पूज्य बापूजी के दिव्य दर्शन और भारतीय संस्कृति का सर्वहितकारी ज्ञान

नारायण नारायण नारायण नारायण

Saturday, October 30, 2010


विनय पत्रिका - Vinay Patrika

विनयावली ७३ - Vinyavli 83
(तुलसीदास जी) - Tulsidasji


सुनहु राम रघुबीर गुसाईं, मन अनीति - रत मेरो ।
चरन - सरोज बिसारि तिहारे, निसिदिन फिरत अनेरो ॥१॥

रामजी ! हे रघुनाथजी ! हे स्वामी ! सुनिये - मेरा मन अन्याय में लगा हुआ है, आपके चरण - कमलों को भूलकर दिन-रात इधर-उधर (विषयोंमें) भटकता फिरता है ॥१॥

मानत नाहिं निगम - अनुसासन, त्रास न काहू केरो ।
भूल्यो सूल करम - कोलुन्ह तिल ज्यों बहु बारनि पेरो ॥२॥

न तो वह वेद की ही आज्ञा मानता है और न उसे किसी का डर ही है । वह बहुत बार कर्मरुपी कोल्हू में तिल की तरह पेरा जा चुका है, पर अब उस कष्ट को भूल गया है ॥२॥

जहँ सतसंग कथा माधवकी, सपनेहुँ करत न फेरो ।
लोभ - मोह - मद - काम - कोह - रत, तिन्हसों प्रेम घनेरो ॥३॥

जहाँ सत्संग होता है, भगवान की कथा होती है, वहाँ वह मन स्वप्न में भी भूलकर भी नहीं जाता । परन्तु जो लोभ, मोह, मद, काम और क्रोध में मग्न रहते हैं, उन्हीं ( दुष्टों ) से वह अधिक प्रेम करता है ॥३॥

पर - गुन सुनत दाह, पर - दूषन सुनत हरख बहुतेरो ।
आप पापको नगर बसावत, सहि न सकत पर खेरो ॥४॥

दूसरों के दोष सुनकर बड़ा भारी हरखाता है । स्वयं तो पापों का नगर बसा रहा है, पर दूसरे के (पापों के) खेड़े को भी नहीं देख सकता । भाव यह कि अपने बड़े-बड़े पापों पर तो कुछ भी ध्यान नहीं देता, परन्तु दूसरों के जरा से पाप को देखकर ही उनकी निन्दा करता है ॥४॥

साधन - फल, श्रुति - सार नाम तव, भव - सरिता कहँ बेरो ।
सो पर - कर काँकिनी लागि सठ, बेंचि होत हठि चेरो ॥५॥

आपका राम - नाम सारे साधनों का फल, वेदों का सार और संसाररुपी नदी से पार जाने के लिये बेड़ा है, ऐसे राम - नाम को यह दुष्ट दूसरे के हाथ में कौड़ी - कौड़ी के लिये बेचता हुआ जबरदस्ती उनका गुलाम बनता फिरता है ॥५॥

कबहुँक हौं संगति - प्रभावतें, जाउँ सुमारग नेरो ।
तब करि क्रोध संग कुमनोरथ देत कठिन भटभेरो ॥६॥

यदि कभी सत्संग के प्रभाव से भगवत के मार्ग के समीप जाता भी हूँ तो विषयों की आसक्ति उभड़कर मन को तुरंत सांसारिक बुरी कामनारुपी गड्ढे में धक्का दे देती है ॥६॥

इक हौं दीन, मलीन, हीनमति, बिपतिजाल अति घेरो ।
तापर सहि न जाय करुनानिधि, मनको दुसह दरेरो ॥७॥

एक तो मैं वैसे ही दीन, पापी और बुद्धिहीन हूँ तथा विपत्तियों के जाल में खूब फँसा पड़ा हूँ, तिस पर, हे करुणानिधि ! मन के इस असह्य धक्के को मैं कैसे सह सकता हूँ ? ॥७॥

हारि पर्यो करि जतन बहुत बिधि, तातें कहत सबेरो ।
तुलसिदास यह त्रास मिटै जब हदय करहु तुम डेरो ॥८॥

मैं अनेक यत्न करके हार गया इससे मैं पहले से ही कह देता हूँ कि तुलसीदासका यह भय ( जन्म - मरणका त्रास ) तभी दूर होगा, जब आप उसके हदय में निवास करेंगे ॥८॥

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