पूज्य बापूजी के दिव्य दर्शन और भारतीय संस्कृति का सर्वहितकारी ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

Thursday, April 28, 2011



पार्वती मंगल भाग 5 - 8 - Parvati Mangal 5-8
(श्री तुलसीदास जी) - Tulsidasji


फिरेउ मातु पितु परिजन लखि गिरिज पन ।
जेहिं अनुरागु लागु चितु सोइ हितु आपन ॥३३॥
तजेउ भोग जिमि रोग लोग अहि गन जनु ।
मुनि मनसहु ते अगम तपहिं लायो मनु ॥३४॥


पार्वतीजी की (दृढ) प्रतिज्ञा को देखकर माता-पिता और परिजन लौट आये । जिसमें अनुरागपूर्वक चित्त लग जाता है, वही अपना प्रिय है ॥33॥ 
उन्होंने भोगों को रोग के समान और लोगों को सर्पों के झुंड के समान त्याग दिया तथा जो मुनियों को भी मन के द्वारा अगम्य था , ऐसे तप में मन लगा दिया ॥34॥


सकुचहिं बसन बिभूषन परसत जो बपु ।
तेहिं सरीर हर हेतु अरंभेउ बड़ तपु ॥३५॥
पूजइ सिवहि समय तिहुँ करइ निमज्जन ।
देखि प्रेमु ब्रतु नेमु सराहहिं सज्जन ॥३६॥


जिस शरीर को स्पर्श करने में वस्त्र- आभूषण भी सकुचाते थे, उसी शरीर से उन्होंने शिवजी के लिये बड़ी भारी तपस्या आरम्भ कर दी ॥35॥ 
वे तीनों काल स्त्रान करती हैं और शिवजी की पूजा करती हैं । उनके प्रेम, व्रत और नियम को सज्जन (साधु) लोग भी सराहते हैं ॥36॥ 


नीद न भूख पियस सरिस निसि बासरु ।
नय न नीरु मुख नाम पु लक तनु हियँ हरु ॥३७॥
कंद मूल फल असन, कबहुँ जल पवनहि ।
सूखे बेलके पात खात दिन गवनहि ॥३८॥


उनके लिये रात-दिन बराबर हो गये हैं ; न नींद है न भूख अथवा न प्यास ही है । नेत्रों में आँसू भरे रहते हैं, मुख से शिव- नाम उच्चारण होता रहता है, शरीर पुलकित रहता है और हृदय में शिवजी बसे रहते हैं ॥37॥ 
कभी कन्द, मूल, फल का भोजन होता है, कभी जल और वायु पर ही निर्वाह होता है और कभी बेल के सूखे पत्ते खाकर ही दिन बिता दिये जाते हैं ॥38॥


नाम अपरना भयउ परन जब परिहरे ।
नवल धवल कल कीरति सकल भुवन भरे ॥३९॥
देखि सरहहिं गिरिजहि मुनिबरु मुनि बहु ।
अस तप सुना न दीख कबहुँ काहुँ कहु ॥४०॥


जब पार्वतीजी ने (सूखे) पत्तों को भी त्याग दिया , तब उनका नाम ’अपर्णा’ पड़ा । उनकी नवीन, निर्मल एवं मनोरम कीर्ति से चौदहों भुवन भर गये ॥39॥ 
पार्वतीजी का तप देखकर बहुत-से मुनिवर और उनकी सराहना करते हैं कि ऐसा तप कभी कहीं किसी ने न देखा और न तो सुना ही था ॥40॥ 


काहुँ न देरव्यौ कहहिं यह तपु जोग फल चारि का ।
नहिं जानि जाइ न कहति चाहति काहि कुधर - कुमारिका ॥
बटु बेष पेखन पेम पनु ब्रत नेम ससि सेखर गएमनसहिं 
समरपेउ आपु गिरिजहि बचन मृदु बोलत भए ॥५॥


वे कहते हैं ऐसा तप किसी ने नहीं देखा । इस तप के योग्य फल क्या चार फल अर्थात् अर्थ, धर्म, काम एवं मोक्ष (कभी) हो सकते हैं ? पर्वतराजकुमारी उमा क्या चाहती है ; जाना नहीं और न वे कुछ कहती ही हैं । तब शशिशेखर श्रीमहादेवजी ब्रह्मचारी का वेष बना उनके प्रेम, (कठोर) नियम, प्रतिज्ञा और (दृढ़) संकल्प की परिक्षा करने के लिये गये । उन्होंने मन-ही-मन अपने को पार्वतीजी के हाथों सौंप दिया और पार्वतीजी से सुमधुर वचन कहने लगे ॥5॥


