पूज्य बापूजी के दिव्य दर्शन और भारतीय संस्कृति का सर्वहितकारी ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

Thursday, April 14, 2011


तैत्तिरीयोपनिषद् - Tatriyopnishad


ब्रह्मानन्दवल्ली - Brhamanandvalli

ॐ ब्रह्मविदाप्नोति परम् | तदेषाऽभ्युक्ता | सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म | यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन् | सोऽश्नुते सर्वान् कामान् सह | ब्रह्मणा विपश्चितेति || तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः संभूतः | आकाशाद्वायुः | वायोरग्निः | अग्नेरापः | अद्भ्यः पृथिवी |पृथिव्या ओषधयः | ओषधीभ्योऽन्नम् | अन्नात्पुरुषः | स वा एष पुरुषोऽन्न्नरसमयः | तस्येदमेव शिरः |अयं दक्षिणः पक्षः | अयमुत्तरः पक्षः | अयमात्मा | इदं पुच्छं प्रतिष्ठा |तदप्येष श्लोको भवति ||इति प्रथमोऽनुवाकः |

ब्रह्मवेत्ता परमात्मा को प्राप्त कर लेता है । उसके विषय मे यह [ श्रुति ] कही गयी है- ‘ब्रह्म सत्य, ज्ञान और अनन्त है ।‘ जो पुरुष उसे बुद्धिरूप परम आकाश मे निहित जानता है, वह सर्वज्ञ  ब्रह्मरूप से एक साथ ही सम्पूर्ण भोगों को प्राप्त कर लेता है । उस इस आत्मा से ही आकाश उत्पन्न हुआ । आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी, पृथ्वी से औषधियाँ, औषधियों से अन्न और अन्न से पुरुष उत्पन्न हुआ । वह यह पुरुष अन्न एवं रसमय ही है । उसका यह [शिर] ही शिर है, यह [ दक्षिण बाहु ] ही दक्षिण पक्ष है, यह [ वाम बाहु ] वाम पक्ष है, यह [ शरीर का मध्य भाग ] आत्मा है और यह [ नीचे का भाग ] पुच्छ प्रतिष्ठा है । उसके विषय मे ही यह श्लोक है ॥


अन्नाद्वै प्रजाः प्रजायन्ते | याः काश्च पृथिवीँ श्रिताः | अथो अन्नेनैव जीवन्ति | अथैनदपि यन्त्यन्ततः | अन्नँ हि भूतानां ज्येष्ठम् | तस्मात् सर्वौषधमुच्यते | सर्वं वै तेऽन्नमाप्नुवन्ति | येऽन्नं ब्रह्मोपासते | अन्नँ हि भूतानां ज्येष्ठम् | तस्मात् सर्वौषधमुच्यते | अन्नाद् भूतानि जायन्ते | जातान्यन्नेन वर्धन्ते | अद्यतेऽत्ति च भूतानि | तस्मादन्नं तदुच्यत इति | तस्माद्वा एतस्मादन्नरसमयात् | अन्योऽन्तर आत्मा प्राणमयः | तेनैष पूर्णः | स वा एष पुरुषविध एव | तस्य पुरुषविधताम् | अन्वयं पुरुषविधः | तस्य प्राण एव शिरः | व्यानो दक्षिणः पक्षः | अपान उत्तरः पक्षः | आकाश आत्मा | पृथिवी पुच्छं प्रतिष्ठा | तदप्येष श्लोको भवति || इति द्वितीयोऽनुवाकः ||

