पूज्य बापूजी के दिव्य दर्शन और भारतीय संस्कृति का सर्वहितकारी ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

Friday, March 16, 2012

मुण्डक उपनिषद - Mundak Upnishad

प्रथममुण्डके प्रथमः खण्डः - Pratham Mundake Pratham Khand

ॐ ब्रह्मा देवानां प्रथमः संबभूव विश्वस्य कर्ता
भुवनस्य गोप्ता ।
स ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठामथर्वाय
ज्येष्ठपुत्राय प्राह ॥१॥

सम्पूर्ण देवताओं में पहले ब्रह्मा उत्पन्न हुआ। वह विश्व का रचयिता और
त्रिभुवन का रक्षक था। उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को समस्त विद्याओं की आश्रयभूत ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया ॥1॥

अथर्वणे यां प्रवदेत ब्रह्माऽथर्वा तं
पुरोवाचाङ्गिरे ब्रह्मविद्याम् ।
स भारद्वाजाय सत्यवाहाय प्राह
भारद्वाजोऽङ्गिरसे परावराम् ॥२॥

अथर्वा को ब्रह्मा ने जिसका उपदेश किया था वह ब्रह्मविद्या पूर्वकाल में
अथर्वा ने अङ्गी को सिखाई। अङ्गी ने उसे भरद्वाज के पुत्र सत्यवह से कहा तथा भरद्वाज पुत्र (सत्यवह)-ने इस प्रकार श्रेष्ठ से कनिष्ठ को प्राप्त
होती हुई वह विद्या अङ्गिरा से कही ॥2॥

शौनको ह वै महाशालोऽङ्गिरसं विधिवदुपसन्नः पप्रच्छ ।
कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति ॥३॥

शौनक नामक प्रसिद्ध महागृहस्थ ने अङ्गिरा के पास विधिपूर्वक जाकर पूछा- भगवन्! किसके जान लिए जाने पर यह सब कुछ जान लिया जाता है ?’ ॥3॥

तस्मै स होवाच ।
द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म
यद्ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च ॥४॥

उससे उसने कहा-‘ब्रह्मवेत्ताओं ने कहा है कि दो विद्याएँ जानने योग्य हैं-एक परा और दूसरी अपरा’ ॥4॥

तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः
शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति ।
अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते ॥५॥

उनमें ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरण,
निरुक्त, छंद और ज्योतिष- यह अपरा है तथा जिससे उस अक्षर परमात्मा का ज्ञान होता है वह परा है ॥5॥

यत्तदद्रेश्यमग्राह्यमगोत्रमवर्ण-
मचक्षुःश्रोत्रं तदपाणिपादम् ।
नित्यं विभुं सर्वगतं सुसूक्ष्मं
तदव्ययं यद्भूतयोनिं परिपश्यन्ति धीराः ॥६॥

वह जो अदृश्य, अग्राह्य, अगोत्र, अवर्ण और चक्षुःश्रोत्रादिहीन है, इसी
प्रकार अपाणिपाद, नित्य, विभु, सर्वगत, अत्यंत सूक्ष्म और अव्यय है तथा जो सम्पूर्ण भूतों का कारण है उसे विवेकी लोग सब ओर देखते हैं ॥6॥

यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते च
यथा पृथिव्यामोषधयः संभवन्ति ।
यथा सतः पुरुषात् केशलोमानि
तथाऽक्षरात् संभवतीह विश्वम् ॥७॥

जिस प्रकार मकड़ी जाले को बनाती और निगल जाती है, जैसे पृथिवी में औषधियाँ उत्पन्न होती हैं और जैसे सजीव पुरुष से केश एवं लोम उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार उस अक्षर से यह विश्व प्रकट होता है ॥7॥

तपसा चीयते ब्रह्म ततोऽन्नमभिजायते ।
अन्नात् प्राणो मनः सत्यं लोकाः कर्मसु चामृतम् ॥८॥

[ज्ञानरूप] तप के द्वारा ब्रह्म कुछ उपचय (स्थूलता)-को प्राप्त हो जाता
है, उसीसे अन्न उत्पन्न होता है । फिर अन्न से क्रमशः प्राण, मन, सत्य,
लोक, कर्म और कर्म से अमृतसंज्ञक कर्मफल उत्पन्न होता है ॥8॥

यः सर्वज्ञः सर्वविद्यस्य ज्ञानमयं तापः ।
तस्मादेतद्ब्रह्म नाम रूपमन्नं च जायाते ॥९॥

जो सबको [समान्यरूप से] जानने वाला और सबका विशेषज्ञ है तथा जिसका ज्ञानमय ताप है उस [अक्षरब्रह्म]-से ही यह ब्रह्म (हिरण्यगर्भ), नाम, रूप और अन्न उत्पन्न होता है ॥9॥

॥ इति मुण्डकोपनिषदि प्रथममुण्डके प्रथमः खण्डः ॥

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