पूज्य बापूजी के दिव्य दर्शन और भारतीय संस्कृति का सर्वहितकारी ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

Wednesday, May 5, 2010



कठोपनिषद् - Kathoupnishad

द्वितीय अध्याय प्रथम वल्ली- 2nd Adhyay Pratham Vally
(यमराज - नचिकेता संवाद) 

पराञ्चि खानि व्यतृणत् स्वयंभूस्तस्मात्पराड् पश्यति नान्तरात्मन्।
कश्चिद्धार: प्रत्यगात्मानमैक्षदावृत्तचक्षुरमृतत्वमिच्छन् ॥१॥

स्वयं प्रकट होनेवाले परमेश्वर ने समस्त इन्द्रियों को बाहर (विषयों की ओर) जानेवाली बनाया है। इसीलिए (मनुष्य) बाहर की ओर देखता है, अन्तरात्मा को नहीं देखता। अमृतत्व की इच्छा करनेवाला कोई एक धीर अपने चक्षु आदि इन्द्रियों को बाह्य विषयों से लौटाकर अन्त:स्थ आत्मा को देख पाता है।

पराच: कामाननुयन्ति बालास्ते मृत्योर्यन्ति वितस्य पाशम्।
अथ धीरा अमृतत्वं विदित्वा ध्रुवमध्रुवेष्विह न प्रार्थयन्ते॥ २॥

अविवेकीजन बाह्य भोगों का अनुसरण करते हैं। वे सर्वत्र विस्तीर्ण मृत्यु के बन्धन में पड़ जाते हैं, किन्तु धीर पुरुष ध्रुव अमृतपद को जानकर इस जगत् में अध्रुव (अनित्य, नश्वर) भोगों मेंसे किसी को भी (भोग की) कामना नहीं करते।

येन रुपं रसं गन्धं शब्दान्स्पर्शांश्च मैथुनान्।
एतेनैव विजानाति किमत्र परिशिष्यते॥ एतद् वै तत्॥ ३॥

(मनुष्य) जिस (आत्मा) से शब्द, स्पर्श, रस, गन्ध और स्त्री-प्रसंग (के सुख को) जानता है, (वह) इसी (आत्मा) से ही तो जानता है। इस जगत् में कौन सा पदार्थ शेष रह जाता है (जिसे आत्मा नहीं जानता?) १ यही तो वह है (जिसे तुमने पूछा है )।

स्वप्नान्तं जागरितान्तं चोभौ येनानुपश्यति।
महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति॥ ४॥

मनुष्य स्वप्न के मध्य में, जाग्रत-अवस्था में, इन दोनों अवस्थाओं में जिसके प्रताप से (दृश्यों को) देखता है, (उस) महान् सर्वव्यापी आत्मा (परमात्मा) को जानकर धीर (बुद्धिमान् पुरुष) शोक (चिन्ता आदि) नहीं करता।

य इमं मध्वदं वेद आत्मानं जीवमन्तिकात्।
ईशान भूतभव्यस्य न ततो विजुगुप्सते॥ एतद् वै तत्॥ ५॥

जो मनुष्य मध्वद (कर्मफलभोक्ता, आनन्दभोक्ता, अमृतभोगी), प्राणादि के धारयिता जीव (जीवन के स्त्रोत परमात्मा) को समीप से (भली प्रकार) भूत, भविष्यत् के शासन करनेवाले को, इस परमात्मा को, जान लेता है, वह ऐसा जानने के पश्चात् भय, घृणा नहीं करता। निश्चय ही यही तो वह आत्मतत्त्व है (जिसे तुम जानना चाहते हो)।

य: पूर्वं तपसो जातमद्भय: पूर्वमजायत।
गुहां प्रविश्य तिष्ठन्तं यो भूतेभिर्व्यपश्यत॥ एतद् वै तत्॥ ६॥

जो मनुष्य सर्वप्रथम तप से उत्पन्न हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा, समष्टि बुद्धि) की, जो कि जल आदि (भूतों) से पूर्व उत्पन्न हुआ, भूतों के सहित हृदयरूप गुहा में संस्थित देखता है, वही उसे देखता है। यही तो आत्मा है।

या प्राणेन संभवत्यदितिर्देवतामयी।
गुहां प्रविश्य तिष्ठन्तीं या भूतेभिर्व्यजायत॥ एतद् वै तत्॥ ७॥

