पूज्य बापूजी के दिव्य दर्शन और भारतीय संस्कृति का सर्वहितकारी ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

Friday, September 23, 2011


ब्रह्मसूत्र - BrahmSutr

चतुर्थ अध्याय - Chaturt Adhyay
 पहला पाद - Pahla Paad

आवृत्तिर् असकृदुपदेशात् । १ ।
अध्ययन की हुई उपासना का आवर्तन ( बार-बार अभ्यास) करना चाहिएक्योंकि श्रुति में बार-बार इसके लिए उपदेश किया गया है । 1

लिङ्गाच् च । २ ।
स्मृति के वर्णन रूप लिंग (प्रमाण) से भी यही बात सिद्ध होती है । 2
  
आत्मेति तूपगच्छन्ति ग्राहयन्ति च । ३ ।
वह मेरा आत्मा हैइस भाव से ही ज्ञानीजन उसे जानते या प्राप्त करते हैं और ऐसा ही ग्रहण कराते या समझाते हैं । 3
  
न प्रतीके न हि सः । ४ ।
प्रतीक में आत्मभाव नहीं करना चाहिए क्योंकि वह उपासक का आत्मा नहीं है । 4
  
ब्रह्मदृष्टिर् उत्कर्षात् । ५ ।
ब्रह्म ही सर्वश्रेष्ठ हैइसलिए प्रतीक में ब्रह्म दृष्टि करनी चाहिएक्योंकि निकृष्ट वस्तु में ही उत्कृष्ट की भावना की जाती है । 5
  
आदित्यादिमतयश् चाङ्ग उपपत्तेः । ६ ।
तथा कर्माङ्गभूत उद्गीथ आदि में आदित्य आदि की बुद्धि करनी चाहिए । क्योंकि यही युक्ति युक्त हैऐसा करने से कर्म समृद्धि रूप फल की सिद्धि होती है । 6

आसीनः संभवात् । ७ ।
बैठे हुए ही उपासना करनी चाहिए क्योंकि बैठे हुए ही निर्विघ्न उपासना संभव है । 7

ध्यानाच् च । ८ ।
उपासना का स्वरूप ध्यान है । इसलिए भी यही सिद्ध होता है कि बैठकर उपासना करनी चाहिए । 8

अचलत्वं चापेक्ष्य । ९ ।
तथा श्रुति में शरीर की निश्चलता को आवश्यक बताकर ध्यान करने का उपदेश किया गया है । 9

स्मरन्ति च । १० ।
तथा ऐसा ही स्मरण करते हैं । 10

यत्रैकाग्रता तत्राविशेषात् । ११ ।
किसी विशेष स्थान या दिशा का विधान न होने के कारण यही सिद्ध होता है कि जहाँ चित्त की एकाग्रता सुगमता से हो सकेवहीं बैठकर ध्यान का अभ्यास करे । 11

आप्रयाणात् तत्रापि हि दृष्टम् । १२ ।
मरण पर्यन्त उपासना करते रहना चाहिए क्योंकि मरण काल में भी उपासना करते रहने का विधान देखा जाता है । 12

तदधिगम उत्तरपूर्वाघयोर् अश्लेषविनाशौ तद्व्यपदेशात् । १३ ।
उस परब्रह्म परमात्मा के प्राप्त हो जाने पर आगे होने वाले और पहले किए हुए पापों का क्रमशः असंपर्क एवं नाश होता है । क्योंकि श्रुति में यही बात जगह-जगह कही गयी है । 13

इतरस्याप्य् एवम् असंश्लेषः पाते तु । १४ ।
पुण्यकर्म समुदाय का भी इसी प्रकार सम्बन्ध न होना और नाश हो जाना समझना चाहिए । देहपात होने पर तो वह परमात्मा को प्राप्त हो जाता है । 14

अनारब्धकार्ये एव तु पूर्वे तदवधेः । १५ ।
किन्तु जिनका फलभोग रूप कार्य आरम्भ नहीं हुआ है ऐसे पूर्वकृत पुण्य और पाप ही नष्ट होते हैं क्योंकि श्रुति में प्रारब्ध कर्म रहने तक शरीर के रहने की अवधि निर्धारित की गयी है । 15

अग्निहोत्रादि तु तत्कार्यायैव तद्दर्शनात् । १६ ।
आश्रमोपयोगी अग्निहोत्र आदि विहित कर्मों के अनुष्ठान का विधान तो उन उन विहित कर्मों की रक्षा करने के लिए ही है । यही श्रुतियों एवं स्मृतियों में देखा गया है । 16

