पूज्य बापूजी के दिव्य दर्शन और भारतीय संस्कृति का सर्वहितकारी ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

Friday, September 28, 2012

निरोध लक्षणं  - Nirodh Lakshanam
श्रीवल्लभाचार्य‎  - Sri Vallabhacharyaji

यच्च दुःखं यशोदाया नन्दादीनां च गोकुले।
   गोपिकानां तु यद्‌दुःखं स्यान्मम क्वचित्‌॥१॥     

श्रीकृष्ण से वियोग होने पर गोकुल में श्रीमती यशोदा जी, श्रीनन्द जी और दूसरों को जैसा दुःख होता है और जैसा गोपियों  का दुःख है, किसी प्रकार वैसा ही  दुःख मुझको भी हो जाये॥1॥  


गोकुले गोपिकानां च सर्वेषां व्रजवासिनाम्‌।
        यत्सुखं समभूत्तन्मे भगवान्‌ किं विधास्यति॥२॥    

श्रीकृष्ण के संयोग से गोकुल में जो सुख गोपियों को और समस्त व्रजवासियों को हुआ, वह सुख श्रीकृष्ण मुझे कब देंगे ॥2॥      


उद्धवगमने जात उत्सवः सुमहान्यथा।
      वृन्दावने गोकुले वा  तथा मे मनसि क्वचित्‌॥३॥    

वृन्दावन और गोकुल में, उद्धव के आने से जैसा सुन्दर और महान उत्सव हुआ, वैसा किसी प्रकार मेरे मन में हो जाये ॥3॥       


महतां कृपया यावद्‌ भगवान्‌ दययिष्यति।
     तावदानन्दसन्दोहः कीर्त्यमानः सुखाय हि॥४॥        

जब श्रीकृष्ण महापुरुषों की कृपा प्रदान करेंगे, तब  उनके द्वारा किया गया आनंद-समुद्र श्रीकृष्ण का कीर्तन ही सुख का कारण होगा ॥4॥   


महतां कृपया यद्वत्‌ कीर्तनं सुखदं सदा।
        न तथा लौकिकानां तु स्निग्धभोजनरूक्षवत् ॥५॥      

महापुरुषों द्वारा कृपा करके किया गया श्रीकृष्ण का कीर्तन जैसा सुख देने वाला होता है वैसा लौकिक लोगों द्वारा किया हुआ नहीं, दोनों में सरस और नीरस भोजन जैसा अंतर है ॥5॥      


गुणगाने सुखावाप्तिर्गोविन्दस्य प्रजायते।
    यथा तथा शुकादीनां नैवात्मनि कुतोsन्यतः॥६॥       

शुकदेव आदि भक्तों में कीर्तन के द्वारा श्रीकृष्ण के संयोग का जैसा सुख उत्पन्न हुआ वैसा तो आत्म ज्ञान से भी संभव नहीं, फिर और तो वैसा सुख कहाँ हो सकता है ॥6॥


क्लिश्यमानान्जनान्‌ दृष्ट्‌वा कृपायुक्तो यदा भवेत्‌।
     तदा सर्वसदानन्दं हृदिस्थं निर्गतं बहिः॥७॥        

जब लोगों के दुःख देख कर श्रीकृष्ण द्रवित हो जाते हैं, तब सबके ह्रदय में रहने वाले वे सनातन आनंद स्वरुप  श्रीकृष्ण बाहर प्रकट हो जाते हैं ॥7॥       


सर्वानन्दमयस्यापि कृपानन्दः सुदुर्लभः।
     हृद्‌गतः स्वगुणान्‌ श्रुत्वापूर्णः प्लावयते जनान्‌॥८॥   

यद्यपि प्रभु सनातन आनंद स्वरुप हैं पर उनकी कृपा रूपी आनंद की प्राप्ति कठिन है। हृदय में रहने वाले वे श्रीकृष्ण अपने गुणों का कीर्तन सुनकर अपने भक्तों को आनंद समुद्र से सराबोर कर देते हैं॥8॥     


तस्मात्सर्वं परित्यज्य निरुद्धैः सर्वदा गुणाः।
  सदानन्दपरैर्गेयाः सच्चिदानन्दता ततः॥९॥  

इसलिए सब कुछ छोड़ कर, विषयों का निरंतर दमन करते हुए, उस सत्य, चेतन और आनंद स्वरुप परमात्मा का सदा गुणगान करें ॥9॥  


अहं निरुद्धो रोधेन निरोधपदवीं गतः।
       निरुद्धानां तु रोधायः निरोधं वर्णयामि ते॥१०॥    

