्त नहीं है, सदा उदय है | तेज और अंधकार, ये मुझमें प्रकाश करते हैं | सांय काल - प्रातःकाल आदि मेरे नहीं है | कर्म भी नहीं है, फिर कैसे वर्णन करूँ | मैं मोक्ष स्वरुप हूँ और निरोग हूँ ||२२||

असंशयं विद्धि निराकुलं मां
असंशयं विद्धि निरन्तरं माम्
असंशयं विद्धि निरञ्जनं मां
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||२३||
निश्चय मुझको व्याकुलता से रहित जान, निश्चय मुझको व्यापक जान, निश्चय मुझको माया रहित जान | मैं मोक्ष स्वरुप हूँ और निरोग हूँ ||२३||

ध्यानानि सर्वाणि परित्यजन्ति
शुभाशुभं कर्म परित्यजन्ति
त्यागामृतं तात पिबन्ति धीराः
स्वरूपनिर्वाणमनामयोऽहम् ||२४||
धीर मनुष्य सब ध्यानों को छोड़ देते हैं, शुभ-अशुभ कर्मों को छोड़ देते हैं | हे तात! वे त्याग रुपी अमृत को पीते हैं | मैं मोक्ष स्वरुप हूँ और निरोग हूँ ||२४||

विन्दति विन्दति न हि न हि यत्र
छन्दोलक्षणं न हि न हि तत्र
समरसमग्नो भावितपूतः
प्रलपति तत्त्वं परमवधूतः ||२५||
न तो इसमें काव्य है, न छन्द और लक्षण है | समान रस में मग्न होकर, भावना से शुद्ध होकर अवधूत केवल तत्व को कहता है ||२५||

||इति चतुर्थोऽध्यायः ४||

Thursday, December 2, 2010


शाण्डिल्य भक्ति सूत्र - Shandilya Bhaktisutr

तृतीय अध्याय प्रथम आह्निक - 3rd Adhyay 1st Aahnik

भजनीयेनाद्वितीयमिदं कृत्स्नस्य तत्स्वरूपत्वात्‌॥ ८५॥

यह सम्पूर्ण विश्व भजनीय - भगवान से अभिन्न है ; क्योंकि सब कुछ उनका ही स्वरूप है |


तच्चक्तिर्माया जडसामान्यात्‌॥ ८६॥

भगवान की ऐश्वर्य शक्ति का नाम माया है | वह माया भी भगवान से भिन्न नहीं है ; क्योंकि जैसे अन्य जड़तत्त्व भगवत्स्वरूप हैं, वैसे यह माया भी है |

व्यापकत्वाद्वयाप्यानाम्‌॥ ८७॥


भगवान सच्चिदानन्द स्वरूप से सबमें व्यापक हैं ; व्याप्य वस्तुएँ व्यापक का स्वरूप होती हैं ; अतः कुछ भी भगवान से भिन्न नहीं है |

न प्राणिबुद्धिभ्योऽसम्भवात्‌॥ ८८॥


(इस संसार की सृष्टि बुद्धिपूर्वक हुई है - सोच-समझकर की गयी है; यह बात इसकी सूक्ष्मता, सृष्टिक्रम, उपयोगिता एवं व्यवस्था को देखते हुए प्रतीत होती है; तो क्या किसी जीव की बुद्धि से इस जगत का निर्माण हुआ है? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए सूत्रकार कहते हैं- ) नहीं, प्राणियों की बुद्धि से जगत की सृष्टि नहीं हुई है; क्योंकि जीव की स्वल्प बुद्धि के लिये यह असम्भव है (अतः ईश्वर ही इसके स्रष्टा हैं ) |

