पूज्य बापूजी के दिव्य दर्शन और भारतीय संस्कृति का सर्वहितकारी ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

Wednesday, June 1, 2011


मुण्डक उपनिषद - Mundak Upnishad
द्वितीय मुण्डक द्वितीय खण्ड - 2nd Mundak 2nd Khand

आविः संनिहितं गुहाचरं नाम महत्पदमत्रैतत्समर्पितम्। एजत्प्राण-न्निमिषच्च 
यदेतज्जानथ सदसद्वेण्यं परं विज्ञानाद्यद्वरिष्ठं प्रजानाम् ॥१॥
परमेश्वर  प्रकाशस्वरूप हैअत्यन्त समीपस्थ हैगुहाचर नाम से प्रसिद्ध हैमहान् पद (परम प्राप्यपरम साध्य) है। जो चेष्टा करनेवाले (गातिवाले)श्वास लेनेवाले और नेत्रों को खोलनेमूँदनेवाले हैंवे सब इसीमें प्रतिष्ठित हैं। इसे (परमेश्वर को) आप लोग जानेंजो सत् और असत् तथा वरेण्य है (अथवा जो सत् और असत् से भी परे है), वरिष्ठ (सबसे श्रेष्ठ) हैमनुष्यों की बुद्धि से परे है।

यदर्चिमद्यदणभ्योऽणुच यस्मिँल्लोका निहिता लोकिनश्च। तदेतदक्षंर ब्रह्म स 
प्राणस्तदु वाड्मनः। तदेतत्सत्यं तदमृतं तद्वेद्धव्यं सोम्य विद्धि ॥२॥
जो कान्तिमान है और जो सूक्ष्मातिसूक्ष्म हैजिसमें लोक और लोकों के प्राणी स्थित हैंवही यह अविनाशी ब्रह्म हैवही प्राण हैवह ही वाक् मन हैवन ही  यह सत्य हैवही अमृत है। हे प्रिय शौनकउस वेधन के योग्य लक्ष्य को तू वेध दे (जान ले)।

     धनुर्गृहीत्वौषदं महास्त्रं शरं ह्युपासानिशितं सन्धयीत।
    आयम्य तद् भावगतेन चेतसा लक्ष्यं तदेवाक्षरं सोम्य विद्धि ॥३॥
उपनिषदों में कहे हुए महना अस्त्र को ग्रहण करनिश्चय ही उपासना द्वारा उस बाण को खींचकरहे प्रिय शौनकउस अविनाशी ब्रह्म को ही लक्ष्य मानकर वेध दे।

     प्रणवो धनुः शरो ह्यात्म ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते।
    अप्रमत्तेन   वेद्धव्यं    शरवत्तन्मयो   भवेत्॥४॥
ओम धनुष हैजीवात्मा (अन्तःकरण अथवा मन) ही बाण है ब्रह्म उसका लक्ष्य कहा जाता है। सावधान मनुष्य के द्वारा लक्ष्य वेध करने के योग्य है। बाण की भाँति जीवात्मा को उस लक्ष्य में तन्मय हो जाना चाहिए।

     यस्मिन् द्यौः पृथिवी चान्तरिक्षमोतं मनः सह प्राणैश्च सर्वेः ।
    तमैवैकं जानथ आत्मानमन्या वाचो विमुञ्चथामृतस्यैष सेतुः ॥५॥
जिसमेंपृथ्वी और अन्तरिक्ष तथा सब प्राणों के सहित मन गुँथा हुआ हैउस ही एक परमात्मा को जानो; अन्य बातों को छोड़ दो। यह अमृत का सेतु है।

