पूज्य बापूजी के दिव्य दर्शन और भारतीय संस्कृति का सर्वहितकारी ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

Thursday, July 14, 2011


गुर्वष्टकम् - Gururashtkam

श्रीमद आद्य शंकराचार्यविरचितम् - Shankracharyaji

शरीरं सुरूपं तथा वा कलत्रं,
यशश्चारु चित्रं धनं मेरु तुल्यम् |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||||

यदि शरीर रूपवान होपत्नी भी रूपसी हो और सत्कीर्ति चारों दिशाओं में विस्तरित होमेरु पर्वत के तुल्य अपार धन होकिंतु गुरु के श्रीचरणों में यदि मन आसक्त न हो तो इन सारी उपलब्धियों से क्या लाभ?

कलत्रं धनं पुत्र पौत्रादिसर्वं,
गृहो बान्धवाः सर्वमेतद्धि जातम् |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||||

सुन्दरी पत्नीधनपुत्र-पौत्रघर एवं स्वजन आदि प्रारब्ध से सर्व सुलभ हो किंतु गुरु के श्रीचरणों में यदि मन आसक्त न हो तो इस प्रारब्ध-सुख से क्या लाभ?

षड़ंगादिवेदो मुखे शास्त्रविद्या,
कवित्वादि गद्यं सुपद्यं करोति |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||||

वेद एवं षटवेदांगादि शास्त्र जिन्हें कंठस्थ होंजिनमें सुन्दर काव्य निर्माण की प्रतिभा होकिंतु उनका मन यदि गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न हो तो इन सदगुणों से क्या लाभ?

विदेशेषु मान्यः स्वदेशेषु धन्यः,
सदाचारवृत्तेषु मत्तो न चान्यः |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||||

जिन्हें विदेशों में समादर मिलता होअपने देश में जिनका नित्य जय-जयकार से स्वागत किया जाता हो और जो सदाचार पालन में भी अनन्य स्थान रखता होयदि उनका भी मन गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न हो तो सदगुणों से क्या लाभ?

क्षमामण्डले भूपभूपलबृब्दैः,
सदा सेवितं यस्य पादारविन्दम् |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||||

जिन महानुभाव के चरणकमल पृथ्वीमण्डल के राजा-महाराजाओं से नित्य पूजित रहा करते होंकिंतु उनका मन यदि गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न हो तो इस सदभाग्य से क्या लाभ?

यशो मे गतं दिक्षु दानप्रतापात्,
जगद्वस्तु सर्वं करे यत्प्रसादात् |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||||

दानवृत्ति के प्रताप से जिनकी कीर्ति दिगदिगांतरों में व्याप्त होअति उदार गुरु की सहज कृपादृष्टि से जिन्हें संसार के सारे सुख-एश्वर्य हस्तगत हों,किंतु उनका मन यदि गुरु के श्रीचरणों में आसक्तभाव न रखता हो तो इन सारे एशवर्यों से क्या लाभ?

न भोगे न योगे न वा वाजिराजौ,
न कन्तामुखे नैव वित्तेषु चित्तम् |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||||

जिनका मन भोगयोगअश्वराज्यस्त्री-सुख और धनोभोग से कभी विचलित न हुआ होफिर भी गुरु के श्रीचरणों के प्रति आसक्त न बन पाया हो तो मन की इस अटलता से क्या लाभ?

अरण्ये न वा स्वस्य गेहे न कार्ये,
न देहे मनो वर्तते मे त्वनर्ध्ये |
मनश्चेन लग्नं गुरोरघ्रिपद्मे,
ततः किं ततः किं ततः किं ततः किम् ||||

जिनका मन वन या अपने विशाल भवन मेंअपने कार्य या शरीर में तथा अमूल्य भण्डार में आसक्त न होपर गुरु के श्रीचरणों में भी वह मन आसक्त न हो पाये तो इन सारी अनासक्त्तियों का क्या लाभ?

गुरोरष्टकं यः पठेत्पुरायदेही,
यतिर्भूपतिर्ब्रह्मचारी च गेही |
लमेद्वाच्छिताथं पदं ब्रह्मसंज्ञं,
गुरोरुक्तवाक्ये मनो यस्य लग्नम् ||||

जो यतिराजाब्रह्मचारी एवं गृहस्थ इस गुरु अष्टक का पठन-पाठन करता है और जिसका मन गुरु के वचन में आसक्त हैवह पुण्यशालीशरीरधारी अपने इच्छितार्थ एवं ब्रह्मपद इन दोनों को संप्राप्त कर लेता है यह निश्चित है |


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