निर्मायोच्चावचं श्रुतीश्च निर्मिमीते पितृवत्‌॥ ८९॥


ऊँच-नीच अथवा स्थूल-सूक्ष्म भेद वाले समस्त दृश्य-प्रपंच एवं प्राणी वर्ग को उत्पन्न करके भगवान उन्हें हिताहित का परिज्ञान कराने के लिये वेदों का भी निर्माण (प्राकट्य) करते हैं | ठीक वैसे ही, जैसे पिता पुत्रों को उत्पन्न करके उन्हें कर्तव्य-अकर्तव्य का ज्ञान कराने के लिये शिक्षा की व्यवस्था करता है |

मिश्रोपदेशान्नेति चेन्न स्वल्पत्वात्‌॥ ९०॥


यदि कहें, 'वेद में धर्ममय यज्ञ-यागादी के साथ कहीं-कहीं हिंसात्मक यागों का भी उपदेश देखा जाता है; अतः अधर्म मिश्रित धर्म का उपदेश देने के कारण ईश्वर पिता के सामान हितकारी नहीं हैं' तो यह धारणा ठीक नहीं है; क्योंकि ऐसी बातें बहुत थोड़ी हैं और वह भी हिंसकों की बढ़ी हुई हिंसा वृत्ति को उन-उन यज्ञों में ही सीमित कर के धीरे-धीरे कम करने के लिये ही वैसी बातें कही गयी हैं | (वास्तव में तो हिंसा का निषेध ही वेद का अभीष्ट मत है |)

फलमस्माद्बादरायणो दृष्टत्वात्‌॥ ९१॥


कर्मों का फल ईश्वर से ही प्राप्त होता है, स्वतः नहीं ; क्योंकि लोक में ऐसा ही देखा गया है | (जैसे कोई अपने कार्य द्वारा राजा आदिको संतुष्ट करता है तो पुरस्कार पाता है और दुर्व्यवहार से उसे रुष्ट करता है तो दण्ड का भागी होता है; इसी प्रकार ईश्वर ही शुभाशुभ कर्मों का सुख-दुःख रूप फल देते हैं | यह बात भगवान वेदव्यास ने (उत्तरमीमांसा -ब्रह्मसूत्र १|१|२ में) कही है |

व्युत्क्रमादप्ययस्तथा दृष्टम्‌॥ ९२॥


विपरीत क्रम से भूतों का अपने कारण में लय होता है, ऐसा ही देखा गया है | ( घट फूटने पर मिट्टी में लीन होता है; इसी प्रकार प्रत्येक व्याप्य वस्तु अपने में व्यापक कारण-तत्त्व में विलीन होती है; यथा पृथ्वी का जल में, जल का अग्नि में, अग्नि का वायु में और वायु का आकाश में लय होता है | )

Friday, November 12, 2010


चाणक्यनीति - Chanakyaniti

सप्तमोऽध्यायः - 7th Adhyay

अर्थनाशं मनस्तापं गृहिणीचरितानि च
नीचवाक्यं चाऽपमानं मतिमान्न प्रकाशयेत् ॥१॥

अपने धन का नाश, मन का सन्ताप, स्त्रीका चरित्र, नीच मनुष्य की कही बात और अपना अपमान, इनको बुध्दिमान मनुष्य किसी के समक्ष जाहिर न करे ॥1॥

धनधान्मप्रयोगेषु विद्यासंग्रहणेषु च ।
आहारे व्यवहारे च त्यक्तलज्जा सुखी भवेत् ॥२॥

धन-धान्यके लेन-देन, विद्याध्ययन, भोजन, सांसारिक व्यवसाय, इन कामों में जो मनुष्य लज्जा नहीं करता, वही सुखी रहता है ॥2॥

स्न्तोषामृततृप्तानां यत्सुखं शान्तिरेव च ।
न च तध्दनलुब्धानामितश्चेतश्च धावताम् ॥३॥

सन्तोषरूपी अमृत से तृप्त मनुष्यों को जो सुख और शांति प्राप्त होती है, वह धन के लोभ से इधर-उधर मारे-मारे फिरने वालोंको कैसे प्राप्त होगी ? ॥3॥