देखि दसा करुनाकर हर दुख पायउ । 
मोर कठोर सुभाय हदयँ अस आयउ ॥४१॥
बंस प्रसंसि मातु पितु कहि सब लायक ।
अमिय बचनु बटु बोलेउ अति सुख दायक ॥४२॥


उस समय पार्वतीजी की दशा देखकर दयानिधान शिवजी दुखी हो गये और उनके हृदय में यह आया कि मेरा स्वभाव (बड़ा ही ) कठोर है । यही कारण है कि मेरी प्रसन्नता के लिये साधकों को इतना तप करना पड़ता है ॥41॥ 
तब वह ब्रह्मचारी पार्वतीजी के वंश की प्रशंसा करके और उनके माता-पिता को सब प्रकार से योग्य कह अमृत के समान मीठे और सुखदायक वचन बोला ॥42॥


देबि करौं कछु बिनती बिलगु न मानब ।
कहउँ सनेहँ सुभाय साँच जियँ जानब ॥४३॥
जननि जगत जस प्रगटेहु मातु पिता कर ।
तीय रतन तुम उपजिहु भव रतनाकर ॥४४॥


शिवजी ने कहा - ’हे देवि ! मैं कुछ विनती करता हूँ, बुरा न मानना । मैं स्वाभाविक स्त्रेह से कहता हूँ, अपने जी में इसे सत्य जानना ॥43॥ 
तुमने संसार में प्रकट होकर अपने माता-पिता का यश प्रसिध्द कर दिया । तुम संसारसमुद्र में स्त्रियों के बीच रत्न - सदृश उत्पन्न हुई हो’ ॥44॥


अगम न कछु जग तुम कहँ मोहि अस सूझइ ।
बिनु कामना कलेस कलेस न बूझइ ॥४५॥
जौ बर लागि करहू तप तौ लरिकइअ ।
पारस जौ घर मिलौ तौ मेरु कि जाइअ ॥४६॥


’मुझे ऐसा जान पड़ता है कि संसार में तुम्हारे लिये कुछ भी अप्राप्य नहीं है यह भी सच है कि निष्काम तपस्या में क्लेश नहीं जान पड़ता ॥45॥ 
परंतु यदि तुम वर (दुलहा) के लिये तप करती हो तो यह तुम्हारा लड़कपन है; क्योंकि यदि घर में ही पारसमणि मिल जाय तो क्या कोई सुमेरुपर जायगा ? ॥46॥


मोरें जान कलेस करिअबिनु काजहि ।
सुधा कि रोगिहि चाहइ रतन की राजहि ॥४७॥
लखि न परेउ तप कारन बटु हियँ हारेउ ।
सुनि प्रिय बचन सखी मुख गौरि निहारेह ॥४८॥


’हमारी समझसे तो तुम बिना प्रयोजन ही क्लेश उठाती हो । अमृत क्या रोगी को चाहता है और रत्न क्या राजा की कामना करता है ? ’ ॥47॥ 
इस ब्रह्मचारी को आपके तप का कोई कारण समझ में नहीं आया, यह सोचते-सोचते अपने हृदय में हार गया है, इस प्रकार उसके प्रिय वचन सुनकर पार्वतीने सखी के मुख की ओर देखा ॥48॥


गौरीं निहारेउ सखी मुख रुख पाइ तेहिं कारन कहा ।
तपु करहिं हर हितु सुनि बिहँसि बटु कहत मुरुखाई महा ॥
जेहिं दीन्ह अस उपदेस बरेहु कलेस करि बरु बावरो ।
हित लागि कहौं सुभायँ सो बड़ बिषम बैरी रावरो॥६॥


पार्वतीजी ने सखी के मुख की ओर देखा ; तब सखी ने उनकी अनुमति जानकर उनके तप का कारण (यह) बतलाया कि वे शिवजी के लिये तपस्या करती हैं । यह सुनकर ब्रह्मचारी ने हँसकर कहा कि ’यह ( तो तुम्हारी ) महान् मूर्खता है।’ जिसने तुम्हें ऐसा उपदेश दिया है कि जिसके कारण तुमने इतना क्लेश उठाकर बावले वर का वरण किया है, मैं तुम्हारी भलाई के लिये सभ्दाववश कहता हूँ कि वह तुम्हारा घोर शत्रु है ॥6॥


कहहु काह सुनि रीझिहु बर अकुलीनहिं 
अगुन अमान अजाति मातु पितु हीनहिं ॥४९॥
भीख मागि भव खाहिं चिता नित सोचहिं 
नाचहिं नगन पिसाच पिसाचिनि जोवहिं ॥५०॥ 


