पूज्य बापूजी के दिव्य दर्शन और भारतीय संस्कृति का सर्वहितकारी ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

Friday, February 25, 2011


श्रीनरसिंहपुराण - Shri Narsingh Puran


अध्याय १६ - Adhyay 16

श्रीशुक उवाच
संसारवृक्षमारुह्य द्वन्द्वपाशशतैर्दृढैः ।
बध्यामानः सुतैश्वर्यैः पतितो योनिसागरे ॥१॥
यः कामक्रोधलोभैस्तु विषयैः परिपीडितः ।
बद्धः स्वकर्मभिर्गोणैः पुत्रदारैषणादिभिः ॥२॥
स केन निस्तरत्याशु दुस्तरं भवसागरम् ।
पृच्छामाख्याहि मे तात तस्य मुक्तिः कथं भवेत् ॥३॥

श्रीशुक्रदेवजी बोले - पिताजी ! जो संसार - वृक्षपर आरुढ़ हो; राग - द्वेषादि द्वन्द्वमय सैकड़ों सुदृढ़ पाशों तथा पुत्र और ऐश्वर्य आदिके बन्धनसे बँधकर योनि - समुद्रमें गिरा हुआ है तथा काम, क्रोध, लोभ और विषयोंसे पीड़ित होकर अपने कर्ममय मुख्य बन्धनों तथा पुत्रैषणा और दारैषणा आदि गौण बन्धनोंसे आबद्ध है, वह मनुष्य इस दुस्तर भवसागरको कैसे शीघ्र पार कर सकता है ? उसकी मुक्ति कैसे हो सकती है ? हमारे इस प्रश्नका समाधान कीजिये ॥१ - ३॥

श्रीव्यास उवाच
श्रृणु वत्स महाप्राज्ञ यञ्ञात्वा मुक्तिमाप्नुयात् ।
तच्च वक्ष्यामि ते दिव्यं नारदेन श्रुतं पुरा ॥४॥
नरके रौरवे घोरे धर्मज्ञानविवर्जिताः ।
स्वकर्मभिर्महादुःखं प्राप्ता यत्र यमालये ॥५॥
महापापकृतं घोरं सम्र्पाप्ताः पापकृज्जनाः ।
आलोक्य नारदः शीघ्रं गत्वा यत्र त्रिलोचनः ॥६॥
गङ्गाधरं महादेवं शंकरं शूलपाणिनम् ।
प्रणम्य विधिवद्देवं नारदः परिपृच्छति ॥७॥

श्रीव्यासजी बोले - महाप्राज्ञ पुत्न ! मैंने पूर्वकालमें नारदजीके मुखसे जिसका श्रवण किया था और जिसे जान लेनेपर मनुष्य मुक्ति प्राप्त कर लेता है, उस दिव्य ज्ञानका मैं तुमसे वर्णन करता हूँ । यमराजके भवनमें जहाँ घोर रौरव नरकके भीतर धर्म और ज्ञानसे रहित प्राणी अपने पापकर्मोंके कारण महान् कष्ट पाते हैं, वहाँ एक बार नारदजी गये । उन्होंने देखा, पापी जीव अपने महान् पापोंके फलस्वरुप घोर संकटमें पड़े हैं । यह देखकर नारदजी शीघ्र ही उस स्थानपर गये, जहाँ त्रिलोचन महादेवजी थे । वहाँ पहुँचकर सिरपर गङ्गाजीको धारण करनेवाले महान् देवता शूलपाणि भगवान् शंकरको उन्होंने विधिवत् प्रणाम किया और इस प्रकार पूछा ॥४ - ७॥

नारद उवाच
यः संसारे महाद्वन्द्वैः कामभोगैः शुभाशुभैः ।
शब्दादिविषयैर्बद्धः पीड्यमानः षडूर्मिभिः ॥८॥
कथं नु मुच्यते क्षिप्रं मृत्युसंसारसागरात् ।
भगवन् ब्रूहि मे तत्त्वं श्रोतुमिच्छामि शंकर ॥९॥
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा नारदस्य त्रिलोचनः ।
उवाच तमृषिं शम्भुः प्रसन्नवदनो हरः ॥१०॥