सन्तोषस्त्रिषु कर्तव्यः स्वदारे भोजने धने ।
त्रिषु चैव न कर्त्तव्योऽध्ययने जपदानयोः ॥४॥

तीन बातों में सन्तोष धारण करना चाहिए । जैसे-अपनी स्त्री में, भोजन में और धन में । इसी प्रकार तीन बातों में कभी भी सन्तुष्ट न होना चाहिए । अध्ययन में, जप में, और दान में ॥4॥

विप्रयोर्विप्रह्नेश्च दम्पत्यॊः स्वामिभृत्ययोः ।
अन्तरेण न गन्तव्यं हलस्य वृषभस्म च ॥५॥

दो ब्राह्मणों के बीच में से, ब्राह्मण और अग्नि के बीच से, स्वामी और सेवक के बीच से, स्त्री-पुरुष के बीच से और हल तथा बैल के बीच से नहीं निकलना चाहिए ॥5॥


पादाभ्यां न स्पृशेदग्नि गुरुं ब्राह्मणमेव च ।
नैव गां च कुमारीन न वृध्दं न शिशुं तथा ॥६॥

अग्नि, गुरु, ब्राह्मण, गौ, कुमारी कन्या, वृध्द और बालक इनको कभी पैरों से न छुए ॥6॥

हस्ती हस्तसहस्त्रेण शतहस्तेन वाजिनः ।
श्रृड्गिणी दशहस्तेन देशत्यागेन दुर्जनः ॥७॥

हजार हाथ की दूरी से हाथी से, सौ हाथ की दूरी से घोडा से, दस हाथ की दूरी से सींगवाले जानवरों से बचना चाहिये और मौका पड जाय तो देश को ही त्याग कर दुर्जन से बचे ॥7॥

हस्ती अंकुशमात्रेण बाजी हस्तेन ताड्यते ।
श्रृड्गि लकुटहस्ते न खड्गहस्तेन दुर्जनः ॥८॥

हाथी अंकुश से, घोडा चाबुक से, सींगवाले जानवर लाठी से और दुर्जन तलवार से ठीक होते हैं ॥8॥

तुष्यन्ति भोजने विप्रा मयूरा घनगर्जिते ।
साधवः परसम्पत्तौ खलाः परविपत्तिषु ॥९॥

ब्राह्मण भोजन से, मोर मेघ के गर्जन से, सज्जन पराये धन से और खल मनुष्य दूसरे पर आई विपत्ति से प्रसन्न होता है ॥9॥

अनुलोमेन बलिनं प्रतिलोमेन दुर्जन्म् ।
आत्मतुल्यबलं शत्रुः विनयेन बलेन वा ॥१०॥

अपने से प्रबल शत्रु को उसके अनुकूल चल कर, दुष्ट शत्रु को उसके प्रतिकूल चल कर और समान बलवाले शत्रु का विनय और बल से नीचा दिखाना चाहिए ॥10॥

बाहुवीर्य बलं राज्ञो ब्रह्मवित् बली ।
रूप-यौवन-माधुर्य स्त्रीणां बलमनुत्तमम् ॥११॥

राजाओं में बाहुबलसम्पन्न राजा और ब्राह्मणों में ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण बली होता है और रूप तथा यौवन की मधुरता स्त्रियों का सबसे उत्तम बल है ॥11॥

नाऽत्यन्तं सरलैर्भाव्यं गत्वा पश्य वन्स्थलीम् ।
छिद्यन्ते सरलास्तत्र कुब्जस्तिष्ठन्ति पादपाः ॥१२॥

अधिक सीधा-साधा होना भी अच्छा नहीं होता । जाकर वन में देखो--वहाँ सीधे वृक्ष काट लिये जाते हैं और टेढे खडे रह जाते हैं ॥12॥

यत्रोदकस्तत्र वसन्ति हंसा-स्तथव शुष्कं परिवर्जयन्ति ।
नहंतुल्येन नरेण भाव्यं पुनस्त्यजन्तः पुनराश्र यन्तः ॥१३॥