अन्न से ही प्रजा उत्पन्न होती है । जो कुछ प्रजा पृथ्वी को आश्रित करके स्तिथ है वह सब अन्न से ही उत्पन्न होती है; फिर वह अन्न से ही जीवित रहती है और अन्त मे उसी मे लीन हो जाती है, क्योंकि अन्न ही प्राणियों का ज्येष्ठ ( अग्रज- पहले उत्पन्न होनेवाला ) है । इसी से वह सर्वौषध कहा जाता है । जो लोग ‘अन्न ही ब्रह्म है’ इस प्रकार उपासना करते हैं वे निश्चय ही सम्पूर्ण अन्न प्राप्त करते हैं । अन्न ही प्राणियों मे बड़ा है ; इसलिए वह सर्वौषध कहलाता है । अन्न से ही प्राणी उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर अन्न से ही वृद्धि को प्राप्त होते हैं । अन्न प्राणियों द्वारा खाया जाता है और वह भी उन्हीं को खाता है । इसी से वह ‘अन्न’ कहा जाता है । उस इस अन्नरसमय पिण्ड से, उसके भीतर रहनेवाला दूसरा शरीर प्राणमय है । उसके द्वारा यह ( अन्नमय कोश ) परिपूर्ण है । वह यह ( प्राणमय कोश ) भी पुरुषाकार ही है । उस ( अन्नमय कोश )- की पुरुषाकारता के अनुसार ही यह भी पुरुषाकार ही है । उसका प्राण ही सिर है । व्यान दक्षिण पक्ष है । अपान उत्तर पक्ष है । आकाश आत्मा ( मध्यभाग ) है और पृथ्वी पुच्छ- प्रतिष्ठा है । उसके विषय मे ही यह श्लोक है ॥


प्राणं देवा अनु प्राणन्ति | मनुष्याः पशवश्च ये | प्राणो हि भूतानामायुः | तस्मात् सर्वायुषमुच्यते | सर्वमेव त आयुर्यन्ति | ये प्राणं ब्रह्मोपासते | प्राणो हि भूतानामायुः | तस्मात् सर्वायुषमुच्यत इति | तस्यैष एव शारीर आत्मा | यः पूर्वस्य | तस्माद्वा एतस्मात् प्राणमयात् | अन्योऽन्तर आत्मा मनोमयः | तेनैष पूर्णः | स वा एष पुरुषविध एव | तस्य पुरुषविधताम् | अन्वयं पुरुषविधः | तस्य यजुरेव शिरः | ऋग्दक्षिणः पक्षः | सामोत्तरः पक्षः | आदेश आत्मा | अथर्वाङ्गिरसः पुच्छं प्रतिष्ठा | तदप्येष श्लोको भवति ||इति तृतीयोऽनुवाकः ||

देवगण प्राण के अनुगामी होकर प्राणन- क्रिया करते हैं तथा जो मनुष्य और पशु आदि हैं [ वे भी प्राणन- क्रिया से ही चेष्टावान् होते हैं ] । प्राण ही प्राणियों की आयु ( जीवन ) है । इसीलिये वह ‘सर्वायुष’ कहलाता है । जो प्राण को ब्रह्मरूप से उपासना करते हैं वे पूर्ण आयु को प्राप्त होते हैं । प्राण ही प्राणियों की आयु है । इसलिये वह ‘सर्वायुष’ कहलाता है । उस पूर्वोक्त ( अन्नमय कोश )- का यही देहस्तिथ आत्मा है । उस इस प्राणमय कोश से दूसरा इसके भीतर रहने वाला आत्मा मनोमय है । उसके द्वारा यह पूर्ण है । वह यह [ मनोमय कोश ] भी पुरुषाकार ही है । उस ( प्राणमय कोश )- की पुरुषाकारता के अनुसार ही यह भी पुरुषाकार है । यजुः ही उसका सिर है, ऋक् दक्षिण पक्ष है, साम उत्तर पक्ष है, आदेश आत्मा है तथा अथर्वाङ्ग़िरस पुच्छ- प्रतिष्ठा है । उसके विषय मे ही यह श्लोक है ।।



यतो वाचो निवर्तन्ते | अप्राप्य मनसा सह | आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् | न बिभेति कदाचनेति | तस्यैष एव शारीर आत्मा | यः पूर्वस्य | तस्माद्वा एतस्मान्मनोमयात् | अन्योऽन्तर आत्मा विज्ञानमयः | तेनैष पूर्णः | स वा एष पुरुषविध एव | तस्य पुरुषविधताम् | अन्वयं पुरुषविधः | तस्य श्रद्धैव शिरः | ऋतं दक्षिणः पक्षः | सत्यमुत्तरः पक्षः | योग आत्मा | महः पुच्छं प्रतिष्ठा | तदप्येष श्लोको भवति ||इति चतुर्थोऽनुवाकः ||