नारदजी बोले - ' भगवन् ! जो संसारमें महान्द्व न्द्वों, शुभाशुभ कामभोगों और शब्दादि विषयोंसे बँधकर छहों ऊर्मियोंद्वारा पीड़ित हो रहा है, वह मृत्युमय संसारसागरसे किस प्रकार शीघ्र ही मुक्त हो सकता है ? कल्याणस्वरुप भगवान् शिव ! यह बात मुझे बताइये । मैं यही सुनना चाहता हूँ ।' नारदजीका वह वचन सुनकर त्रिनेत्रधारी भगवान् हरका मुखारविन्द प्रसन्नतासे खिल उठा । वे उन महर्षिसे बोले ॥८ - १०॥

महेश्वर उवाच
ज्ञानामृतं च गुह्यं च रहस्यमृषिसत्तम ।
वक्ष्यामि श्रृणु दुःखघ्नं सर्वबन्धभयापहम् ॥११॥
तृणादि चतुरास्यान्तं भूतग्रामं चतुर्विधम् ।
चराचरं जगत्सर्वं प्रसुप्तं यस्य मायया ॥१२॥
तस्य विष्णोः प्रसादेन यदि कश्चित् प्रबुध्यते ।
स निस्तरति संसारं देवानामपि दुस्तरम् ॥१३॥
भोगैश्वर्यमदोन्मत्तस्तत्त्वज् ञानपराङ्मुखः ।
संसारसुमहापङ्के जीर्णा गौरिव मज्जति ॥१४॥
यस्त्वात्मानं निबध्नाति कर्मभिः कोशकारवत् ।
तस्य मुक्तिं न पश्यामि जन्मकोटिशतैरपि ॥१५॥
तस्मान्नारद सर्वेशं देवानां देवमव्ययम् ।
आराधयेत्सदा सम्यग् ध्यायेद्विष्णुं समाहितः ॥१६॥

श्रीमहेश्वरने कहा - मुनिश्रेष्ठ ! सुनो; मैं सब प्रकारके बन्धनोंका भय और दुःख दूर करनेवाले गोपनीय रहस्यभूत ज्ञानामृतका वर्णन करता हूँ । तृणसे लेकर चतुरानन ब्रह्माजीतक, जो चार प्रकारका प्राणिसमुदाय है, वह अथवा समस्त चराचर जगत् जिनकी मायासे सुप्त हो रहा है, उन भगवान् विष्णुकी कृपासे यदि कोई जाग उठता है - ज्ञानवान् हो जाता है तो वही देवताओंके लिये भी दुस्तर इस संसार- सागरको पार कर जाता है । जो मनुष्य भोग और ऐश्वर्यके मदसे उन्मत्त और तत्त्वज्ञानसे विमुख है, वह संसाररुपी महान् पङ्कमें उस तरह डूब जाता है, जैसे कीचड़में फँसी हुई बूढ़ी गाय । जो रेशमके कीड़ेकी भाँति अपनेको कर्मोंके बन्धनसे बाँध लेता है, उसके लिये करोड़ों जन्मोंमें भी मैं मुक्तीकी सम्भावना नहीं देखता । इसलिये नारद ! सदा समाहितचित्त होकर सर्वेश्वर अविनाशी देवदेव भगवान् विष्णुका सदा भलीभाँति आराधन और ध्यान करना चाहिये ॥११ - १६॥

यस्तं विश्वमनाद्यन्तमाद्यं स्वात्मनि संस्थितम् ।
सर्वज्ञममलं विष्णुं सदा ध्यायन् विमुच्यते ॥१७॥
निर्विकल्पं निराकाशं निष्प्रपञ्चं निरामयम् ।
वासुदेवमजं विष्णुं सदा ध्यायन् विमुच्यते ॥१८॥
निरञ्जनं परं शान्तमच्युतं भूतभावनम् ।
देवगर्भं विभुं विष्णुं सदा ध्यायन् विमुच्यते ॥१९॥
सर्वपापविनिर्मुक्तमप्रमेयमलक् षणम् ।
निर्वाणमनघं विष्णुं सदा ध्यायन् विमुच्यते ॥२०॥
अमृतं परमानन्दं सर्वपापविवर्जितम् ।
ब्रह्मण्यं शंकरं विष्णुं सदा संकीर्त्य मुच्यते ॥२१॥
योगेश्वरं पुराणाख्यमशरीरं गुहाशयम् ।
अमात्रमव्ययं विष्णुं सदा ध्यायन् विमुच्यते ॥२२॥