जो सर्वदेवतामयी अदितिदेवी प्राणों के साथ उत्पन्न होती है, जो प्राणियों के सहित उत्पन्न हुई, जो हृदयरूपी गुहा में प्रविष्ट होकर स्थित रहती है, (उसे जो ज्ञानी पुरुष देखता है, वही यथार्थ देखता है)। यह ही वह है (जिसे तुम जानना चाहते हो)।

अरण्योर्निहितो जातवेदा गर्भ इव सुभृतो गर्भिणीभिः।
दिवे दिवे ईडयो जागृवद्भिर्हविष्मद्भिर्मनुष्येभिरग्निः॥ एतद् वै तत्॥ ८॥

(जो) सर्वज्ञ गर्भिणी स्त्री द्वारा भली प्रकार से सुरक्षित गर्भ की भाँति दो अरणियों में निहित है, (वह) सावधान रहकर यज्ञ करनेवाले मनुष्यों द्वारा प्रतिदिन स्तुति करने योग्य (अग्नि) है, यही है वह।

यतश्चोदेति सूर्योऽस्तं यत्र च गच्छति।
तं देवा: सर्वे अर्पितास्तदु नात्येति कश्चन॥ एतद् वै तत्॥ ९॥

 जिससे सूर्य उदित होता है, जिसमें अस्त होता है, सब देव उसे अर्पित हैं। उस परमात्मा को निश्चय ही कोई भी नहीं लाँघ सकता है। यही तो वह है।

यदेवेह तदमुत्र यदमुत्र तदन्विह।
मृत्योः स मृत्युमाप्रोति य इह नानेव पश्यति॥ १०॥

 जो यहाँ (इस लोक में) है, वही वहाँ (उस लोक में) है। जो वहाँ (परलोक में) है, वही यहाँ (इस लोक में) है। जो परमात्मा को अनेक की भाँति देखता है, वह मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त करता है।

मनसैवेदमाप्तव्यं नेह नानास्ति किंचन।
मृत्यो: स मृत्युं गच्छति य इह नानेव पश्यति॥ ११॥

 परमात्म-तत्त्व का ग्रहण (विशुद्ध एवं सूक्ष्म) मन से ही करना चाहिए। यहाँ (जगत् में) भिन्नत्व है ही नहीं। जो मनुष्य यहाँ अनेक (भिन्न-भिन्न) की भाँति देखता है, वह मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होता है।

अङ्गुष्ठमात्र: पुरुषो मध्य आत्मनि तिष्ठति।
ईशानो भूतभव्यस्य न ततो विजुगुप्सते॥ एतद् वै तत्॥ १२॥

अङ्गुष्ठमात्र पुरुष देह के मध्यभाग (हृदयाकाश) में स्थित रहता है। वह भूत और भविष्यत् का शासन करनेवाला है। उसके जाने लेने पर मनुष्य घृणा, भय, आदि नहीं करता। यह ही तो वह है।

अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषो ज्योतिरिवाधूमकः।
ईशानो भूतभव्यस्य स एवाद्य स उ श्वः॥ एतद् वै तत्॥ १३॥

 अङ्गुष्ठमात्र पुरुष धूमरहित ज्योति की भाँति है। भूत और भविष्यत् का (अर्थात् काल का) शासक है। वह ही आज है और वह ही कल है (अर्थात् सदा रहनेवाला, सनातन है)। यही है वह।

यथोदकं दुर्गे वृष्टं पर्वतेषु विधावति।
एवं धर्मान् पृथक् पश्यंस्तानेवानुविधावति॥ १४॥

 जिस प्रकार उच्च शिखर पर बरसा हुआ जल पर्वतों में बह जाता है, उसी प्रकार शरीरभेदों अथवा स्वभावों को पृथक्-पृथक् देखनेवाला मनुष्य उन्हीं का अनुसरण करता है।

यथोदकं शुद्धेशुद्धमासिक्तं तादृगेव भवति।
एवं मुनेर्विजानत आत्मा भवति गौतम॥ १५॥

हे नचिकेता, जिस प्रकार शुद्ध जल में बरसा हुआ शुद्ध जल वैसा ही हो जाता है, उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष का आत्मा हो जाता है।

2 comments:

  1. HariOm, Great job you are doing. We are able to read Kathonishad sitting at home only.

    ReplyDelete