(अच्छा) यह तो बताओ कि क्या सुनकर तुम ऐसे कुलहीन वरपर रीझ गयी, जो गुरहित, प्रतिष्ठारहित और माता-पितारहित है ॥49॥
वे शिवजी तो भीख माँगकर खाते हैं, नित्य (श्मशानमें) चिता (भस्म) पर सोते हैं, नग्न होकर नाचते हैं और पिशाच-पिशाचिनी इनके दर्शन किया करते हैं’ ॥50॥


भाँग धतूर अहार छार लपटावहिं ।
जोगी जटिल सरोष भोग नहिम भावहिं ॥५१॥
सुमुखि सुलोचनि हर मुख पंच तिलोचन ।
बामदेव फुर नाम काम मद मोचन ॥५२॥


’भाँग-धतूरा ही इनका भोजन है ; ये शरीरमें राख लपटाये रहते हैं । ये योगी, जटाधारी और क्रोधी हैं ; इन्हें भोग अच्छे नहीं लगते ’ ॥51॥ 
तुम सुन्दर मुख और सुन्दर नेत्रों वाली हो, किंतु शिवजी के तो पाँच मुख और तीन आँखें हैं । उनका वामदेव नाम यथार्थ ही है । वे कामदेव के मदको चूर करनेवाला अर्थात् काम -विजयी हैं ॥52॥


एकउ हरहिं न बर गुन कोटिक दूषन । 
नर कपाल गज खाल ब्याल बिष भूषन ॥५३॥
कहँ राउर गुन सील सरुष सुहावान ।
कहाँ अमंगल बेषु बिसेषु भयावन


’शंकर में एक भी श्रेष्ठ गुण नहीं है वरं करोड़ों दूषण हैं । वे नरमुण्ड और हाथी के खाल को धारण करनेवाले तथा साँप और विष से विभूषित हैं’ ॥53॥ 
कहाँ तो तुम्हारा गुण, शील और शोभायमान स्वरुप और कहाँ शंकर का अमङगल वेष , जो अत्यन्त भयानक है ॥54॥


जो सोचइ ससि कलहि सो सोचइ रौरेहि ।
कह मोर मन धरि न बिरय बर बौरेहि ॥५५॥
हिए हेरि हठ तजहु हठै दुख पैहहु ।
ब्याह समय सिख मोरि समुझि पछितैहहु ॥५६॥


’जो शंकर शशिकला की चिन्तामें रहते हैं, वे क्य तुम्हारा ध्यान रखेंगे ? मेरे कहे हुए । वचनोंको हृदय में धारणा कर तुम बावले वर को न वरना’ ॥55॥ 
अपने हृदय में विचारकर हठ त्याग दो ; हठ करने से तुम दु:ख ही पाओगी और ब्याह के समय हमारी शिक्षा को याद कर-करके पछताओगी ॥56॥ 


पछिताब भूत पिताच प्रेत जनेत ऐहैं साजि कै ।
जम धार सरिस निहारि सब नर - नारि चलिहहिं भाजि कै ॥
गज अजिन दुकूल जोरत सखी हँसि मुख मोरि कै ।
कोउ प्रगट कोउ हियँ कहिहि मिलवत अमिय माहुर घोरि कै ॥७॥


’जिस समय वे भूत-पिशाच और प्रेतों की बरात सजाकर आयेंगे ’ तब तुम्हें पछताना पड़ेगा । उस बरात को यमदूतों की सेना के समान देखकर स्त्री- पुरुष सब भाग चलेंगे । (ग्रन्थिबन्धनके समय ) अत्यन्त
 सुन्दर रेशमी वस्त्र को हाथी के चर्मके साथ जोड़ते हुए सखियाँ मुँह फेरकर हँसेंगी और कोई प्रकट एवं कोई हृदय में ही कहेगी कि अमृत और विष को घोलकर मिलाया जा रहा है ॥7॥


तुमहिं सहित असवार बसहँ जब होइहहिं ।
निरखित नगर नर नारि बिहँसि मुख गोइहहिं ॥५७॥
बटु करि कोटि कुतरक जथा रुचि बोलइ ।
अचल सुता मनु अचल बयारि कि डोलइ ॥५८॥


’जब तुम्हारे साथ शिवजी बैल पर सवार होंगे, तब नगर के स्त्री-पुरुष देखकर हँसते हुए अपने मुख छिपा लेंगे’ ॥57॥ 
इसी प्रकार अनेकों कुतर्क करके ब्रह्मचारी इच्छानुसार बोल रहा था ; परंतु पर्वत की पुत्री का मन डिगा नहीं , भला कहीं हवा से पर्वत डोल सकता है ? ॥58॥