जो सदा उन विश्वस्वरुप, आदि - अन्तसे रहित, सबके आदिकारण, आत्मनिष्ठ, अमल एवं सर्वज्ञ भगवान् विष्णुका ध्यान करता है, वह मुक्त हो जाता है । जो विकल्पसे रहित, अवकाशशून्य, प्रपञ्चसे परे, रोग - शोकसे हीन एवं अजन्मा हैं, उन वासुदेव ( सर्वव्यापी भगवान् ) विष्णुका सदा ध्यान करनेवाला पुरुष संसार - बन्धनसे मुक्त हो जाता है । जो सब दोषोंसे रहित, परम शान्त, अच्युत, प्राणियोंकी सृष्टि करनेवाले तथा देवताओंके भी उत्पत्तिस्थान हैं, उन भगवान् विष्णुका सदा ध्यान करनेवाला पुरुष जन्म - मृत्युके बन्धनसे छुटकारा पा जाता है । जो सम्पूर्ण पापोंसे शून्य, प्रमाणरहित, लक्षणहीन, शान्त तथा निष्पाप हैं, उन भगवान् विष्णुका सदा चिन्तन करनेवाला मनुष्य कर्मोंके बन्धनसे मुक्त हो जाता है । जो अमृतमय, परमानन्दस्वरुप, सब पापोंसे रहित, ब्राह्मणप्रिय तथा सबका कल्याण करनेवाले हैं, उन भगवान् विष्णुका निरन्तर नामकीर्तन करनेसे मनुष्य संसार - बन्धनसे मुक्त हो जाता है । जो योगोंके ईश्वर, पुराण, प्राकृत देहहीन, बुद्धिरुप गुहामें शयन करनेवाले, विषयोंके सम्पर्कसे शून्यऔर अविनाशी हैं, उन भगवान् विष्णुका सदा ध्यान करनेवाला पुरुष जन्म - मृत्युके बन्धनसे छुटकारा पा जाता है ॥१७ - २२॥

शुभाशुभविनिर्मुक्तमूर्षिषटकपरं विभुम् ।
अचिन्त्यममलं विष्णुं सदा ध्यायन् विमुच्यते ॥२३॥
सर्वद्वन्द्वविनिर्मुक्तं सर्वदुःखविवर्जितम् ।
अप्रतर्क्यमजं विष्णुं सदा ध्यायन् विमुच्यते ॥२४॥
अनामगोत्रमद्वैतं चतुर्थं परमं पदम् ।
तं सर्वहद्रतं विष्णुं सदा ध्यायन् विमुच्यते ॥२५॥
अरुपं सत्यसंकल्पं शुद्धमाकाशवत्परम् ।
एकाग्रमनसा विष्णुं सदा ध्यायन् विमुच्यते ॥२६॥
सर्वात्मकं स्वभावस्थमात्मचैतन्यरुपकम् ।
शुभ्रमेकाक्षरं विष्णुं सदा ध्यायन् विमुच्यते ॥२७॥
अनिर्वाच्यमविज्ञेयमक्षरादिमसम् भवम् ।
एकं नूत्नं सदा विष्णूं सदा ध्यायन् विमुच्यते ॥२८॥
विश्वाद्यं विश्वगोप्तारं विश्वादं सर्वकामदम् ।
स्थानत्रयातिगं विष्णुं सदा ध्यायन् विमुच्यते ॥२९॥
सर्वदुःखक्षयकरं सर्वशान्तिकरं हरिम् ।
सर्वपापहरं विष्णुं सदा ध्यायन् विमुच्यते ॥३०॥
ब्रह्मादिदेवगन्धर्वैर्मुनिभिः सिद्धचारणैः ।
योगिभिः सेवितं विष्णुं सदा ध्यायन् विमुच्यते ॥३१॥
विष्णौ प्रतिष्ठितं विश्वं विष्णुर्विश्वे प्रतिष्ठितः ।
विश्वेश्वरमजं विष्णुं कीर्तयन्नेव मुच्यते ॥३२॥
संसारबन्धनान्मुक्तिमिच्छन् काममशेषतः ।
भक्त्यैव वरदं विष्णुं सदा ध्यायन् विमुच्यते ॥३३॥

