द्वे अक्षरे ब्रह्मपरे त्वनन्ते
विद्याविद्ये निहिते यत्र गूढे ।
क्षरं त्वविद्या ह्यमृतं तु विद्या
विद्याविद्ये ईशते यस्तु सोऽन्यः ॥ १ ॥
हिरण्यगर्भ से उत्कृष्ट अविनाशी और अनन्त परब्रह्म मे जहाँ विद्या और अविद्या दोनों परिच्छिन्न भाव से स्तिथ हैं [उनमे] क्षर अविद्या है और अमृत विद्या है तथा जो इन विद्या और अविद्या दोनों का शाषण करता है वह इनसे भिन्न है ।।1।।
यो योनिं योनिमधितिष्ठत्येको
विश्वानि रूपाणि योनीश्च सर्वाः ।
ऋषिं प्रसूतं कपिलं यस्तमग्रे
ज्ञानैर्बिभर्ति जायमानं च पश्येत् ॥ २ ॥
जो अकेला ही प्रत्येक स्थान तथा संपूर्ण रूप और समस्त योनियों (उत्पत्तिस्थानों) का अधिष्ठान है, तथा जिसने सृष्टि के आरम्भ मे उत्पन्न हुये कपिल ऋषि (हिरण्यगर्भ) को ज्ञानसम्पन्न किया था और जन्म लेते हुए भी देखा था [वही विद्या और अविद्या से भिन्न उनका शासक है] ॥2॥
न्नस्मिन् क्षेत्रे संहरत्येष देवः ।
सर्वाधिपत्यं कुरुते महात्मा ॥ ३ ॥
इस संसार क्षेत्र मे यह देव [सृष्टि के समय] एक-एक जाल को अनेक प्रकार से विकृत कर [अंत मे] संहार करता है, तथा यह महात्मा ईश्वर ही [कल्पान्तर के आरंभ मे] प्रजापतियों को पुनः उत्पन्न कर सबका आधिपत्य करता है ॥3॥
सर्वा दिश ऊर्ध्वमधश्च तिर्यक्
प्रकाशयन् भ्राजते यद्वनड्वान् ।
एवं स देवो भगवान् वरेण्यो
योनिस्वभावानधितिष्ठत्येकः ॥ ४ ॥
जिस प्रकार सूर्य प्रकाशित होता है वैसे ही यह ऊपर, नीचे तथा इधर-उधर समस्त दिशाओं को प्रकाशित करता हुआ देदीप्यमान होता है । इस प्रकार वह द्योतनस्वभाव सम्भजनीय भगवान् अकेला ही कारणभूत पृथ्वी आदि का नियमन करता है ॥4॥
यच्च स्वभावं पचति विश्वयोनिः
पाच्यांश्च सर्वान् परिणामयेद् यः ।
सर्वमेतद् विश्वमधितिष्ठत्येको
गुणांश्च सर्वान् विनियोजयेद् यः ॥ ५ ॥
जगत् का करणभूत जो परमात्मा [प्रत्येक वस्तु के] स्वभाव को निष्पन्न करता है, जो पाच्यों (परिणामयोग्य पदार्थों) को परिणत करता है, जो अकेला ही इस सम्पूर्ण विश्व का नियमन करता है और जो [सत्त्वादि] समस्त गुणों को उनके कार्यों मे नियुक्त करता है [वह परब्रह्म है] ॥5॥
तद् वेदगुह्योपनिषत्सु गूढं
तद् ब्रह्मा वेदते ब्रह्मयोनिम् ।
ये पूर्वं देवा ऋषयश्च तद् विदु-
स्ते तन्मया अमृता वै बभूवुः ॥६ ॥
वह वेदों के गुह्यभाग उपनिषदों मे निहित है, उस वेदवेद्य परमात्मा को ब्रह्मा जानता है, जो पुरातन देव और ऋषिगण उसे जानते थे वे तद्रूप होकर अमर ही हो गए थे ॥6॥
कृतस्य तस्यैव स चोपभोक्ता ।
स विश्वरूपस्त्रिगुणस्त्रिवर्त्मा
प्राणाधिपः सञ्चरति स्वकर्मभिः ॥ ७ ॥
