पूज्य बापूजी के दिव्य दर्शन और भारतीय संस्कृति का सर्वहितकारी ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

Monday, May 17, 2010

योगसूत्र ( पतंजलि योगसूत्र ) Patanjali YogSutr
साधनपाद ( द्वितीय) - 2nd Adhyay Sadhanpad

तस्य सप्तधा प्रान्तभूमिः प्रज्ञा॥२७॥

उस (विवेकज्ञानप्राप्त) पुरुष की, प्रज्ञा बुद्धि, सात प्रकार की, स्थितियों, भूमियों (जिनमें चित्त रहता है) वाली होती है।(चार कार्यविमुक्तप्रज्ञा - 1.ज्ञेयशून्य अवस्था, 2.हेयशून्य अवस्था, 3.प्राप्यप्राप्त अवस्था, 4.चिकीर्षाशून्य अवस्था, तीन चित्तविमुक्तिप्रज्ञा, 5.चित्त की कृतार्थता, 6. गुणलीनता, 7. आत्मस्थिति)

योगाङ्गानुष्ठानाद् अशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिरा विवेकख्यातेः॥२८॥


योग के अङ्गों का अनुष्ठान से, अशुद्धि का नाश होने पर, ज्ञान का प्रकाश, विवेकख्याति पर्यन्त हो जाता है।

यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टाव अङ्गानि॥२९॥


यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि, अष्टौ ये आठ, (योग के) अंग हैं।

अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः॥३०॥अहिंसा, सत्य, 

अस्तेय(अचौर्य या चोरी का अभाव), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह(संग्रह का अभाव), ये पाँच यम हैं।

जातिदेशकालसमयानवच्छिन्नाः सार्वभौमा महाव्रतम्॥३१॥


(उपरोक्त यम) जाति, देश, काल और समय की सीमा से रहित, सार्वभौम होने पर, महाव्रत (के स्वरूप वाले) हैं ।

शौचसंतोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः॥३२॥

शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान, (ये पाँच) नियम हैं।

वितर्कबाधने प्रतिपक्षभावनम्॥३३॥

वितर्कों को हटाने में, तथा समाधि के प्रतिपक्षी भाव को हटाने में (यम नियम ) हैं।

वितर्का हिंसादयः कृतकारितानुमोदिता लोभक्रोधमोहपूर्वका मृदुमध्याधिमात्रा दुःखाज्ञानानन्तफला इति प्रतिपक्षभावनम्॥३४॥

(यम एवं नियमों के विरोधी) हिंसा आदि भाव, वितर्क हैं, वे तीन प्रकार के होते हैं , कृत (स्वयं किये हुये), कारिता (दूसरों से करवाये हुये), अनुमोदित (दूसरों से अनुमोदित या स्वीकृत) जो कि, लोभ, क्रोध एवं मोह के कारण होते हैं, इनमें भी कोई छोटा, मध्यम, बड़ा होता है, ये दुःख और अज्ञानरूप अनन्त फल देने वाले होते हैं, इति इस प्रकार (विचार या भावना करना ही) , प्रतिपक्ष की भावना है।

अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः॥३५॥


अहिंसा की स्थिति दृढ़ होने पर, उसके, सान्निध्य में, (सभी प्राणी) वैर का त्याग कर देते हैं।

सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्॥३६॥


सत्य की स्थिति दृढ़ होने पर, (योगी में), क्रियाफल के आश्रय का भाव आ जाता है।

अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम्॥३७॥


अस्तेय की स्थिति दृढ़ होने पर योगी में, सब प्रकार के रत्न प्रकट हो जाते हैं।

ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः॥३८॥


ब्रह्मचर्य की स्थिति दृढ़ होने पर, सामर्थ्य का लाभ होता है।

अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथंतासंबोधः॥३९॥


अपरिग्रह की स्थित में स्थिरता आने पर, पूर्वजन्मादि की कथाओं(बातों / रहस्यों) ज्ञान हो जाता है।

शौचात् स्वाङ्गजुगुप्सा परैरसंसर्गः॥४०॥


शौच के पालन से, अपने अङ्गों से वैराग्य और, दूसरे से संसर्ग न करने भावना या इच्छा (उत्पन्न होती है)।

सत्त्वशुद्धिसौमनस्यैकाग्र्येन्द्रियजयात्मदर्शनयोग्यत्वानि च॥४१॥


इसके अतिरिक्त, सत्व की शुद्धि, मन में प्रसन्नता, चित्त की एकाग्रता, इन्द्रिय जय और आत्मसाक्षात्कार की योग्यता ये पाँच भी होते हैं।

संतोषाद् अनुत्तमः सुखलाभः॥४२॥


सन्तोष से, जिनसे बढ़कर कोई अन्य उत्तम न हो ऐसा, सुखलाभ होता है।

कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात् तपसः॥४३॥


तप से, अशुद्धि के क्षय से, शरीर और इन्द्रियों की सिद्धि हो जाती है।

स्वाध्यायाद् इष्टदेवतासंप्रयोगः॥४४॥

स्वाध्याय से, इष्टदेवता की भलि-भाँति प्राप्ति या साक्षात्कार होता है।

समाधिसिद्धिरीश्वरप्रणिधानात्॥४५॥

ईश्वर प्रणिधान से, समाधि की सिद्धि हो जाती है ।

स्थिरसुखम् आसनम्॥४६॥

स्थिर पूर्वक तथा सुखयुक्त (बैठने की स्थिति) आसन है ।

प्रयत्नशैथिल्यानन्तसमापत्तिभ्याम्॥४७॥

उक्त आसन प्रयत्न की शिथिलिता से तथा अनन्त में मन लगाने सिद्ध होता है ।

ततो द्वन्द्वानभिघातः॥४८॥

तब (आसन के सिद्ध होने पर), द्वन्द्व (शीतोष्ण आदि का) आघात नहीं लगता है ।

तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः॥४९॥

उस आसन की सिद्धि होने के बाद, श्वास एवं प्रश्वास की, गति का रूक जाना, प्राणायाम है ।

बाह्याभ्यन्तरस्तम्भवृत्तिः देशकालसंख्याभिः परिदृष्टो दीर्घसूक्ष्मः॥५०॥

(ये प्राणायाम) बाह्यवृत्ति, आभ्यन्तरवृत्ति और स्तम्भवृत्ति (ऐसे तीन प्रकार का होता) है तथा यह, देश, काल और संख्या के द्वारा, भलिभाँति देखा हुया, लम्बा और हल्का होता है ।

बाह्याभ्यन्तरविषयाक्षेपी चतुर्थः॥५१॥

बाह्य और आन्तर के विषय का त्याग कर देने से आपने आप होने वाला चौथा प्राणायाम है।

ततः क्षीयते प्रकाशावरणम्॥५२॥

उस (प्राणायाम के अभ्यास करने से), प्रकाश (ज्ञान) का आवरण, क्षीण हो जाता है ।

धारणासु च योग्यता मनसः॥५३॥

तथा, धारणाओं में , मन की, योग्यता भी हो जाती है ।

स्वस्वविषयासंप्रयोगे चित्तस्य स्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः॥५४॥

अपने विषयों के सम्बन्ध से रहित होने पर, इन्द्रियों का, जो चित्त के स्वरूप के समान तदाकारता है, वह, प्रत्याहार है।

ततः परमा वश्यतेन्द्रियाणाम्॥५५॥

उस (प्रत्याहार) से, इन्द्रियों की, परम, वश्यता हो जाती है ।

1 comment:

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