जो शुभ और अशुभके बन्धनसे रहित, छः ऊर्मियोंसे परे, सर्वव्यापी, अचिन्तनीय तथा निर्मल हैं, उन भगवान् विष्णुका सदा ध्यान करनेवाला मनुष्य संसारसे मुक्त हो जाता है । जो समस्त द्वन्द्वोंसे मुक्त और सब दुःखोंसे रहित हैं, उन तर्कके अविषय, अजन्मा भगवान् विष्णुका सदा ध्यान करता हुआ पुरुष मुक्त हो जाता है । जो नामगोत्रसे शून्य, अद्वितीय और जाग्रत आदि तीनों अवस्थाओंसे परे तुरीय परमपद हैं, समस्त भूतोंके हदय - मन्दिरमें विद्यमान उन भगवान् विष्णुका सदा ध्यान करनेवाला पुरुष मुक्त हो जाता है । जो रुपरहित, सत्यसंकल्प और आकाशके समान परम शुद्ध हैं, उन भगवान् विष्णुका सदा एकाग्रचित्तसे चिन्तन करनेवाला मनुष्य मुक्ति प्राप्त कर लेता है । जो सर्वरुप, स्वभावनिष्ठ और आत्मचैतन्यरुप हैं, उन प्रकाशमान एकाक्षर ( प्रणवमय ) भगवान् विष्णुका सदा ध्यान करनेवाला मनुष्य मुक्त हो जाता है । जो विश्वके आदिकारण, विश्वके रक्षक, विश्वका भक्षण ( संहार ) करनेवाले तथा सम्पूर्ण काम्यवस्तुओंके दाता हैं, तीनों अवस्थाओंसे अतीत उन भगवान् विष्णुका सदा ध्यान करनेवाला मनुष्य मुक्त हो जाता है । समस्त दुःखोके नाशक, सबको शान्ति प्रदान करनेवाले और सम्पूर्ण पापोंको हर लेनेवाले भगवान् विष्णुका सदा ध्यान करनेवाला मनुष्य संसार - बन्धनसे मुक्त हो जाता है । ब्रह्मा आदि देवता, गन्धर्व, भुनि, सिद्ध, चारण और योगियोंद्वारा सेवित भगवान् विष्णुका सदा ध्यान करनेवाला पुरुष पाप - तापसे मुक्त हो जाता है । यह विश्व भगवान् विष्णुमें स्थित है और भगवान् विष्णु इस विश्वमें प्रतिष्ठित हैं । सम्पूर्ण विश्वके स्वामी, अजन्मा भगवान् विष्णुका कीर्तन करनेमात्रसे मनुष्य मुक्त हो जाता है । जो संसार - बन्धनसे मुक्ति तथा सम्पूर्ण कामनाओंकी पूर्ति चाहता है, वह यदि भक्तिपूर्वक वरदायक भगवान् विष्णुका ध्यान करे तो सफलमनोरथ होकर संसार - बन्धनसे मुक्त हो जाता है ॥२३ - ३३॥

व्यास उवाच
नारदेन पुरा पृष्ट एवं स वृषभध्वजः ।
यदुवाच तदा तस्मै तन्मया कथितं तव ॥३४॥
तमेव सततं ध्याहि निर्बीजं ब्रह्म केवलम् ।
अवाप्यसि ध्रुवं तात शाश्वतं पदमव्ययम् ॥३५॥

श्रीव्यासजी कहते हैं - बेटा ! इस प्रकार पूर्वकालमें देवर्षि नारदजीके पूछनेपर उन वृषभचिह्नित ध्वजावाले भगवान् शंकरने उस समय उनके प्रति जो कुछ कहा था, वह सब मैंने तुमसे कह सुनाया । तात ! निर्बीज ब्रह्मरुप उन अद्वितीय विष्णुका ही निरन्तर ध्यान करो; इससे तुम अवश्य ही सनातन अविनाशी पदको प्राप्त करोगे ॥३४ - ३५॥

श्रुत्वा सुरऋषिर्विष्णोः प्राधान्यमिदमीश्वरात् ।
स विष्णुं सम्यगाराध्य परां सिद्धिमवाप्तवान् ॥३६॥
यश्चैनं पठते चैव नृसिंहकृतमानसः ।
शतजन्मकृतं पापमपि तस्य प्रणश्यति ॥३७॥
विष्णोः स्तवमिदं पुण्यं महादेवेन कीर्तितम् ।
प्रातः स्नात्वा पठेन्नित्यममृतत्वं स गच्छति ॥३८॥
ध्यायन्ति ये नित्यमनन्तमच्युतं
हत्पद्ममध्येष्वथ कीर्तयन्ति ये ।
उपासकानां प्रभुमीश्वरं परं
ते यान्ति सिद्धिं परमां तु वैष्णवीम् ॥३९॥