जहाँ मन के सहित वाणी उसे न पाकर लौट आती है उस ब्रहमानन्द को जानने वाला पुरुष कभी भय को प्राप्त नहीं होता । यह जो [ मनोमय शरीर ] है वही उस अपने पूर्ववर्ती [ प्राणमय कोश ]- का शारीरिक आत्मा है । उस इस मनोमय से दूसरा इसका अन्तर- आत्मा विज्ञानमय है । उसके द्वारा यह पूर्ण है । वह यह विज्ञानमय भी पुरुषाकार ही है । उस [ मनोमय ]- की पुरुषाकारता के अनुसार ही यह भी पुरुषाकार ही है । उसका श्रद्धा ही सिर है । ऋत दक्षिण पक्ष है । सत्य उत्तर पक्ष है । योग आत्मा ( मध्यभाग ) है और महत्तत्व पुच्छ- प्रतिष्ठा है । उसके विषय मे ही यह श्लोक है ।।


विज्ञानं यज्ञं तनुते | कर्माणि तनुतेऽपि च | विज्ञानं देवाः सर्वे | ब्रह्म ज्येष्ठमुपासते | विज्ञानं ब्रह्म चेद्वेद | तस्माच्चेन्न प्रमाद्यति | शरीरे पाप्मनो हित्वा | सर्वान्कामान्समश्नुत इति | तस्यैष एव शारीर आत्मा | यः पूर्वस्य | तस्माद्वा एतस्माद्विज्ञानमयात् | अन्योऽन्तर आत्माऽऽनन्दमयः | तेनैष पूर्णः | स वा एष पुरुषविध एव | तस्य पुरुषविधताम् | अन्वयं पुरुषविधः | तस्य प्रियमेव शिरः | मोदो दक्षिणः पक्षः | प्रमोद उत्तरः पक्षः | आनन्द आत्मा | ब्रह्म पुच्छं प्रतिष्ठा | तदप्येष श्लोको भवति ||इति पञ्चमोऽनुवाकः ||

विज्ञान ( विज्ञानवान् पुरुष ) यज्ञ का विस्तार करता है और वही कर्मों का भी विस्तार करता है । सम्पूर्ण देव ज्येष्ठ विज्ञान- ब्रह्म की उपासना करते हैं । यदि साधक ‘विज्ञान ब्रह्म है’ ऐसा जान जाए और फिर उससे प्रमाद न करे तो अपने शरीर के सारे पापों को त्यागकर वह समस्त कामनाओं ( भोगों )- को पूर्णतया प्राप्त कर लेता है । यह जो विज्ञानमय है वही उस अपने पूर्ववर्ती मनोमय शरीर का आत्मा है । उस इस विज्ञानमय से दूसरा इसका अन्तर्वर्ती आत्मा आनन्दमय है । उस आनन्दमय के द्वारा यह पूर्ण है । वह यह आनन्दमय भी पुरुषाकार ही है । उस ( विज्ञानमय )- की पुरुषाकारता के समान ही यह पुरुषाकार है । उसका प्रिय ही सिर है, मोद दक्षिण पक्ष है, प्रमोद उत्तर पक्ष है, आनन्द आत्मा है और ब्रह्म पुच्छ- प्रतिष्ठा है । उसके विषय मे ही यह श्लोक है ।।



असन्नेव स भवति | असद्ब्रह्मेति वेद चेत् | अस्ति ब्रह्मेति चेद्वेद | सन्तमेनं ततो विदुरिति | तस्यैष एव शारीर आत्मा | यः पूर्वस्य | अथातोऽनुप्रश्नाः | उताविद्वानमुं लोकं प्रेत्य | कश्चन गच्छती३ उ |आहो विद्वानमुं लोकं प्रेत्य कश्चित्समश्नुता ३ उ | सोऽकामयत | बहु स्यां प्रजायेयेति | स तपोऽतप्यत | स तपस्तप्त्वा | इदँ सर्वमसृजत | यदिदं किञ्च | तत्सृष्ट्वा | तदेवानुप्राविशत् | तदनुप्रविश्य | सच्च त्यच्चाभवत् | निरुक्तं चानिरुक्तं च | निलयनं चानिलयनं च | विज्ञानं चाविज्ञानं च | सत्यं चानृतं च सत्यमभवत् | यदिदं किञ्च | तत्सत्यमित्याचक्षते | तदप्येष श्लोको भवति ||इति षष्ठोऽनुवाकः ||

