नारद भक्ति सूत्र - Narad Bhagti Sutr
चतुर्थोऽध्यायः - Forth Adhyay
अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपम् ।
प्रेम का स्वरूप अनिर्वचनीय है (बताया नहीं जा सकता) ।॥५०॥
मूकास्वादनवत् ।
गूंगे के स्वाद की तरह ॥५२॥
प्रकाशते क्वापि पात्रे ।
किसी (योग्य ) पात्र में प्रकाशित होता है ॥५३॥
गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षणवर्धमानं अविच्छिन्नं सूक्ष्मतरं अनुभवरूपम् ।
यह (परम-प्रम-रूपा भक्ति) गुण रहित है, कामना रहित है, प्रति क्षण बढ़ती रहती है, सूक्ष्मतर है तथा अनुभव रूप है ॥५४॥
तत्प्राप्य तदेवावलोकति तदेव शृणोति तदेव भाषयति तदेव चिन्तयति ।
उस ((परम-प्रम-रूपा भक्ति) (शक्ति) को प्राप्त कर, (प्रेमी भक्त) उसी को देखता, उसी को सुनता, उसी की बात करता, तथा उसी का चिन्तन करता है ॥५५॥
गौणि त्रिधा गुणभेदाद् आर्तादिभेदाद् वा ।
गौणी भक्ति गुण भेद से, तथा आर्तादि भेद से तीन प्रकार की होती है (तामसी याने दम्भी, राजसी याने कुछ पाने के लिए, सात्विकी याने चित्त शुद्ध करने के लिए। आर्तभक्ति जगत भोग से मुक्ति के लिए, अर्थार्थी प्रभु को प्राप्त करने के लिए, जिज्ञासु प्रभु को पाने की तीव्र इच्छा- संयम की स्थिति से वैराग्य तक पहुँचा ) ॥५६॥
उत्तरस्मादुत्तरस्मात् पूर्व पूर्वा श्रेयाय भवति ।
पूर्व क्रम की भक्ति उत्तरोत्तर क्रम से श्रेयस्कर होती है (सात्विक राजसिक से इत्यादि ) ॥५७॥
शान्तिरूपात् परमानन्दरूपाच्च ।
भक्ति शान्ति तथा परमानन्द रूपा है ॥६०॥
लोकहानौ चिन्ता न कार्या निवेदितात्मलोकवेदत्वात् ।
लोकहानि की चिन्ता न करें क्योकि लौकिक तथा वैदिक (सभी कर्मों को ) प्रभु को निवेदन कर देता है ॥६१॥
न तत्सिध्दौ लोकव्यवहरओ हेयः किन्तु फलत्यागः तत्साधनं च ।
(परन्तु) जब तक सिद्धि प्राप्त न हो (तब तक ) लोक व्यवहार हेय नहीं है किन्तु फल त्याग कर कर्म करना, उसका (भक्ति का) साधन है ॥६२॥
स्त्रिधननास्तिकचरित्रं न श्रवणीयम् ।
स्त्री, धन , नास्तिक तथा वैरी का श्रवण नहीं करना चाहिए ( स्त्री शब्द से वासना का प्रतीक है) ॥६३॥
अभिमानदम्भादिकं त्याज्यम् ।
अभिमान, दम्भ आदि का त्याग करना चाहिए ॥६४॥
तदर्पिताखिलाचारः सन् कामक्रोधाभिमानादुकं तस्मिन्नेव करणीयम् ।
सब आचार भगवान को अर्पण कर देने पर भी यदि काम क्रोध अभिमानादि हों तो उन्हें भी भगवान के प्रति ही करना चाहिए ॥६५॥
त्रिरूपभङ्गपूर्वमकम् नित्यदास्यनित्यकान्ताभजनात्मकं प्रेम कार्य प्रेमैव कार्यम् ।
तीन रूपों को भंग कर, नित्य दास अथवा नित्य कान्ता भक्ति से प्रेम करना ही कार्य है, प्रेम करना ही कार्य है (तीन रूप का अर्थ स्वामी,सेवा और सेवक, या प्रियतमा, प्रियतम तथा प्रेम ) ॥६६॥
चतुर्थोऽध्यायः - Forth Adhyay
अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपम् ।