देवर्षि नारदने शंकरजीके मुखसे इस प्रकार भगवान् विष्णुकी श्रेष्ठताका प्रतिपादन सुनकर उनकी भलीभाँति आराधना करके उत्तम सिद्धि प्राप्त कर ली । जो भगवान् नृसिंहमें चित्त लगाकर इस प्रसंगका नित्य पाठ करता है, उसका सौ जन्मोंमें किया हुआ पाप भी नष्ट हो जाता है । महादेवजीके द्वारा कथित भगवान् विष्णुके इस पावन स्तोत्रका जो प्रतिदिन प्रातः काल स्नान करके पाठ करता है, वह अमृतपद ( मोक्ष ) को प्राप्त कर लेता है । जो लोग अपने हदय - कमलके मध्यमें विराजमान अनन्त भगवान् अच्युतका सदा ध्यान करते हैं और उपासकोंके प्रभु उन परमेश्वर भगवान् विष्णुका कीर्तन करते हैं, वे परम उत्तम वैष्णवी सिद्धि ( विष्णु - सायुज्य ) प्राप्त कर लेते हैं ॥३६ - ३९॥

इति श्रीनरसिंहपुराणे विष्णोः स्तवराजनिरुपणे षोडशोऽध्यायः 

इस प्रकार श्रीनरसिंहपुराणमें ' श्रीविष्णुस्तवराजनिरुपण ' विषयक सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ

Thursday, February 10, 2011


केन उपनिषद् - Ken Upnishad

द्वितीयः खण्ड: - 2nd Khand

यदि मन्यसे सुवेदेति दहरमेवापि
नूनं त्वं वेत्थ ब्रह्मणो रूपम् ।
यदस्य त्वं यदस्य देवेष्वथ नु
मीमाँस्येमेव ते मन्ये विदितम् ॥ १ ॥

यदि तू ऐसा मानता है कि ‘मैं अच्छी तरह जानता हूँ’ तो निश्चय ही तू ब्रह्म का थोड़ा-सा ही रूप जानता है। इसका जो रूप तू जानता है और इसका जो रूप देवताओं मे विदित है [वह भी अल्प ही है] अतः तेरे लिए ब्रह्म विचारणीय ही है। [तब शिष्य ने एकान्त देश मे विचार करने के अनन्तर कहा-] ‘मैं ब्रह्म को जान गया-ऐसा समझता हूँ’ ।।1।।

नाहं मन्ये सुवेदेति नो न वेदेति वेद च ।
यो नस्तद्वेद तद्वेद नो न वेदेति वेद च ॥ २ ॥

मैं न तो यह मानता हूँ की ब्रह्म को अच्छी तरह जान गया और न यही समझता हूँ कि उसे नहीं जानता। इसलिये मैं उसे जानता हूँ [और नहीं भी जानता] । हम शिष्यों मे से जो उसे ‘न तो नहीं जानता हूँ और न जानता ही हूँ’ इस प्रकार जानता है वही जानता है ॥2॥

यस्यामतं तस्य मतं मतं यस्य न वेद सः ।
अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम् ॥ ३ ॥

ब्रह्म जिसको ज्ञात नहीं है उसीको ज्ञात है और जिसको ज्ञात है वह उसे नहीं जानता; क़्योंकि वह जाननेवालों का बिना जाना हुआ है और न जाननेवालों का जाना हुआ है [क्योकि अन्य वस्तुओं के समान दृश्य न होने से वह विषयरूप से नहीं जाना जा सकता] ॥3॥

प्रतिबोधविदितं मतममृतत्वं हि विन्दते ।
आत्मना विन्दते वीर्यं विद्यया विन्दतेऽमृतम् ॥ ४ ॥

जो प्रत्येक बोध (बोद्ध प्रतीति)-मे प्रत्यगात्मरूप से जाना गया है वही ब्रह्म है-यही उसका ज्ञान है, क्योंकि उस ब्रह्मज्ञान से अमृतत्व की प्राप्ति होती है । अमृतत्व अपने ही से प्राप्त होता है, विद्या से तो ज्ञानान्धकार को निवृत्त करने का सामर्थ्य मिलता है ॥4॥

इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति
न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः ।
भूतेषु भूतेषु विचित्य धीराः
प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति ॥ ५ ॥

यदि इस जन्म मे ब्रह्म को जान लिया तब तो ठीक है और यदि उसे इस जन्म मे न जाना तब तो बड़ी भारी हानि है । बुद्धिमान् लोग उसे समस्त प्राणियों मे उबलब्ध करके इस लोक से जाकर अमर हो जाते हैं ॥5॥

 ॥ इति केनोपनिषदि द्वितीयः खण्डः ॥