यदि पुरुष ‘ब्रह्म असत् है’ ऐसा जानता है तो वह स्वयम् भी असत् ही हो जाता है । और यदि ऐसा जानता है कि ‘ब्रह्म है’ तो [ ब्रह्मवेत्ता जन ] उसे सत् समझते हैं । उस पूर्वकथित ( विज्ञानमय )- का यह जो [ आनंदमय ] है शरीर- स्तिथ आत्मा है । अब ( आचार्य का ऐसा उपदेश सुनने के अनन्तर शिष्य के ) ये अनुप्रश्न हैं- क्या कोई अविद्वान् पुरुष भी इस शरीर को छोड़ने के अनन्तर परमात्मा को प्राप्त हो सकता है ? अथवा कोई विद्वान् पुरुष भी इस शरीर को छोड़ने के अनन्तर परमात्मा को प्राप्त होता है या नहीं? [ इन प्रश्नों का उत्तर देने के लिए आचार्य भूमिका बाँधते हैं- ] उस परमात्मा ने कामना की ‘मैं बहुत हो जाऊँ अर्थात् मैं उत्पन्न हो जाऊँ ।‘ अतः उसने ताप किया । उसने ताप करके ही यह जो कुछ है इस सबकी रचना की । इसे रचकर वह इसीमे अनुप्रविष्ट हो गया । इसमे अनुप्रवेश कर वह सत्यस्वरूप परमात्मा मूर्त्त- अमूर्त्त, [ देशकालादि परिच्छिन्नरूप से ] कहे जाने योग्य , और न कहे जाने योग्य, आश्रय- अनाश्रय, चेतन- अचेतन एवं व्यावहारिक सत्य- असत्यरूप हो गया । यह जो कुछ है उसे ब्रह्मवेत्ता लोग‘सत्य’ इस नाम से पुकारते हैं । उसके विषय मे ही यह श्लोक है ॥


असद्वा इदमग्र आसीत् | ततो वै सदजायत | तदात्मानँ स्वयमकुरुत | तस्मात्तत्सुकृतमुच्यत इति | यद्वै तत् सुकृतम् | रसो वै सः | रसँ ह्येवायं लब्ध्वाऽऽनन्दी भवति | को ह्येवान्यात्कः प्राण्यात् | यदेष आकाश आनन्दो न स्यात् | एष ह्येवाऽऽनन्दयाति | यदा ह्येवैष एतस्मिन्नदृश्येऽनात्म्येऽनिरुक्तेऽनिलयनेऽभयं प्रतिष्ठां विन्दते | अथ सोऽभयं गतो भवति | यदा ह्येवैष एतस्मिन्नुदरमन्तरं कुरुते | अथ तस्य भयं भवति | तत्वेव भयं विदुषोऽमन्वानस्य | तदप्येष श्लोको भवति ||इति सप्तमोऽनुवाकः ||

पहले यह [ जगत् ] असत् ( अव्याकृत ब्रह्मरूप ) ही था । उसीसे सत् ( नाम- रूपात्मक व्यक्त )- की उत्पत्ति हुई । उस असत् ने स्वयं अपने को ही [ नाम- रूपात्मक जगद् रूप से ] रचा । इसलिये वह सुकृत ( स्वयं रचा हुआ ) कहा जाता है । वह जो प्रसिद्ध सुकृत है सो निश्चय रस ही है । इस रस को पाकर पुरुष आनन्दी हो जाता है । यदि हृदयाकाश मे स्तिथ यह आनन्द ( आनन्दस्वरूप आत्मा ) न होता तो कौन व्यक्ति अपान- क्रिया करता और कौन प्राणन- क्रिया करता ? यही तो उन्हें आनंदित करता है । जिस समय यह साधक इस अदृश्य, अशरीर, अनिर्वाच्य और निराधार ब्रह्म मे अभय- स्थिति प्राप्त करता है उस समय यह अभय को प्राप्त हो जाता है ; और जब यह इसमे थोड़ा- सा भी भेद करता है तो इसे भय प्राप्त होता है । वह ब्रह्म ही भेददर्शी विदवान् के लिए भय रूप है । इसी अर्थ मे यह श्लोक है ॥