जो गुणों से सम्बद्ध, फलप्रद कर्म का कर्ता और उस किए हुए कर्म का उपभोग करने वाला है, वह विभिन्न रूपोंवाला, त्रिगुणमय, तीन मार्गों से गमन करने वाला प्राणों का अधिष्ठाता अपने कर्मों के अनुसार गमन करता है ॥7॥
अङ्गुष्ठमात्रो रवितुल्यरूपः
सङ्कल्पाहङ्कारसमन्वितो यः ।
बुद्धेर्गुणेनात्मगुणेन चैव
आराग्रमात्रोऽप्यपरोऽपि दृष्टः ॥ ८ ॥
जो अंगूठे के बराबर परिमाणवाला, सूर्य के समान ज्योतिःस्वरूप, संकल्प और अहंकार से युक्त तथा बुद्धि और शरीर के गुणों से भी युक्त है वह अन्य (जीव) भी आर की नोंक के बराबर आकारवाला देखा गया है ॥8॥
बालाग्रशतभागस्य शतधा कल्पितस्य च ।
भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते ॥ ९ ॥
सौ भागों मे विभक्त किया हुआ जो केश के अग्र भाग का सौवाँ भाग है उस जीव को उसके बराबर जानना चाहिए; किन्तु वही अनन्तरूप हो जाता है ॥9॥
नैव स्त्री न पुमानेष न चैवायं नपुंसकः ।
यद्यच्छरीरमादत्ते तेने तेने स युज्यते ॥ १० ॥
यह [विज्ञानात्मा] न स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक ही है । यह जो-जो शरीर धारण कर्ता है उसी-उसीसे सुरक्षित रहता है ।।10।।
सङ्कल्पनस्पर्शनदृष्टिमोहै-
र्ग्रासांबुवृष्ट्यात्मविवृद्धिजन्म ।
कर्मानुगान्यनुक्रमेण देही
स्थानेषु रूपाण्यभिसम्प्रपद्यते ॥ ११ ॥
जिस प्रकार अन्न और जल के सेवन से शरीर की वृद्धि होती है वैसे ही संकल्प, स्पर्श, दर्शन और मोह से [कर्म होते हैं । फिर] यह देही क्रमशः [विभिन्न] योनियों मे जाकर उन कर्मों के अनुसार रूप धारण करता है ।।11।।
स्थूलानि सूक्ष्माणि बहूनि चैव
रूपाणि देही स्वगुणैर्वृणोति ।
क्रियागुणैरात्मगुणैश्च तेषां
संयोगहेतुरपरोऽपि दृष्टः ॥ १२ ॥
जीव अपने गुणों (पाप-पुण्यों) के द्वारा स्थूल-सूक्ष्म बहुत-से देह धारण करता है । फिर उन (शरीरों) के कर्मफल और मानसिक संस्कारों के द्वारा उनके संयोग (देहान्तरप्राप्ति) का दूसरा हेतु भी देखा गया है ।।12॥
अनाद्यनन्तं कलिलस्य मध्ये
विश्वस्य स्रष्ठारमनेकरूपम् ।
विश्वस्यैकं परिवेष्टितारं
ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः ॥ १३ ॥
इस गहन संसार के भीतर उस अनादि, अनन्त, विश्व के रचयिता, अनेकरूप, विश्व को एकमात्र व्याप्त करनेवाले देव को जानकर जीव समस्त पाशों से मुक्त हो जाता है ।।13।।
भावग्राह्यमनीडाख्यं भावाभावकरं शिवम् ।
कलासर्गकरं देवं ये विदुस्ते जहुस्तनुम् ॥ १४ ॥
भावग्राह्य, अशरीरसंज्ञक, सृष्टि और प्रलय करनेवाले, शिवस्वरूप एवं कलाओं की रचना करनेवाले इस देव को जो जान लेते हैं वे शरीर (देहबन्धन) को त्याग देते हैं ।।14।।