प्रश्नोपनिषद् - Prashnopnishad
पञ्चम प्रश्न - Pancham Prashan
अथ हैनं शैब्यः सत्यकामः पप्रच्छ ।
स यो ह वै तद्भगवन्मनुष्येषु प्रायणान्तं ॐकारं अभिध्यायीत ।
कतमं वाव स तेन लोकं जयतीति । ।
तदनन्तर उन पिप्पलाद मुनि से शिबि पुत्र सत्यकाम ने पूछा-‘भगवन् ! मनुष्यों में जो पुरुष प्राणप्रयाणपर्यन्त इस ओङ्कार का चिंतन करे, वह उस (ओङ्कारोपासना)-से किस लोक को जीत लेता है ?’ ॥1॥
तस्मै स होवाच ।
एतद्वै सत्यकाम परं चापरं च ब्रह्म यदोंकारः ।
तस्माद्विद्वानेतेनैवायतनेनैकतरं अन्वेति । ।
उससे उस पिप्पलाद ने कहा-हे सत्यकाम ! यह जो ओङ्कार है वही निश्चय पर और अपर ब्रह्म है । अंतः विद्वान इसीके आश्रय से उनमें से किसी एक [ब्रह्म]-को प्राप्त हो जाता है ॥2॥
स यद्येकमात्रं अभिध्यायीत ।
स तेनैव संवेदितस्तूर्णं एव जगत्यां अभिसम्पद्यते ।
तं ऋचो मनुष्यलोकं उपनयन्ते ।
स तत्र तपसा ब्रह्मचर्येण श्रद्धया सम्पन्नो महिमानं अनुभवति । ।
वह यदि एकमात्राविशिष्ट ओङ्कार का ध्यान करता है तो उसीसे बोध को प्राप्त कर तुरंत ही संसार को प्राप्त हो जाता है । उसे ऋचाएँ मनुष्य लोक में ले जाती हैं । वहाँ वह तप, ब्रह्मचर्य और श्रद्धा से सम्पन्न होकर महिमा का अनुभव करता है ॥3॥
अथ यदि द्विमात्रेण मनसि संपद्यते ।
सोऽन्तरीक्षं यजुर्भिरुन्नीयते सोमलोकं ।
स सोमलोके विभूतिं अनुभूय पुनरावर्तते । ।
और यदि वह द्विमात्राविशिष्ट ओङ्कार के चिन्तन द्वारा मन से एकत्व को प्राप्त हो जाता है तो उसे यजुःश्रुतियाँ अन्तरिक्ष स्थित सोमलोक में ले जाती हैं । तदनन्तर सोमलोक में विभूति का अनुभव कर वह फिर लौट आता है ॥4॥
यः पुनरेतं त्रिमात्रेणोमित्येतेनैवाक्षरेण परं पुरुषं अभिध्यायीत ।
स तेजसि सूर्ये संपन्नः ।
यथा पादोदरस्त्वचा विनिर्मुच्यते ।
एवं ह वै स पाप्मना विनिर्मुक्तः स सामभिरुन्नीयते ब्रह्मलोकं ।
स एतस्माज्जीवधनात्परापरं पुरिशयं पुरुषं ईक्षते तदेतौ श्लोकौ भवतः । ।
किन्तु जो उपासक त्रिमात्राविशिष्ट ‘ॐ’ इस अक्षर द्वारा इस परमपुरुष की उपासना करता है वह तेजोमय सूर्यालोक को प्राप्त होता है । सर्प जिस प्रकार केंचुली से निकाल आता है उसी प्रकार वह पापों से मुक्त हो जाता है । वह सामश्रुतियों द्वारा ब्रह्मलोक में ले जाया जाता है और इस जीवनघन से भी उत्कृष्ट हृदय स्थित परम पुरुष का साक्षात्कार करता है । इस संबंध में ये दो श्लोक हैं ॥5॥
तिस्रो मात्रा मृत्युमत्यः प्रयुक्ता अन्योन्यसक्ता अनविप्रयुक्ताः ।
क्रियासु बाह्याभ्यन्तरमध्यमासु सम्यक्प्रयुक्तासु न कम्पते ज्ञः । ।
ओङ्कार की तीनों मात्राएँ [पृथक्-पृथक्] रहने पर मृत्यु से युक्त हैं । वे [ध्यान-क्रिया में] प्रयुक्त होती हैं और परस्पर संबद्ध तथा अनविप्रयुक्ता (जिनका विपरीत प्रयोग न किया गया हो-ऐसी) हैं । इस प्रकार बाह्य (जाग्रत्), आभ्यंतर (सुषुप्ति) और मध्यम (स्वप्नस्थानीय) क्रियाओं में उनका सम्यक् प्रयोग किया जाने पर ज्ञाता पुरुष विचलित नहीं होता ॥6॥
ऋग्भिरेतं यजुर्भिरन्तरिक्षं सामभिर्यत्तत्कवयो वेदयन्ते ।
तं ॐकारेणैवायतनेनान्वेति विद्वान्यत्तच्छान्तं अजरं अमृतं अभयं परं चेति । ।
साधक ऋग्वेद द्वारा इस लोक को, यजुर्वेद द्वारा अन्तरिक्ष को और सामवेद द्वारा उस लोक को प्राप्त होता है जिसे विज्ञजन जानते हैं । तथा उस ओङ्काररूप आलंबन के द्वारा ही विद्वान उस लोक को प्राप्त होता है जो शांत, अजर, अमर, अभय एवं सबसे पर (श्रेष्ठ) है ॥7॥
इति पञ्चमः प्रश्नः
sadho sadho jai ho gyansvarupa mere gurudeva anandrupa mere gurudeva madhurya svarupa mere gurudeva.om om om om om pyar ji
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