भीषाऽस्माद्वातः पवते | भीषोदेति सूर्यः | भीषाऽस्मादग्निश्चेन्द्रश्च | मृत्युर्धावति पञ्चम इति | सैषाऽऽनन्दस्य मीमाँसा भवति | युवा स्यात्साधुयुवाऽध्यायकः | आशिष्ठो दृढिष्ठो बलिष्ठः | तस्येयं पृथिवी सर्वा वित्तस्य पूर्णा स्यात् | स एको मानुष आनन्दः | ते ये शतं मानुषा आनन्दाः ||

इसके भय से वायु चलता है, इसीके भय से सूर्य उदय होता है तथा इसीके भय से अग्नि, इन्द्र और पाँचवाँ मृत्यु दौड़ता है । अब यह [ इस ब्रह्म के ] आनन्द की मीमांसा है- साधु स्वभाव वाला नवयुवक, वेद पढ़ा हुआ, अत्यन्त आशावान् [ कभी निराश न होने वाला ] तथा अत्यन्त दृढ़ और बलिष्ठ हो एवं उसीकि यह धन- धान्य से पूर्ण सम्पूर्ण पृथ्वी भी हो । [ उसका जो आनन्द है ] वह एक मानुष आनन्द है; ऐसे जो सौ मानुष आनन्द हैं ॥


स एको मनुष्यगन्धर्वाणामानन्दः | श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य | ते ये शतं मनुष्यगन्धर्वाणामानन्दाः | स एको देवगन्धर्वाणामानन्दः | श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य | ते ये शतं देवगन्धर्वाणामानन्दाः | स एकः पितृणां चिरलोकलोकानामानन्दः | श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य | ते ये शतं पितृणां चिरलोकलोकानामानन्दाः | स एक आजानजानां देवानामानन्दः ||

वही मनुष्य- गन्धर्वों का एक आनन्द है तथा वह अकामहत ( जो कामना से पीड़ित नहीं है उस ) श्रोत्रिय को भी प्राप्त है । मनुष्य- गन्धर्वों के जो सौ आनन्द हैं वाहोई देवगन्धर्व का एक आनन्द है और वह अकामहत श्रोत्रिय को भी प्राप्त है । देवगन्धर्वों के जो सौ आनन्द हैं वही नित्य लोक मे रहने वाले पितृगण का एक आनन्द है और वह अकामहत श्रोत्रिय को भी प्राप्त है । चिरलोक निवासी पितृगण के जो सौ आनन्द हैं वही आजानज देवताओं का एक आनन्द है ॥


श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य | ते ये शतं आजानजानां देवानामानन्दाः | स एकः कर्मदेवानां देवानामानन्दः | ये कर्मणा देवानपियन्ति | श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य | ते ये शतं कर्मदेवानां देवानामानन्दाः | स एको देवानामानन्दः | श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य | ते ये शतं देवानामानन्दाः | स एक इन्द्रस्याऽऽनन्दः ||

और वह अकामहत श्रोत्रियों को भी प्राप्त है । आजानज देवताओं के जो सौ आनन्द हैं वही कर्म देव देवताओं का, जो कि [ अग्निहोत्रादि ] कर्म करके देवत्व को प्राप्त होते हैं, एक आनन्द है और वह अकामहत श्रोत्रियों को भी प्राप्त है । कर्म देव देवताओं के जो सौ आनन्द हैं वही देवताओं का एक आनन्द है और वह अकामहत श्रोत्रियों को भी प्राप्त है । देवताओं के जो सौ आनन्द हैं वही इन्द्र का एक आनन्द है ॥