मैं (श्रीवल्लभाचार्य जी), विषयों का निरंतर दमन करते हुए, वास्तविक निरोध को उपलब्ध हुआ हूँ, अब निरोध को उपलब्ध होने की इच्छा करने वालों के लिए उसका वर्णन करता हूँ ॥10॥    


हरिणा ये विनिर्मुक्तास्ते मग्ना भवसागरे।
   ये निरुद्धास्त एवात्र मोदमायान्त्यहर्निशम्‌॥११॥  

जो श्रीहरि से विमुख हैं, वे भव-सागर में निमग्न हैं। जिन्होंने इस संसार में इन्द्रिय संयम किया हुआ है, वे दिन और रात, हमेशा आनंद को उपलब्ध होते हैं॥11॥    


संसारावेशदुष्टानामिन्द्रियाणां हिताय वै।
     कृष्णस्य सर्ववस्तूनि भूम्न ईशस्य योजयेत्‌॥१२॥    

संसार में आसक्त दुष्ट इन्द्रियों को, उनके हित के लिए 'सभी वस्तुएं श्रीकृष्ण रूप हैं' इस विचार से भगवान में लगाना चाहिए ॥12॥     


गुणेष्वाविष्टचित्तानां सर्वदा मुरवैरिणः।
        संसारविरहक्लेशौ न स्यातां हरिवत्सुखम्‌॥१३॥       

गुणों में आसक्त मन को सदा मुरारि, श्रीकृष्ण में लगाने से संसार त्याग का दुःख नहीं होगा और श्रीहरि दर्शन के समान सुख की प्राप्ति होगी ॥13॥          


तदा भवेद्‌दयालुत्वमन्यथा क्रूरता मता।
     बाधशंकापि नास्त्यत्र तदध्यासोsपि सिद्धयति॥१४     

इसके बाद ईश्वर की कृपा ही होगी अन्यथा प्रभु में क्रूरता का दोष आएगा। इसमें रूकावट की आशंका भी नहीं है और संसार की असारता का अनुभव भी हो जाता है ॥14॥  


भगवद्धर्म सामर्थ्याद्विरागो विषये स्थिरः।
         गुणैहरेः सुखस्पर्शान्न दुःखं भाति कर्हिचित्‌॥१५॥         

भागवत धर्म की शक्ति से विषयों में विराग हो जाता है, गुण संतुलित हो जाते हैं। श्रीहरि नाम के सुख स्पर्श से दुःख का आभास भी नहीं होता ॥15॥  


एवं ज्ञात्वा ज्ञानमार्गादुत्कर्षं गुणवर्णने।
      अमत्सरैरलुब्धैश्च वर्णनीयाः सदा गुणाः॥१६॥        

इस प्रकार श्रीहरि के गुण वर्णन को ज्ञान मार्ग से उत्कृष्ट जान कर, ईर्ष्या और लोभ को छोड़कर सदा उनके गुणों का वर्णन करना चाहिए ॥16॥     


हरिमूर्तिः सदा ध्येया संकल्पादपि तत्र हि।
     दर्शनं स्पर्शनं स्पष्टं तथाकृतिगती सदा॥१७॥       

श्रीहरि की मूर्ति का सदा ध्यान करना चाहिए और उनके साक्षात् दर्शन और स्पर्श का ही संकल्प करना चाहिए और सदा इसलिए ही सारे कार्य करने चाहिए ॥17॥         


श्रवणं कीर्तनं स्पष्टं पुत्रे कृष्णप्रिये रतिः।
        पायोर्मलांशत्यागेन शेषभागं तनौ नयेत्‌॥१८॥        

ध्यान पूर्वक श्रीकृष्ण के श्रवण और कीर्तन करते हुए, पत्नी - पुत्र से वैसे ही प्रेम करें जैसे शरीर पायु इन्द्रिय को मल -मूत्र त्याग के बाद शरीर में ही लिए रहता है॥18॥  


यस्य वा भगवत्कार्य यदा स्पष्टं न दृश्यते।
       तदा विनिग्रहस्तस्य कर्तव्य इति निश्चयः॥१९॥       

जो कार्य स्पष्ट रूप से श्रीहरि सेवा से सम्बंधित न दिखाई दे उसका न करना कर्त्तव्य है, ऐसा ही सिद्धांत है ॥19॥         


नातः परतरो मन्त्रो नातः परतरः स्तवः।
      नातः परतरा विद्या तीर्थं नातः परात्परम्‌॥२०॥     

इससे बढ़कर कोई मंत्र नहीं है, इससे बढ़कर कोई स्तुति नहीं है, इससे बढ़कर कोई विद्या नहीं है, इससे बढ़कर कोई तीर्थ नहीं है, अतः यह (सिद्धांत) सबसे बढ़कर है॥20॥       

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