प्रेम का स्वरूप अनिर्वचनीय है (बताया नहीं जा सकता) ।॥५०॥
मूकास्वादनवत् ।
गूंगे के स्वाद की तरह ॥५२॥
प्रकाशते क्वापि पात्रे ।
किसी (योग्य ) पात्र में प्रकाशित होता है ॥५३॥
गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षणवर्धमानं अविच्छिन्नं सूक्ष्मतरं अनुभवरूपम् ।
यह (परम-प्रम-रूपा भक्ति) गुण रहित है, कामना रहित है, प्रति क्षण बढ़ती रहती है, सूक्ष्मतर है तथा अनुभव रूप है ॥५४॥
तत्प्राप्य तदेवावलोकति तदेव शृणोति तदेव भाषयति तदेव चिन्तयति ।
उस ((परम-प्रम-रूपा भक्ति) (शक्ति) को प्राप्त कर, (प्रेमी भक्त) उसी को देखता, उसी को सुनता, उसी की बात करता, तथा उसी का चिन्तन करता है ॥५५॥
गौणि त्रिधा गुणभेदाद् आर्तादिभेदाद् वा ।
गौणी भक्ति गुण भेद से, तथा आर्तादि भेद से तीन प्रकार की होती है (तामसी याने दम्भी, राजसी याने कुछ पाने के लिए, सात्विकी याने चित्त शुद्ध करने के लिए। आर्तभक्ति जगत भोग से मुक्ति के लिए, अर्थार्थी प्रभु को प्राप्त करने के लिए, जिज्ञासु प्रभु को पाने की तीव्र इच्छा- संयम की स्थिति से वैराग्य तक पहुँचा ) ॥५६॥
उत्तरस्मादुत्तरस्मात् पूर्व पूर्वा श्रेयाय भवति ।
पूर्व क्रम की भक्ति उत्तरोत्तर क्रम से श्रेयस्कर होती है (सात्विक राजसिक से इत्यादि ) ॥५७॥
अन्य मात् सौलभं भक्तो ।
अन्य की अपेक्षा भक्ति सुलभ है ॥५८॥
अन्य की अपेक्षा भक्ति सुलभ है ॥५८॥
प्रमाणान्तरस्यानपेक्षत्वात् स्वयं प्रमाणत्वात् ।
भक्ति स्वयं प्रमाण रूप है, अन्य प्रमाण की आवश्यक्ता नहीं ॥५९॥
भक्ति स्वयं प्रमाण रूप है, अन्य प्रमाण की आवश्यक्ता नहीं ॥५९॥
शान्तिरूपात् परमानन्दरूपाच्च ।
भक्ति शान्ति तथा परमानन्द रूपा है ॥६०॥
लोकहानौ चिन्ता न कार्या निवेदितात्मलोकवेदत्वात् ।
लोकहानि की चिन्ता न करें क्योकि लौकिक तथा वैदिक (सभी कर्मों को ) प्रभु को निवेदन कर देता है ॥६१॥
न तत्सिध्दौ लोकव्यवहरओ हेयः किन्तु फलत्यागः तत्साधनं च ।
(परन्तु) जब तक सिद्धि प्राप्त न हो (तब तक ) लोक व्यवहार हेय नहीं है किन्तु फल त्याग कर कर्म करना, उसका (भक्ति का) साधन है ॥६२॥
स्त्रिधननास्तिकचरित्रं न श्रवणीयम् ।
स्त्री, धन , नास्तिक तथा वैरी का श्रवण नहीं करना चाहिए ( स्त्री शब्द से वासना का प्रतीक है) ॥६३॥
अभिमानदम्भादिकं त्याज्यम् ।
अभिमान, दम्भ आदि का त्याग करना चाहिए ॥६४॥
तदर्पिताखिलाचारः सन् कामक्रोधाभिमानादुकं तस्मिन्नेव करणीयम् ।
सब आचार भगवान को अर्पण कर देने पर भी यदि काम क्रोध अभिमानादि हों तो उन्हें भी भगवान के प्रति ही करना चाहिए ॥६५॥
त्रिरूपभङ्गपूर्वमकम् नित्यदास्यनित्यकान्ताभजनात्मकं प्रेम कार्य प्रेमैव कार्यम् ।
तीन रूपों को भंग कर, नित्य दास अथवा नित्य कान्ता भक्ति से प्रेम करना ही कार्य है, प्रेम करना ही कार्य है (तीन रूप का अर्थ स्वामी,सेवा और सेवक, या प्रियतमा, प्रियतम तथा प्रेम ) ॥६६॥