श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य | ते ये शतमिन्द्रस्याऽऽनन्दाः | स एको बृहस्पतेरानन्दः | श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य | ते ये शतं बृहस्पतेरानन्दाः | स एकः प्रजापतेरानन्दः | श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य | ते ये शतं प्रजापतेरानन्दाः | स एको ब्रह्मण आनन्दः | श्रोत्रियस्य चाकामहतस्य ||

तथा वह अकामहत श्रोत्रियों को भी प्राप्त है । इन्द्र के जो सौ आनन्द हैं वही बृहस्पति का एक आनंद है और वह वह अकामहत श्रोत्रियों को भी प्राप्त है । बृहस्पति के जो सौ आनन्द हैं वही प्रजापति का एक आनन्द है और वह अकामहत श्रोत्रियों को भी प्राप्त है । प्रजापति के जो सौ आनन्द हैं वही ब्रह्मा का एक आनन्द है और वह अकामहत श्रोत्रियों को भी प्राप्त है ।।



स यश्चायं पुरुषे | यश्चासावादित्ये | स एकः | स य एवंवित् | अस्माल्लोकात्प्रेत्य | एतमन्नमयमात्मानमुपसङ्क्रामति | एतं प्राणमयमात्मानमुपसङ्क्रामति | एतं मनोमयमात्मानमुपसङ्क्रामति | एतं विज्ञानमयमात्मानमुपसङ्क्रामति | एतमानन्दमयमात्मानमुपसङ्क्रामति | तदप्येष श्लोको भवति ||इत्यष्टमोऽनुवाकः ||

वह, जो कि इस पुरुष ( पञ्चकोशात्मक देह )- में है और जो यह आदित्य के अन्तर्गत है, एक है । वह, जो इस प्रकार जानने वाला है, इस लोक ( दृष्ट और अदृष्ट विषयसमूह )- से निवृत्त होकर इस अन्नमय आत्मा को प्राप्त होता है [ अर्थात् विषयसमूह को अन्नमयकोश से पृथक़् नहीं देखता ] । इसी प्रकार वह इस प्राणमय आत्मा को प्राप्त होता है,इस मनोमय आत्मा को प्राप्त होता है, इस विज्ञानमय आत्मा को प्राप्त होता है एवं इस आनन्दमय आत्मा को प्राप्त होता है । उसीके विषय में यह श्लोक है ॥



यतो वाचो निवर्तन्ते | अप्राप्य मनसा सह | आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् | न बिभेति कुतश्चनेति | एतँ ह वाव न तपति | किमहँ साधु नाकरवम् | किमहं पापमकरवमिति | स य एवं विद्वानेते आत्मानँ स्पृणुते | उभे ह्येवैष एते आत्मानँ स्पृणुते | य एवं वेद | इत्युपनिषत् ||इति नवमोऽनुवाकः ||

जहाँ से मन के सहित वाणी उसे प्राप्त न करके लौट आती है उस ब्रह्म के आनन्द को जानने वाला किसी से भी भयभीत नहीं होता । उस विद्वान को, मैंने शुभ क्यों नहीं किया, पापकर्म क्यों कर डाला- इस प्रकार की चिन्ता सन्तप्त नहीं करती । उन्हें [ ये पाप और पुण्य ही ताप के कारण हैं- ] इस प्रकार जानने वाला जो विद्वान अपने आत्मा को प्रसन्न अथवा सबल करता है उसे ये दोनों आत्मस्वरूप ही दिखायी देते हैं । [ वह कौन है ? ] जो इस प्रकार [ पूर्वोक्त अद्वैत आनन्दस्वरूप ब्रह्म को ] जानता है । ऐसी यह उपनिषद् ( रहस्यविद्या ) है ॥


||इति ब्रह्मानन्दवल्ली समाप्ता || ॐ सह नाववतु | सह नौ भुनक्तु | सह वीर्यं करवावहै | तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै | ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||
[वह परमात्मा] हम [आचार्य और शिष्य] दोनों की साथ-साथ रक्षा करे, हम दोनों का साथ-साथ पालन करे, हम साथ-साथ वीर्यलाभ करें, हमारा अध्ययन किया हुआ तेजस्वी हो और हम परस्पर द्वेष न करें । तीनों प्रकार के प्रतिबन्धों की शांति हो ।    


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