पूज्य बापूजी के दिव्य दर्शन और भारतीय संस्कृति का सर्वहितकारी ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

Wednesday, June 23, 2010


मुण्डक उपनिषद् - Mundak Upnishad

तृतीय मुण्डक - Tritya Mundak
द्वितीय खण्ड - Dwitya Khand

स वेदैतत् परमं ब्रह्मधाम यत्र विश्व निहितं भाति शुभ्रम।
उपासते पुरूषं ये ह्यकामास्ते शुक्रमेतदितवर्तन्ति धीराः॥१॥

वह इस परम शुभ्र ब्रह्मधाम (ज्योतिः स्वरूप ब्रह्म) को जान लेता है, जहाँ (जिसमें) सम्पूर्ण जगत् स्थित हुआ भासता है। जो अकाम मनुष्य परमपुरूष की उपासना करते हैं, वे धीर (बुद्धिमान् मनुष्य) इस शुक्र (देह, दैहिक स्तर) का अतिक्रमण कर देते हैं। वे ऊर्ध्वचेता एवं ऊर्ध्वरेता (यौनभाव पर विजय प्राप्त करनेवाले) होते हैं।

कामान् यः कामयते मन्यमानः स कामभिर्जायते तत्र तत्र।
पर्याप्तकामस्य कृतात्मनस्त्विहैव सर्वे प्रविलीयन्ति कामाः ॥२॥

जो भोगों को महत्त्व देनेवाला मनुष्य कामना करता है, वह कामनाओं के कारण वहाँ-वहाँ ही उत्पन्न होता है, किन्तु पूर्णकाम एवं शुद्ध अन्तःकरणवाले पुरूष की समस्त कामनाँ यहाँ ही सर्वथा विलीन (समाप्त) हो जाती हैं।

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यों न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्॥३॥

यह आत्मा (परमात्मा) न प्रवचन से, न तीव्र बुद्धि होने से, न बहुत श्रवण करने से प्राप्त होता है। वह जिसका वरण कर लेता है, उसके द्वारा ही प्राप्त हो सकता है। यह आत्मा उसके लिए अपने स्वरूप को प्रकट कर देता है।

नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो न च प्रमादात्तपसो वाप्यलिङ्गात्।
एतैरूपायैर्यतते यस्तु विद्वांस्तस्यैष आत्मा विशते ब्रह्मधाम॥४॥

यह आत्मा (परमात्मा) बलहीन मनुष्य नहीं प्राप्त किया जा सकता, प्रमाद होने पर भी नहीं प्राप्त होता, तथा केवलमात्र लक्षणरहित तप से भी नहीं प्राप्त हो सकता है (अथवा केवलमात्र संन्यास से नहीं तथा केवलमात्र तप से भी नहीं प्राप्त हो सकता है), किन्तु बुद्धमान पुरूष इन सब उपायों से प्रयत्न करता है। तब उसका यह आत्मा ब्रह्मधाम मे प्रविष्ट हो जाता है।

सम्प्राप्यैनमृषयो ज्ञानतृप्ताः कृतात्मानों वीतरागाः प्रशान्ताः।
ते सर्वगं सर्वतः प्राप्य धीरा युक्तामानः सर्वमेवाविशन्ति॥५॥

वीतराग, विशुद्ध अन्तःकरणवाले ऋषिगण इस परमात्मा को प्राप्त करके ज्ञान से तृप्त (और) परमा शान्त (हो जाते है)। अपने-आपको परमात्मा से युक्त कर देनेवाले वे ज्ञानीजन सर्वव्यापी परमात्मा को सब ओर से प्राप्त करके सर्वरूप परमात्मा में ही प्रविष्ट हो जाते हैं।

वेदान्तविज्ञानसुनिश्चितार्थाः संन्यासयोगाद् यतयः शद्धसत्त्वाः।
ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले परामृताः परिमुच्यन्ति सर्वे ॥६॥

जिन्होंने वेदान्तशास्त्र के (उपनिषदों के) ज्ञान द्वारा उसके अर्थभूत परमात्मा को सुनिश्चित कर लिया, जिनका अन्तःकरण संन्यासयोग से विशुद्ध हो गया, वे समस्त यति (इन्द्रयों का सयंम करनेवाले, यत्न करनेवाले) देहान्त होने पर, ब्रह्मलोक मे जाकर, अमृतस्वरूप होकर सर्वथा मुक्त हो जाते हैं।

गताः कलाः पञ्चदश प्रतिष्ठा देवाश्च सर्वे प्रतिदेवतासु।
कर्माणि विज्ञानमयश्च आत्मा परेऽवय्ये सर्वे एकीभवन्ति॥७॥

(परब्रह्म की प्राप्ति करनेवाले महात्मा की) पन्द्रह कलाएँ और सारे देवता (सारी इन्द्रियाँ) अपने-अपने अभिमानी देवों में जाकर स्थित हो जाते हैं। समस्त कर्म औऱ विज्ञानमय आत्मा (जीवात्मा), सब परम अविनाशी परब्रह्म में एक हो जाते हैं।

यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रेऽस्तं गच्छन्ति नामरूपे विहाय।
तथा विद्वान नामरूपाद् विमुक्तः परात्परं पुरूषमुपैति दिव्यम्॥८॥

जिस प्रकार बहती हुई नदियाँ नाम और रूप को छोड़कर समुद्र में विलीन हो जाती हैं, उसी प्रकार ज्ञानी महात्मा नाम ओर रूप से विमुक्त होकर परात्पर दिव्य पुरूष (ब्रह्म) को प्राप्त होता है।

स यो ह वै तत्परमं ब्रह्म वेद ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति, नास्याब्रह्मवित्कुले भवति।
तरति शोकं तरति पाप्मानं गुहाग्रन्थिभ्यो विमुक्तोऽमृतो भवति॥९॥

निश्चय ही जो कोई भी उस परमब्रह्म परमात्मा को जान लेता है वह ब्रह्म ही हो जाता है। इसके कुल में कोई नास्तिक नहीं होता। वह शोक को पार कर लेता है। वह हृदयगुहा की ग्रन्थियों (गाँठो) से विमुक्त होकर अमृत हो जाता है।

तदेतदृचाभ्युक्तम-
क्रियावन्तः श्रोत्रिया ब्रह्मनिष्ठाः स्वयं जह्वत एकर्षि श्रद्धयन्तः
तेषामेवैतां ब्रह्मविद्यां वदेत शिरोव्रतं विधिवत् यैस्तु चीर्णम् ॥१०॥

वह इस ऋचा के द्वारा कहा गया है-क्रियावान (जो कर्मकाण्ड कर चुका है) श्रोत्रिय (वेदज्ञ), ब्रह्मनिष्ठ, श्रद्धावान् स्वयं एकर्षि (अग्नि अथवा ब्रह्म) में हवन करते हैं तथा जिनके द्वारा विधिपूर्वक शिरोव्रत का पालन किया गया है, उन्हें ही ब्रह्मविद्या का कथन करना चाहिए।

तदेतत् सत्यमृषिरङ्गिराः पुरोवाच नैतदचीर्णव्रतोऽधीते।
नमः परमऋषिभ्यों नमः परमऋषिभ्यः ॥११॥

उसी इस सत्य को पुरातन काल में अङ्गिरा ऋषि ने कहा था। व्रत का पालन न करनेवाला मनुष्य इसका ग्रहण नहीं कर सकता । परम ऋषियों को नमस्कार, परम ऋषियों को नमस्कार।

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