साँच सनेह साँच रुचि जो हठि फेरइ ।
सावन सरिस सिंधु रुख सूप सो घेरइ ॥५९॥
मनि बिनु फनि जल हीन मीन तनु त्यागइ ।
सो कि दोष गुन गनइ जो जेहि अनुरागइ ॥६०॥


जो सत्य स्नेह और सच्ची रुचि को फेरना चाहता है , वह (तो) मानो सावन के महीने (वर्षा ऋतु) में नदी के प्रवाह को समुद्र की ओर सूप से घुमाने की चेष्टा करता है ॥59॥
मणि के बिना सर्प और जल के बिन मछली शरीर त्याग देती है, ऐसे ही जो जिसके साथ प्रेम करता है, वह क्या उसके दोष- गुण का विचार करता है ? ॥60॥


करन कटुक चटु बचन बिसिष सम हिय हए । 
चढ़ि भृकुटि अधर फरकत भए ॥६१॥
बोली फिर लखि सखिहि काँपु तन थर थर ।
आलि बिदा करु बटुहि बेगि बड़ बरबर ॥६२॥


ब्रह्मचारी के कर्णकटु चाटु वचनों ने पार्वतीजी के हॄदय में तीरके समान आघात किया ? उनकी आँखें लाल हो गयीं, भृकुटियाँ तन गयीं और होठ फड़कने लगे ॥61॥ 
उनका शरीर थर -थर काँपने लगा । फिर उन्होंने सखी की ओर देखकर कहा-’अरी आली ! इस ब्रह्मचरी को शीघ्र बिदा करो, यह (तो) बड़ा ही अशिष्ट है’ ॥62॥ 


कहुँ तिय होहिं सयानि सुनहिं सिख राउरि ।
बौरेहि कैं अनुराग भइउँ बड़ि बाउरि ॥६३॥
दोष निधान इसानु सत्य सबु भाषेउ ।
मेटि को सकइ सो आँकु जो बिधि लिखि राखेउ ॥६४॥


(फिर ब्रह्मचारी को सम्बोधित करके कहने लगीं -) कहीं कोई चतुर स्त्रियाँ होंगी, वे आपकी शिक्षा सुनेंगी, मैं तो बावले के प्रेम में ही अत्यन्त बावली हो गयी हूँ’ ॥63॥ 
आपने जो कह कि महादेवजी दोषनिधान हैं, सो सब सत्य ही कहा है ; परंतु विधाता ने जो अङक लिख रखे हैं, उन्हें कौन मिटा सकता है ?॥64॥


को करि बादु बिबादु बिषादु बढ़ावइ ।
मीठ काहि कबि कहहिं जाहि जोइ भावइ ॥६५॥ 
भइ बड़ि बार आलि कहुँ काज सिधारहिं ।
बकि जनि उठहिं बहोरि कुजुगुति सवाँरहिं ॥६६॥


’वाद-विवाद करके कौन दु:ख बढ़ाये ? कवि किसको मीठा कहते हैं ? जिसको जो अच्छा लगता है’ । (भाव यह कि जिसको जो अच्छा लगे , उसके लिये वही मीठा है ।) (फिर सखीसे बोली -) हे सखी ! इनसे कहो बहुत देर हो गयी है, अब अपने काम के लिये कहीं जायँ । देखो ,किसी कुयुक्ति को रचकर फिर कुछ न बक उठें ॥65-66॥


जनि कहहिं छु बिपरीत जानत प्रीति रीति न बात की ।
सिव साधु निंदकु मंद अति जोउ सुनै सोउ बड़ पातकी ॥
सुनि बचन सोधि सनेहु तुलसी साँच अबिचल पावनो ।
भए प्रगट करुनासिंधु संकरु भाल चंद सुहावनो ॥८॥


’ये प्रीति की तो क्या, बात करने की रीति भी नहीं जानते; अतएव कोई विपरीत बात (फिर) न कहें । शिवजी और साधुओ कीं निन्दा करनेवाले अत्यन्त मन्द अर्थात् नीच होते हैं ; उस निन्दा को जो कोई सुनता है, वह भी बड़ा पापी होता है ।’ गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि इस वचन को सुन उनका सत्य, दृढ़ और पवित्र प्रेम जानकर करुणासिन्धु श्रीमहादेव जी प्रकट हो गये ; उनके ललाट में चन्द्रमा शोभायमान हो रहा था ॥8

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