अतोऽन्यापि ह्य् एकेषाम् उभयोः । १७ ।
इनसे भिन्न किया भी ज्ञानी और साधक दोनों के लिए ही किसी एक शाखा वालों के मत में विहित है । 17

यद् एव विद्ययेति हि । १८ ।
जो भी विद्या के सहित किया जाता हैइस प्रकार कथन करने वाली श्रुति है । इसलिए विद्या कर्मों का अंग किसी जगह हो सकती है । 18

भोगेन त्व् इतरे क्षपयित्वाथ संपद्यते । १९ ।
संचित और क्रियमाण के सिवा दूसरे प्रारब्ध रूप शुभाशुभ कर्मों को तो भोग के द्वारा क्षीण करके वह ज्ञानी परमात्मा को प्राप्त हो जाता है । 19

॥ पहला पाद संपूर्ण ॥


Tuesday, September 6, 2011

अष्टावक्र गीता - Ashtavakr Gita
एकादश अध्याय - Ekadash Adhyay

अष्टावक्र उवाच -
भावाभावविकारश्च स्वभावादिति निश्चयी।
निर्विकारो गतक्लेशः सुखेनैवोपशाम्यति॥१॥

श्री अष्टावक्र कहते हैं - भाव(सृष्टि, स्थिति) और अभाव(प्रलय, मृत्यु) रूपी विकार स्वाभाविक हैं, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला विकाररहित, दुखरहित होकर सुख पूर्वक शांति को प्राप्त हो जाता है॥1॥

ईश्वरः सर्वनिर्माता नेहान्य इति निश्चयी।
अन्तर्गलितसर्वाशः शान्तः क्वापि न सज्जते॥२॥

ईश्वर सबका सृष्टा है कोई अन्य नहीं ऐसा निश्चित रूप से जानने वाले की सभी आन्तरिक इच्छाओं का नाश हो जाता है। वह शांत पुरुष सर्वत्र आसक्ति रहित हो जाता है॥2॥

आपदः संपदः काले दैवादेवेति निश्चयी।
तृप्तः स्वस्थेन्द्रियो नित्यं न वान्छति न शोचति॥३॥

संपत्ति (सुख) और विपत्ति (दुःख) का समय प्रारब्धवश (पूर्व कृत कर्मों के अनुसार) है, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला संतोष और निरंतर संयमित इन्द्रियों से युक्त हो जाता है। वह न इच्छा करता है और न शोक ॥3॥

सुखदुःखे जन्ममृत्यू दैवादेवेति निश्चयी।
साध्यादर्शी निरायासः कुर्वन्नपि न लिप्यते॥४॥

सुख-दुःख और जन्म-मृत्यु प्रारब्धवश (पूर्व कृत कर्मों के अनुसार) हैं, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला, फल की इच्छा न रखने वाला, सरलता से कर्म करते हुए भी उनसे लिप्त नहीं होता है॥4॥

चिन्तया जायते दुःखं नान्यथेहेति निश्चयी।
तया हीनः सुखी शान्तः सर्वत्र गलितस्पृहः॥५॥

चिंता से ही दुःख उत्पन्न होते हैं किसी अन्य कारण से नहीं, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला, चिंता से रहित होकर सुखी, शांत और सभी इच्छाओं से मुक्त हो जाता है॥5॥

नाहं देहो न मे देहो बोधोऽहमिति निश्चयी।
कैवल्यं इव संप्राप्तो न स्मरत्यकृतं कृतम्॥६॥

न मैं यह शरीर हूँ और न यह शरीर मेरा है, मैं ज्ञानस्वरुप हूँ, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला जीवन मुक्ति को प्राप्त करता है। वह किये हुए (भूतकाल) और न किये हुए (भविष्य के) कर्मों का स्मरण नहीं करता है॥6॥

आब्रह्मस्तंबपर्यन्तं अहमेवेति निश्चयी।
निर्विकल्पः शुचिः शान्तः प्राप्ताप्राप्तविनिर्वृतः॥ ७॥

तृण से लेकर ब्रह्मा तक सब कुछ मैं ही हूँ, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला विकल्प (कामना) रहित, पवित्र, शांत और प्राप्त-अप्राप्त से आसक्ति रहित हो जाता है॥7

नाश्चर्यमिदं विश्वं न किंचिदिति निश्चयी।
निर्वासनः स्फूर्तिमात्रो न किंचिदिव शाम्यति॥८॥

अनेक आश्चर्यों से युक्त यह विश्व अस्तित्वहीन है, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला, इच्छा रहित और शुद्ध अस्तित्व हो जाता है। वह अपार शांति को प्राप्त करता है॥८॥