ब्रह्मसूत्र - BrahmSutr
चतुर्थ अध्याय - Chaturt Adhyay
आवृत्तिर्
असकृदुपदेशात् । १ ।
अध्ययन की हुई
उपासना का आवर्तन ( बार-बार अभ्यास) करना चाहिए, क्योंकि श्रुति में बार-बार इसके लिए उपदेश किया गया है । 1 ।
लिङ्गाच् च । २ ।
स्मृति के वर्णन
रूप लिंग (प्रमाण) से भी यही बात सिद्ध होती है । 2 ।
आत्मेति
तूपगच्छन्ति ग्राहयन्ति च । ३ ।
वह मेरा आत्मा है, इस भाव से ही ज्ञानीजन उसे जानते या प्राप्त
करते हैं और ऐसा ही ग्रहण कराते या समझाते हैं । 3 ।
न प्रतीके न हि
सः । ४ ।
प्रतीक में
आत्मभाव नहीं करना चाहिए क्योंकि वह उपासक का आत्मा नहीं है । 4 ।
ब्रह्मदृष्टिर्
उत्कर्षात् । ५ ।
ब्रह्म ही
सर्वश्रेष्ठ है, इसलिए प्रतीक में
ब्रह्म दृष्टि करनी चाहिए, क्योंकि निकृष्ट
वस्तु में ही उत्कृष्ट की भावना की जाती है । 5 ।
आदित्यादिमतयश्
चाङ्ग उपपत्तेः । ६ ।
तथा कर्माङ्गभूत
उद्गीथ आदि में आदित्य आदि की बुद्धि करनी चाहिए । क्योंकि यही युक्ति युक्त है, ऐसा करने से कर्म समृद्धि रूप फल की सिद्धि
होती है । 6 ।
आसीनः संभवात् । ७ ।
बैठे हुए ही
उपासना करनी चाहिए क्योंकि बैठे हुए ही निर्विघ्न उपासना संभव है । 7 ।
ध्यानाच् च । ८ ।
उपासना का स्वरूप
ध्यान है । इसलिए भी यही सिद्ध होता है कि बैठकर उपासना करनी चाहिए । 8 ।
अचलत्वं
चापेक्ष्य । ९ ।
तथा श्रुति में
शरीर की निश्चलता को आवश्यक बताकर ध्यान करने का उपदेश किया गया है । 9 ।
स्मरन्ति च । १० ।
तथा ऐसा ही स्मरण
करते हैं । 10 ।
यत्रैकाग्रता
तत्राविशेषात् । ११ ।
किसी विशेष स्थान
या दिशा का विधान न होने के कारण यही सिद्ध होता है कि जहाँ चित्त की एकाग्रता
सुगमता से हो सके, वहीं बैठकर ध्यान
का अभ्यास करे । 11 ।
आप्रयाणात्
तत्रापि हि दृष्टम् । १२ ।
मरण पर्यन्त
उपासना करते रहना चाहिए क्योंकि मरण काल में भी उपासना करते रहने का विधान देखा
जाता है । 12 ।
तदधिगम
उत्तरपूर्वाघयोर् अश्लेषविनाशौ तद्व्यपदेशात् । १३ ।
उस परब्रह्म
परमात्मा के प्राप्त हो जाने पर आगे होने वाले और पहले किए हुए पापों का क्रमशः
असंपर्क एवं नाश होता है । क्योंकि श्रुति में यही बात जगह-जगह कही गयी है । 13 ।
इतरस्याप्य् एवम्
असंश्लेषः पाते तु । १४ ।
पुण्यकर्म समुदाय
का भी इसी प्रकार सम्बन्ध न होना और नाश हो जाना समझना चाहिए । देहपात होने पर तो
वह परमात्मा को प्राप्त हो जाता है । 14 ।
अनारब्धकार्ये एव
तु पूर्वे तदवधेः । १५ ।
किन्तु जिनका
फलभोग रूप कार्य आरम्भ नहीं हुआ है ऐसे पूर्वकृत पुण्य और पाप ही नष्ट होते हैं
क्योंकि श्रुति में प्रारब्ध कर्म रहने तक शरीर के रहने की अवधि निर्धारित की गयी
है । 15 ।
अग्निहोत्रादि तु
तत्कार्यायैव तद्दर्शनात् । १६ ।
आश्रमोपयोगी
अग्निहोत्र आदि विहित कर्मों के अनुष्ठान का विधान तो उन उन विहित कर्मों की रक्षा
करने के लिए ही है । यही श्रुतियों एवं स्मृतियों में देखा गया है । 16 ।
अतोऽन्यापि ह्य्
एकेषाम् उभयोः । १७ ।
इनसे भिन्न किया
भी ज्ञानी और साधक दोनों के लिए ही किसी एक शाखा वालों के मत में विहित है । 17 ।
यद् एव विद्ययेति
हि । १८ ।
जो भी विद्या के
सहित किया जाता है, इस प्रकार कथन
करने वाली श्रुति है । इसलिए विद्या कर्मों का अंग किसी जगह हो सकती है । 18 ।
भोगेन त्व् इतरे
क्षपयित्वाथ संपद्यते । १९ ।
संचित और
क्रियमाण के सिवा दूसरे प्रारब्ध रूप शुभाशुभ कर्मों को तो भोग के द्वारा क्षीण
करके वह ज्ञानी परमात्मा को प्राप्त हो जाता है । 19 ।
॥ पहला पाद
संपूर्ण ॥
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