पूज्य बापूजी के दिव्य दर्शन और भारतीय संस्कृति का सर्वहितकारी ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

Monday, May 24, 2010


श्री मद्भागवत महापुराण - Shrimad Bhagwat Mahapuran

पंचम स्कंध - Pancham Skand
ग्यारहवाँ अध्याय - 11th Adhyay

राजा रहूगण को भरतजी का उपदेश

जड़भरत ने कहा - राजन ! तुम अज्ञानी होने पर भी पंडितों के समान ऊपर - ऊपर की तर्क -वितर्कयुक्त बात कह रहे हो | इसलिए श्रेष्ठ ज्ञानियों में तुम्हारी गणना नहीं हो सकती | तत्वज्ञानी पुरुष इस अविचारसिद्ध स्वामी-सेवक आदि व्यवहारों को तत्वविचार के समय सत्य रूप से स्वीकार नहीं करते || १ ||

लौकिक व्यव्हार के समान ही वैदिक व्यव्हार भी सत्य नहीं है, क्यौंकी वेदवाक्य भी अधिकतर गृहस्थजनोचित यज्ञ विधि के विस्तार में ही व्यस्त हैं, राग-द्वेषादि दोषों से रहित विशुद्ध तत्वज्ञान की पूरी-पूरी अभिव्यक्ति प्रायः उनमे भी नहीं हुई है ||२||

जिसे गृहस्थोचित यज्ञादि कर्मों से प्राप्त होनेवाला स्वर्गादि सुख स्वप्न के समान हेय नहीं जान पड़ता, उसे तत्वज्ञान कराने में साक्षात् उपनिषद्-वाक्य भी समर्थ नहीं है ||३||

जब तक मनुष्य का मन सत्व, रज अथवा तमोगुण के वशीभूत रहता है, तब तक वह बिना किसी अंकुश के उसकी ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रियों से शुभाशुभ कर्म कराता रहता है ||४||

यह मन वासनामय, विषयासक्त, गुणों से प्रेरित, विकारी और भूत एवं इन्द्रियरुप सोलह कलाओं में मुख्य है | यही भिन्न-भिन्न नामों से देवता और मनुष्यादी रूप धारण करके शरीररूप उपाधियों के भेद से जीवकी उत्तमता और अधमता का कारण होता है ||५||

यह मायामय मन संसारचक्र में छलने वाला है, यही अपनी देह के अभिमानी जीव से मिलकर उसे कालक्रम से प्राप्त हुए सुख-दुःख और इनसे व्यतिरिक्त मोहरूप अवश्यम्भावी फलों की अभिव्यक्ति करता है ||६||

जबतक यह मन रहता है, तभी तक जाग्रत और स्वप्नावस्था का व्यव्हार प्रकाशित होकर जीव का दृश्य बनता है | इसलिए पंडितजन मन को ही त्रिगुणमय अधम संसार का और गुणातीत परमोत्कृष्ट मोक्ष पद का कारण बताते हैं ||७||

विषयासक्त मन जीव को संसार-संकट में डाल देता है, विषयहीन होने पर वही उसे शांतिमय मोक्ष पद प्राप्त करा देते है | जिस प्रकार घी से भीगी हुई बत्ती को खानेवाले दीपक से तो धूएँ वाली शिखा निकलती रहती है और जब घी समाप्त हो जाता है तब वह अपने कारण अग्नि तत्व में लीन हो जाता है- उसी प्रकार विषय और कर्मों में असक्त हुआ मन तरह-तरह की वृत्तियों का आश्रय लिए रहता है और इनसे मुक्त होने पर वह अपने तत्व में लीन हो जाता है ||८||

वीरवर ! पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय और एक अहंकार - ये ग्यारह मन की वृत्तियाँ हैं तथा पाँच प्रकार के कर्म पाँच तन्मात्र और एक शरीर - ये ग्यारह उनके आधारभूत विषय कहे जाते हैं ||९||

गंध, रूप, स्पर्श, रस, और शब्द - ये पाँच ज्ञानेन्द्रियों के विषय हैं; मलत्याग, सम्भोग, गमन, भाषण और लेना-देना आदि व्यापार - ये पाँच कर्मेन्द्रियों के विषय हैं तथा शरीर को 'यह मेरा है' इस प्रकार स्वीकार करना अहंकार का विषय है | कुछ लोग अहंकार को मन की बारहवीं वृत्ति और उसके आश्रय शरीर को बारहवाँ विषय मानते हैं ||१०||

ये मन की ग्यारह वृत्तियाँ द्रव्य (विषय), स्वभाव, आशय (संस्कार), कर्म और काल के द्वारा सैकड़ों, हजारों, और करोड़ों भेदों में परिणत हो जाती हैं | किन्तु इनकी सत्ता क्षेत्रज्ञ आत्मा की सत्ता से ही है, स्वतः या परस्पर मिल कर नहीं है ||११||

ऐसा होने पर भी मन से क्षेत्रज्ञ का कोई सम्बन्ध नहीं है | यह तो जीव की ही मायानिर्मित उपाधि है | यह प्रायः संसारबंधन में डालने वाले अविशुद्ध कर्मों में ही प्रवृत्त रहता है | इसकी उपर्युक्त वृत्तियाँ प्रवाहरुप से नित्य ही रहती हैं; जाग्रत और स्वप्न के समय वे प्रकट हो जाती हैं और सुषुप्ति में छिप जाती हैं | इन दोनों ही अवस्थाओं में क्षेत्रज्ञ, जो विशुद्ध चिन्मात्र है, मन की इन वृत्तियों को साक्षीरूप से देखता रहता है ||१२||

यह क्षेत्रज्ञ परमात्मा सर्वव्यापक, जगत का आदि-कारण, परिपूर्ण, अपरोक्ष, स्वयंप्रकाश, अजन्मा, ब्रह्मादी का भी नियंता और अपने अधीन रहने वाली माया के द्वारा सबके अन्तःकरणों में रहकर जीवों को प्रेरित करने वाला समस्त भूतों का आश्रयरूप भगवान वासुदेव हैं ||१३||

जिस प्रकार वायु संपूर्ण स्थावर-जंगम प्राणियों में प्राण रूप से प्रवृष्ट हो कर उन्हें प्रेरित करती हैं, उसी प्रकार वह परमेश्वर भगवान वासुदेव सर्वसाक्षी आत्मस्वरूप से इस संपूर्ण प्रपंच में ओत-प्रोत हैं ||१४||

राजन् जबतक मनुष्य ज्ञानोदय के द्वारा इस माया का तिरस्कार कर, सबकी आसक्ति छोड़कर तथा काम-क्रोधादि छः शत्रुओं को जीत कर आत्म तत्व को नहीं जान लेता और जब तक वह आत्मा के उपाधि रूप मन को सुख-दुःख का क्षेत्र नहीं समझता, तब तक वह इस लोक में यों ही भटकता रहता है, क्योंकि यह चित्त उसके शोक, मोह, रोग, राग, लोभ और वैर आदि के संस्कार तथा ममता की वृद्धि करता रहता है || १५-१६||

यह मन ही तुम्हारा बड़ा बलवान शत्रु है | तुम्हारे उपेक्षा करने से इसकी शक्ति और भी बढ़ गयी है | यह यद्यपि स्वयं तो सर्वथा मिथ्या है, तथापि इसने तुम्हारे आत्मस्वरूप को आच्छादित कर रखा है | इसलिये तुम सावधान होकर श्रीगुरु और हरी के चरणों की उपासना के अस्त्र से इसे मार डालो ||१७||

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