पूज्य बापूजी के दिव्य दर्शन और भारतीय संस्कृति का सर्वहितकारी ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

Wednesday, June 6, 2012

नवरत्नं - Navratanm
(श्रीवल्लभाचार्य) - Shri Vallabhacharya

चिन्ता कापि न कार्या निवेदितात्मभिः कदापीति।
भगवानपि पुष्टिस्थो न करिष्यति लौकिकीं च गतिम् ॥१॥      

स्वयं को श्रीकृष्ण को समर्पण करते समय कभी भी किसी प्रकार की भी चिंता न करें, भगवान प्रेम और लोक व्यवहार दोनों का संरक्षण करेंगे ॥1॥ 


निवेदनं तु स्मर्तव्यं सर्वथा ताह्शैर्जनैः।
सर्वेश्चरश्च सर्वात्मा निजेच्छातः करिष्यति ॥२॥

इस प्रकार के भक्त केवल अपने समर्पण को स्मरण रखें, शेष सब कुछ सबके ईश्वर और सबके आत्मा अपनी इच्छा के अनुसार  करेंगे ॥2॥

सर्वेषां प्रभु संबंधो न प्रत्येकमिति स्थितिः ।
अतोsन्यविनियोगेsपि चिन्ता का स्वस्य सोsपिचेत् ॥३॥      

 ईश्वर के साथ सबका सम्बन्ध है पर सबकी उनमें निरंतर स्थिति नहीं है, अतः दूसरों की उनमें स्थिति न होने पर चिंता न करें, वे स्वयं ही जानेंगे॥3॥    

अज्ञानादथ वा ज्ञानात् कृतमात्मनिवेदनम् ।
यैः कृष्णसात्कृतप्राणैस्तेषां का परिदेवना ॥४॥   

जिन्होंने अज्ञान या ज्ञान पूर्वक श्रीकृष्ण को आत्म समर्पण कर दिया है, अपने प्राणों को उनके अधीन कर दिया है, उनको क्या दुःख हो सकता है ॥4॥   

तथा निवेदने चिन्ता त्याज्या श्रीपुरुषोत्तमे ।
विनियोगेsपि सा त्याज्या समर्थो हि हरिः स्वतः ॥५॥        

अतःचिंता को त्याग कर श्रीकृष्ण को समर्पण करें, पूर्ण समर्पण न होने पर भी चिंता को त्याग दें,  श्रीहरि निश्चित रूप से सर्व समर्थ हैं ॥5॥          

लोके स्वास्थ्यं तथा वेदे हरिस्तु न करिष्यति ।
पुष्टिमार्गस्थितो यस्मात्साक्षिणो भवताsखिलाः ॥६॥        

पुष्टि मार्ग में स्थित भक्त के लोक, स्वास्थ्य और वेद का पालन निश्चित रूप से सबके साक्षी श्रीहरि ही करेंगे ॥6॥  
 
सेवाकृतिर्गुरोराज्ञाबाधनं वा हरीच्छया ।
अतः सेवा परं चित्तं विधाय स्थीयतां सुखम् ॥७॥    

गुरु की आज्ञा के अनुरूप अथवा श्रीहरि की इच्छा के अनुसार प्रभु-सेवा ही कर्तव्य है, अतः परमात्मा की सेवा में चित्त को स्थिर करके सुख से रहें ॥7॥  

चित्तोद्वेगं विधायापि हरिर्यद्यत् करिष्यति ।
तथैव तस्य लीलेति मत्वा चिन्तां द्रुतं त्यजेत ॥८॥        

चिंता और उद्वेग में संयम रख कर और ऐसा मान कर कि श्रीहरि जो जो भी करेंगे वह उनकी लीला मात्र है, चिंता को शीघ्र त्याग दें॥8॥  

तस्मात्सर्वात्मना नित्यं श्रीकृष्णः शरणं मम ।
वदद्भिरेव सततं स्थेयमित्येव मे मतिः ॥९॥ 

अतः मैं सदैव सबके आत्मा श्रीकृष्ण की शरण में हूँ। इस प्रकार बोलते हुए ही निरंतर रहें, ऐसा मेरा निश्चित मत है॥9॥

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