जहाँ जल रहता है वहाँ ही हंस बसते हैं । वैसे ही सूखे सरोवरको छोडते हैं और बार-बार आश्रय लर लेते हैं । सो मनुष्य को हंस के समान न होना चाहिये ॥13॥

उपार्जितानां वित्तानां त्याग एव हि रक्षणम् ।
तडागोदरसंस्थानां परीस्त्र व इवाम्भसाम् ॥१४॥

अर्जित धनका व्यय करना ही रक्षा है । जैसे नये जल आने पर तडाग के भीतर के जल को निकालना ही रक्षा है ॥14॥


यस्यार्स्थास्तस्य मित्राणि यस्यार्स्थास्तस्य बान्धवाः ।
यस्यार्थाः स पुमाल्लोके यस्यार्थाः सचजीवति ॥१५॥

जिनके धन रहता है उसके मित्र होते हैं, जिसके पास अर्थ रहता है उसीके बंधू होते हैं । जिसके धन रहता है वही पुरुष गिना जाता है, जिसके अर्थ है वही जीत है ॥15॥

स्वर्गस्थितानामहि जीवलोकेचत्वारि चिह्नानि वसन्ति देहे ।
दानप्रसंगो मधुरा च वाणी देवार्चनं ब्राह्मणतर्पणं च ॥१६॥

संसार में आने पर स्वर्ग स्थानियों के शरीर में चार चिह्म रहते हैं, दान का स्वभाव, मीठा वचन, देवता की पूजा, ब्राह्मण को तृप्त करना अर्थात् जिन लोगों में दान आदि लक्षण रहे उनको जानना चाहिये कि वे अपने पुण्य के प्रभाव से स्वर्गवासी मृत्यु लोक में अवतार लिये हैं ॥16॥

अत्यन्तकोपः कटुता च वाणीदरिद्रता च स्वजनेषु वैरम् ।
नीचप्रसड्गः कुलहीनसेवा चिह्नानि देहे नरकस्थितानाम्॥१७॥

अत्यन्त क्रोध, कटुवचन, दरिद्रता, अपने जनों में बैर, नीचका संग, कुलहीनकी सेवा, ये चिह्म नरकवासियोंकी देहों में रहते हैं ॥17॥

गम्यते यदि मॄगन्द्रमन्दिरंलभ्यते करिकपीलमौक्तिकम् ।
जम्बुकालयगते च प्राप्यते वस्तुपुच्छखरचर्मखण्डनम् ॥१८॥

यदि कोई सिंह की गुफा में जा पडे तो उसको हाथी के कपोलका मोती मिलता है, और सियार के स्थान में जाने पर बछावे की पूँछ और गदहे के चामडे का टुकडा मिलता है ॥18॥

श्वानपुच्छमिच व्यर्थ जीवितं विद्यया विना ।
न गुह्यगोपने शक्तं न च दंशनिवारणे ॥१९॥

कुत्ते की पूँछ के समान विद्या बिना जीना व्यर्थ है । कुत्ते की पूँछ गोप्य इन्द्रिय को ढाँक नहीं सकती और न मच्छड आदि जीवॊम को उडा सकती है ॥19॥

वाचा शौचं च मनसः शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।
सर्वभूते दया शौचमेतच्छौचं परार्थिनाम् ॥२०॥

वच की शुध्दि, मति की शुध्दि, इंद्रियों का संयम, जीवॊं पर दया और पवित्रता--ये परमार्थितों की शुध्दि है ॥20॥

पुष्पे गन्धतिले तैलं काष्ठे वह्नि पयो घृतम् ।
इक्षौ गुडं तथा देहे पश्याऽऽत्मानं विवेकतः ॥२१॥

जैसे फलमें गंध, तिल में तेल, काष्ठमें आग, दूध में घी और ईख में गुड है वैसे देह में आत्मा को विचार से देखो ॥21॥

इति चाणक्ये सप्तमोऽध्यायः ॥७॥