          अरा इव रथनाभौ संहता यत्र नाड्यः.
         स एषोऽन्तश्चरते बहुधा जायमानः ॥
         ओमित्यवं   ध्यायथ   आत्मानं।
         स्वस्ति वः पाराय तमसः परस्तात् ॥६॥
रथ के पहिये की नाभि में जुडे हुए अरों की भाँति जहाँ नाडियाँ संहत हो जाती हैवहाँ (हृदय में) वह अनेक प्रकार से उत्पन्न (प्रकट) होनेवाला यह मध्य में विचरता है (अथवा रहता है)। परमात्मा का ओम् इस नाम से ही ध्यान करो। तम से परेभवसागर के पार दूसरे तट पर जाने के लिएआप सबका कल्याण हो।

     यः   सर्वज्ञः  सर्वविद्    यस्यैष    महिमा    भुवि।
    दिव्ये   ब्रह्मपुरे  ह्येष    व्योम्न्यात्मा    प्रतिष्ठितः ॥
    मनोमयः प्राणशरीरनेता प्रतिष्ठितोऽन्ने हृदयं  संनिधाय।
    तद्विज्ञानने परिपश्यन्ति धीरा आनन्दरूपमृंत यद् विभाति॥७॥
जो सब कुछ जाननेवाला तथा सब कुछ को विस्तार से जानता रहता है (अथवा सब कुछ समझता है)जिसकी जगत् में यह महिमा हैयह ही आत्मा (परमात्मा) दिव्य आकाशरूप ब्रह्मलेक में (अथवा हृदयक्षेत्र में) स्थित है।
सबके प्राण औऱ शरीर का नेतासबका मनोमय (सबके मन में वयाप्त)हृदय में आश्रय लेकरअन्नमय स्थूल देह में प्रतिष्ठित हैजा आनन्दस्वरूप एवं अमृतस्वरूप सर्वत्र प्रकाशित हैविद्वान् (ज्ञानी) विज्ञान (विशेष ज्ञान) के द्वारा उसका साक्षात्कार कर लेते हैं।

     भिद्यते     हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते         सर्वसंशयाः।
      क्षीयन्ते  चास्य कर्माणि  तस्मिन्   दृष्टे    परावरे ॥८॥
परात्पर परब्रह्म का साक्षात्कार कर लेने पर इस (जीवात्मा अथवा धीर पुरूष) की हृदयग्रन्थि खुल जाती हैसब संशय छिन्न हो जाते हैं और कर्मो का क्षय हो जाता है।

     हिरणमये  परे   कोसे   विरजं   ब्रह्म   निष्कलम्।
    तच्छुभ्रं   ज्योतिषां   ज्योतिस्तद्यदात्मविदो   विदुः॥९॥
वह निर्मल अवयवरहित परब्रह्म ज्योतिर्मय श्रेष्ठ कोस में स्थित है। वह शुभ्र हैज्योतियों की भी परम ज्योति हैजिसे आत्मज्ञानी जानते हैं।

न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारंक नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः।
तमेव   भान्तमनुभाति   सर्वं   तस्य   भासा  सर्वमिदं  विभाति॥१०॥
वहाँ (ब्रह्म में) न सूर्य प्रकाशित होता हैन चन्द्रमा और तारागम हीन ये बिजलियाँ चमकती हैं। इस अग्नि की तो बात ही क्या है? उसके प्रकाशित होने पर ही सब कुछ प्रकाशित होता है। उसके प्रकाश से यह सब कुछ प्रकाशित होता है।

     ब्रह्मैवेदममृतं पुरस्ताद् ब्रह्म पश्चाद् ब्रह्म दक्षिणतश्र्चोत्तेरण।
    अधश्चोर्ध्व   च   प्रसृतं   ब्रह्मैवेदं   विश्वमिदं  वरिष्ठम्॥११॥
यह अमृतस्वरूप ब्रह्म ही सामने है, ब्रह्म पीछे हैब्रह्म दायीं ओर और बायीं ओरनीचे और ऊपर फैला हुआ है; (ब्रह्म ही) यह विश्व (सब कुछ) हैयह सर्वश्रेष्ठ ब्रह्म ही है।

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